अपूर्व राय
कोरोना वायरस को रोकने के
लिये लॉकडाउन जारी है और असमंजस की स्थिति बनी है कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा. कभी
सोचा न था एक दिन ऐसा भी आएगा जब हम दहशत की ज़िंदगी जीने को मजबूर हो जाएंगे,
अपने सगों से भी घबराने लगेंगे, पड़ोस वाले को शक की निगाह से देखेंगे, बगल से
गुज़रने वाले हर इंसान से डरेंगे, घर में बैठकर दफ्तर का काम करेंगे और भूल जाएंगे
मौज मस्ती क्या होती है.
कोई दिन-रात दफ्तर का काम कर रहा है, कोई अपनी दिनचर्या बिगड़ जाने से दुखी
है, बच्चे अपने करियर को लेकर परेशान हैं, हर रोज़ हर तरफ बीमारी की ख़बर से कोई
विचलित है तो कोई रोज़ की भागती दौड़ती ज़िंदगी थम जाने से परेशान है. इतना ही
होता तो भी ठीक था लेकिन बात और भी गंभीर हो रही है. बिगड़ती अर्थव्यवस्था, बढ़ती
बेकारी और तनख्वाहों में कटौती ने हालात को नाज़ुक बना दिया है. कुल मिलाकर इन
दिनों हर इंसान परेशान है, भयभीत है.
मिली है जीने की नई राह
बहरहाल, बिगड़े हालातों के बीच घर में गुज़र रही ज़िंदगी ने हमें जीने का एक
नया आयाम दिया है. लॉकडाउन हर किसी के लिए एक नया मायने भी लेकर आया है. जिस तरह
निराशा में आशा छुपी रहती है उसी तरह समाज में ऐसे लोग भी देखने को मिले जिन्होंने
आज के खराब समय में भी जीने का एक नया अवसर देखा और जीवन में कुछ नया करने का
प्रयास कर रहे हैं, एक नई ज़िंदगी एक नए उत्साह से जीने की कोशिश कर रहे हैं. आखिर
ज़िंदगी ज़िंदादिली का ही नाम है और वही शख्स खुश रहता है जो अपने और अपनों के
जीवन में खुशी और आनंद के चंद पल चुरा के ले आता है. ऐसे ही लोगों के लिए लॉकडाउन
वो वक्त साबित हुआ है जब वो ज़िंदगी के बारे में और गहराई से सोच रहे हैं, अपनों
के और करीब आ रहे हैं, एक-दूसरे के दिल की बात को बिना कहे महसूस कर रहे हैं और इस
बात पर गहराई से मनन कर रहे हैं कि आखिर ज़िंदगी में क्या-क्या ज़रूरी है और कितना ?
जब सुबह-सुबह उठने की जल्दी न हो, दफ्तर जाने की हड़बड़ी न हो, बच्चों को
स्कूल भेजने की फिक्र न हो तो एक बात सबसे पहले मन में आती है-- आज क्या बनाएंगे,
आज क्या खाएंगे ! लॉकडाउन का सबसे उजला पहलू जो हम सबके बीच उभर कर आया वो
है खाना-पीना. बिस्तर से उठकर
सुबह की नींबू वाली 'ग्रीन टी' और साथ में कुछ-एक बिस्किट. जो चाय हम सदा से सुकून से पीना
चाहते थे वो इन दिनों मिल रही है. साथ ही हो रही है चाय पे चर्चा. चर्चा किसी
गंभीर विषय पर नहीं है बल्कि इस बात पर है कि आज लंच पर क्या बने और बच्चों की कौन
सी फरमाइश पूरी की जाए. परेशानी और अवसाद के माहौल में भी खुशी के कुछ क्षण दिखे
हैं इन दिनों.
पिछले एक महीने में लोगों ने जितनी चाय पे खाने की चर्चा की होगी उतनी शायद
पिछले कई वर्षों में नहीं की होगी. जब घर के सब लोग साथ हों और कहीं जाने की
जल्दबाजी न हो तो रोज़ का खाना किसे अच्छा लगता है-- वही दाल-चावल, रोटी-सब्ज़ी, आम
का अचार और आलू के परांठे, चटनी, पापड़, सलाद. इन दिनों फरमाइशें बढ़ गई हैं और कुछ
नया बनाने की होड़ सी लगी हुई है. एक ने कोई नया केक बना दिया तो किसी और ने
सब्ज़ी एक नई विधि से बनाकर सबको चकित कर दिया.
क्या करें, हम इंसानों की सबसे बड़ी कमज़ोरी अच्छा खाना है. लॉकडाउन है, बहुद
से स्वाद से वंचित हैं. लिहाज़ा घर में ही तरह-तरह की भोजन सामग्री तैयार हो रही
है और दूर बैठे मित्र, रिश्तेदारों के दिल जल रहे हैं. इस बीच एक प्रतिस्पर्धा भी
शुरू हो गई है-- भला उसकी सब्ज़ी मेरी सब्ज़ी से लज़ीज़ कैसे ? किसी ने नाश्ते
में इडली-सांबर बनाया तो अगले दिन ही ख़बर आई कि एक अन्य मित्र के घर नाश्ते में
ढोकला बना और वो भी एकदम बाज़ार जैसा. लीजिये साहब, दे दिया नहले पर दहला. जो लोग
पहले होटल में कश्मीरी दम आलू सबसे पहले मंगवाते थे वो इन दिन इसे घर पर ही पूरे
विधि-विधान से बना रहे हैं और उसकी तस्वीरें साझा कर रहे हैं. अजीब लगता है, पर है
सच !
जब बाज़ार की बात आई तो एक दिन शाम की चाय पर बाज़ार के स्वाद पर ही चर्चा
शुरू हो गई. मैडम का मन कर गया चाट खाने का. वाह, चाट की दुकान के दृश्य का पूरा
खाका ही खिंच गया-- भैया पापड़ी चाट एक प्लेट बना दीजिये और थोड़ी तीखी कर
दीजियेगा, गोल-गप्पे खाने के बाद दो बार उसका पानी मांगना और साथ में सोंठ की मीठी
चटनी डलवाना कोई कैसै भूल सकता है. साहब को वो करारे सिंके हुए गरमा-गरम भटूरे और
साथ में पिंड वाले छोले याद आने लगे. ऐसा इत्तेफाक कम ही होता है लेकिन उस दिन हो
गया. एक मित्र को फोन किया तो उनके साथ भी बातचीत का सिलसिला खाने से ही शुरू हुआ.
साहब नॉन-वेज को बेहद शौकीन हैं इसलिये मटन कोरमा के साथ शामी कबाब और रुमाली रोटी
को याद फरमा रहे थे. कहने लगे भई मटन नहीं मिल रहा है, एक महीना हो गया खाने का असली
स्वाद नहीं आया. मैंने भी हां में हां मिलाई क्योंकि कबाब और उल्टे तवे के पराठे
की याद तो मुझे भी सता रही थी कई दिनों से. अब जब तक मीठे की बात न हो जाए तब तक
बात पूरी नहीं होती. मटके वाली कुल्फी को कैसे भूल सकते हैं. घर में तो वैसी न बन
सकती है और न कोई बना सकता है. मुंह में पानी भर गया.
लेकिन लॉकडाउन है, स्वाद का 'बाज़ार' बंद है. इन दिनों खाने की सभी जगहों पर ताले लटके हुए हैं.
बस स्मृतियां हैं, उन्हीं से काम चला लीजिये.
रसोई में घुसे साहब
लॉकडाउन में खाने का एक और नया स्वाद भी दिखने को मिला है. इन दिनों पुरुष
रसोई घर में काफी सक्रिय हैं और नित नए, नाना प्रकार के व्यंजन परोस रहे हैं.
पतियों के रसोई में घुसने से बहुत सी पत्नियों के मन में खुशी लहर दौड़ गई,
हालांकि एकाध 'उनके' रसोई में जाने से परेशान भी दिखीं. प्यार भरी शिकायत कर
रही थीं कि कल 'उन्होंने' पूरी-भाजी बनाकर खिलाने का वादा किया पर मैं रसोई से एक
मिनट भी बाहर नहीं निकल पाई क्योंकि 'साहब' को न तो ये मालूम मसाले कहां हैं, न तो
नमक का अंदाज़ है, न पूरी बेलनी आती है और न ही सब्ज़ी में ठीक से छौंका लगा पाए.
ऐसे पति का क्या फायदा जो आराम देने की बजाय परेशानी और बढ़ा दे ! अब रहने भी
दीजिये हम ही बनाकर खिला देंगे. जिसका काम उसी को साजे, और करे तो डंडा बाजे, वो
अपना ही काम करें तो बेहतर, हम अपनी रसोई और परिवार का ख़्याल खुद ही रख लेंगे.
लॉकडाउन का स्वाद है, कुछ नहीं तो प्यार ही बढ़ा रहा है, मेरे ख्याल से.
पति रोज़ क्यों न बनाए
जब पति लोग रसोई में घुस ही गए हैं तो एक नई बहस भी छिड़ गई है. लॉकडाउन खत्म
होने का बाद क्या 'उनका' वही पुराना रूप सामने आ जाएगा या आगे से हम 'उनका' एक नया और बदला
हुआ रूप भी देखेंगे. कुछ महिलाएं तो रसोईघर को अपना अधिकार क्षेत्र या कर्मभूमि
मानती है लिहाज़ा उन्हें नहीं पसंद कि उनके वो रसोई में बार-बार जाएं या जाना ही
शुरू कर दें. कभी-कभार की बात और है, स्वाद बदलने के लिए पति के हाथ का खाना खाया जा
सकता है, बाजार से सस्ता पड़ता है.
तर्क तो सभी दमदार हैं, जवाब नहीं देते बनता. और अगर बहस कर ली तो सर के बाल
नहीं बचेंगे, बात मान लीजिये.
तर्क-कुतर्क को एक किनारे कर दें तो एक बात तो हम सभी मानेंगे कि ज़िंदगी
अधिकारों पर बहस करने से नहीं चलती, काम के बंटवारे से नहीं चलती और न ही इस रवैयै
से चलती है कि यह काम स्त्री का है और ये काम पुरुष का. जीवन को अगर सही ढंग से,
बिना किसी रुकावट के चलाना है तो उसमें प्यार, भावना, संतुलन और संवेदनशीलता का
तड़का बहुत ज़रूरी है. अगर पत्नी थकी है तो चाय आप भी बना सकते हैं, अगर वो बच्चों
का टिफिन पैक कर रही है तो उन्हें स्कूल के लिए आप तैयार कर सकतै हैं, कपड़े धुले
हैं तो उन्हें तार पर आप लटका सकते हैं, छुट्टी वाले दिन आप भी लंच बनाकर खिला
सकते हैं.
वैसे भी आज तक दुनिया में हर कोई मां के हाथ का खाना ही याद करता है. मुझे तो
कोई आजतक ऐसा नहीं मिला जो बाप के हाथ के खाने के लिए परेशान हुआ हो. रेस्तरां में
शेफ भले ही पुरुष होते हैं पर होटल में खाना बनाना उनका पेशा है जिसके लिए उन्हें
पैसे मिलते हैं. लेकिन घर की स्त्री जब रसोई में काम करती है तो वो संवेदना, प्यार
और दिल साथ रखती है जो किसी शेफ के पास नहीं हो सकता. घर के हर प्राणी के लिए उसकी
पसंद का खाना या फिर एक ही व्यंजन के दो प्रकार-- यह काम घर की स्त्री ही कर सकती
है, शेफ नहीं. यही वजह है कि घर की स्त्री का बनाया हुआ भोजन हर कोई याद रखता है
और हर जगह उसे ही तलाशता है. यही एक स्त्री का सबसे बड़ा पुरस्कार है जो दुनिया के
बड़े से बड़े शेफ को भी नहीं मिलता.
तनख़्वाह और पुरस्कार में फर्क तो होता ही है. आखिर हम सबको यह भी मानना ही पड़ेगा कि ज़िम्मेदारियां बांटने से प्यार बढ़ता है और बहस करने से प्यार का संतुलन डांवाडोल हो जाता है. मेरे ख़्याल से.
तनख़्वाह और पुरस्कार में फर्क तो होता ही है. आखिर हम सबको यह भी मानना ही पड़ेगा कि ज़िम्मेदारियां बांटने से प्यार बढ़ता है और बहस करने से प्यार का संतुलन डांवाडोल हो जाता है. मेरे ख़्याल से.
संकट काल में सब हों एकजुट, बनें
कल्याणकारी
वैसे तो कोरोना वायरस बहुत ख़तरनाक साबित हुआ है लेकिन इसे बुद्दिमान भी कहें
तो ग़लत न होगा. कोरोना ने हमें एक ऐसे समय में जीवन का दर्शन दिया है जब हम
भौतिकता, सांसारिकता और संग्रह की दौड़ में बेतहाशा दौड़े जा रहे थे और अपनों को
कहीं पीछे छोड़ते जा रहे थे. सामान से हमारा प्रेम इतना बढ़ गया था कि हम उसे ही
जीवन का संगी-साथी बना बैठे थे. लेकिन आज संकट की इस घड़ी में वही साजो-सामान वहीं
धरा का धरा है और हम अपनों को तलाश रहे हैं. जीने के लिए ज़रूरी है हम एक-दूसरे से
मिलें, उनसे बात करें. सामान तो वहीं का वहीं पड़ा है, एकदम निर्जीव, बेकार.
आज हममें से हर कोई अपनों को ही ढ़ूंढ रहा है, हम रिश्तों को तलाश रहे हैं,
दूर से ही सही नज़दीकियों का तानाबाना बुन रहे हैं. आज लाखों लोग मुसीबतों का
सामना कर रहे हैं, कोई भूखा है तो कोई बीमार है. संकट के इस समय में इंसान ही
इंसान की मदद के लिए खड़ा हुआ है चाहे वो ज़रूरतमंदों को भोजन मुहैया कराने वाले
कर्ममवीर हों या फिर बीमार का इलाज करने वाले डॉक्टर.
आज हर किसी को महसूस हो रहा है कि सेवा ही परम धर्म है, रिश्ते ही ज़िंदगी में
काम आते हैं और बाकी सब तो दिखावे और अहंकार का साधन है, मेरे ख़्याल से.
इंसान को संकटकाल में एकजुट होने का संदेश देता एक खूबसूरत अंग्रेजी गाना
सुनाना चाहता हूं. इस गाने में एक से एक मशहूर गायकों ने अपनी आवाज़ दी है. मधुर
संगीत वाले इस गाने को सुनिये, आनंद तो लीजिये ही इसे जीवन में उतारने का भी
प्रयास कीजिये. पूरे विश्व में लॉकडाउन है. ऐसे में एक-दूसरे की मदद और एक-दूसरे के लिए संद्भावना का स्वाद खुद भी लीजिये और बाकी सबको भी दीजिये.
*****************************
NOTE
कोरोना वायरस से जुड़े जीवन के तमाम
पहलुओं को छूते मेरे अन्य लेख पढ़ने के लिये अंत में दिये लिंक को कॉपी पेस्ट करें
:
1) Lockdown Changes Life & Style
https://apurvaopinion.blogspot.com/2020/05/lockdown-changes-life-style.html
2) ठहरे कदम !
https://apurvarai.blogspot.com/2020/04/blog-post_17.html
****************************
3) फासलों के दरमियां
https://apurvarai.blogspot.com/2020/04/blog-post.html
**************************
4) Mass Exodus in History
https://apurvaopinion.blogspot.com/2020/04/mass-exodus-in-history.html
https://apurvarai.blogspot.com/2020/04/blog-post_17.html
****************************
3) फासलों के दरमियां
https://apurvarai.blogspot.com/2020/04/blog-post.html
**************************
4) Mass Exodus in History
https://apurvaopinion.blogspot.com/2020/04/mass-exodus-in-history.html
No comments:
Post a Comment