September 15, 2011

मेरा दिल रो रहा है!

दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर 7 सितंबर, 2011 के बम धमाके के बाद तैनात जवान.
अपूर्व राय
मेरे परिवार के लोग मुझसे काफी नाराज़ हैं. वजह है कि न तो मैं किसी को सिनेमा ले जा रहा हूं और न ही शॉपिंग के लिए बाज़ार.


पर इसमें नया क्या है. यह तो हर घर में होता है. नाराज़गी और समझौता तो ज़िंदगी के दो पहिए हैं जिन पर सवार होकर हम सफर करते हैं.


पर हमारे सफर में अड़चन यह है कि मैं घर में सबसे ज़्यादा बाहर घूमने और बाज़ार में खाने-पीने का शौक रखता हूं. अब मैं ही परिवार के लोगों को इसके लिए मना कर रहा हूं. यूं कहिए कि मैने अपने शौक को पिंजरे में कैद कर दिया है और इसके साथ ही परिवार के दूसरे लोगों की हसरतें और उम्मीदें भी इसी पिंजरे में कैद हो गई हैं.


घर में जब-जब बाहर जाने की बात उठती है तो हर बार मेरे मुंह से एक ही बात निकलती है कि अगर गए और बम फट गया तो?


पिछले कुछ सालों से देश के किसी न किसी शहर से बम फटने की ख़बरें लगातार आ रही हैं. बम मुंबई में फटता है, सहम जाते हैं दिल्लीवाले.


इसी महीने की शुरुआत में दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर ज़ोरदार बम फटा. इस धमाके से कोई अछूता नहीं रहा. इसकी चपेट में आए कई लोग अपनी जान गंवा बैठे और ढेरों अस्पताल में इलाज करवा रहे हैं. जो लोग दूर घरों में थे उनकी आत्मा मर गई और दिल घायल हो गए.


मैं भी शायद ऐसे ही चंद लोगों में हूं. बार-बार की आतंकी वारदातों ने मेरा दिल छलनी कर दिया है और मेरे उत्साह की हत्या. आज मेरा परिवार कहीं जाना चाहता है तो मैं उन्हें डरा देता हूं और उनके उत्साह के दमन का हर प्रयास करता हूं.


मेरे अंदर यह परिवर्तन पिछले कुछ सालों में ही आया है. इससे पहले मैं खुद को खुशनसीब समझता था कि मेरा जन्म आज़ाद भारत में हुआ है. मैं गर्व महसूस करता था कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है, इसका संविधान दुनिया का सबसे अच्छा संविधान है और यहां नागरिकों को सम्मान का जीवन व्यतीत करने की हर तरह के अधिकार प्राप्त हैं.


लगातार हो रहे धमाकों ने मेरे विचारों की धज्जिया उड़ा कर रख दी हैं. आज मुझे दुख है कि मैं अपने ही देश में डर-डर कर जीने को मजबूर हूं.


मुझे इस बात का इल्म है कि मेरे देश में एक सक्षम सरकार है जिसके पास ताकत और पैसा दोनों हैं. देश में ज़बरदस्त कानून व्यवस्था है, प्रशासक हैं और वह सब कुछ है जो किसी भी देश के नागरिक के जीवन को सुखी और निडर बनाने के लिए काफी है. पर अफसोस सिर्फ इस बात का है कि इन सबका इस्तेमाल न तो ठीक तरह से हुआ और न ही हो रहा है. अगर ऐसा हो रहा होता तो निश्चित ही मेरा परिवार मुझसे नाराज़ न होता और हमारा जीवन का उत्साह पिंजरे में कैद न होता.


इसी व्यथित मन से मैने घर में कह दिया कि अगर कभी विदेश जाने का मौका लगा तो पासपोर्ट फाड़कर फेक दूंगा और कभी वापस नहीं आउंगा. सब सकते में आ गए क्योंकि मैं ही था जो कभी कहता था कि पड़ोसी की फूलों की सेज़ से अपने घर का टाट का बिछौनी बेहतर है. लेकिन क्या करूं अब घर का टाट ही जवाब दे रहा है और इसमें से सड़न-गलन की बू आने लगी है.

बार-बार सोचता हूं कि आखिर दूसरे देशों में ऐसा क्या है कि वहां लोग खुशियों भरी ज़िंदगी बिता रहे हैं, सबके चेहरों पर मुस्कुराहट बिखरी है और हर तरफ खुशहाली दिखलाई दे रही है. उन देशों में भी वही सरकार है, कानून है, प्रशासक और पुलिस हैं. सोचा तो लगा कि शायद उनके पास इन सबके साथ-साथ ईमानदारी और चरित्र भी है.


लगता है हमारे देश में ये दोनों ही कहीं गुम हो गए हैं. सोचता हूं बार-बार होने वाले धमाके कहीं हमारी बेईमानी और चरित्रहीनता का नतीजा तो नहीं हैं?



भारत में चल रही राजनीति की दिशा और दशा ने मुझे सबसे अधिक कष्ट दिया है.


मानता हूं हर समाज में असमाजिक तत्व होते हैं. कानून तोड़े जाते हैं, अपराध होते हैं और धमाके भी होते हैं. पर उनसे निपटने की तैयारी भी होती है और सबक देने के लिए सज़ा. हमारे देश में ही यह सब है पर इन सबके ऊपर है राजनीति.


धमकों के बाद टीवी खोलिए किसी भी न्यूज़ चैनल पर शासक दल के नेता सरकार की सतर्कता का बखान करते दिख जाएंगे, पुलिस और जांच अधिकारी उपलब्धियां गिना रहे होंगे और विपक्ष के नेता इन सबमें खामियां निकाल रहे होंगे. सच मानिये इस बीच एक धमाका और हो जाएगा.


नेताओं की राजनीति और सत्ता लोभ ने मुझ जैसे आम आदमी की ज़िंदगी को दूभर बन दिया है. मेरे जैसे न जाने कितने ही लोग हैं जो अपने ही देश और समाज में एक- दूसरे से डरते हैं, हर अजनबी से बचते हैं और किसी जानने वाले पर भी अविश्वास की भावना रखते हैं.


ऐसे समाज और देश में आज मेरा दिल रो रहा है. मेरी आतुर निगाहें उसको तलाश रही हैं जो मेरे आंसू पोंछ सके, मेरे अंदर बैठे डर को भगा सके, अपनों के प्रति मेरा विश्वास जगा सके और मेरे परिवार की मेरे लिए नाराज़गी दूर कर सके.

September 01, 2011

सबसे बड़ा रुपैया, भइया!

बहुत पुरानी कहावत है कि किसी भी चीज़ की अति बुरी होती है. ऐसा ही कुछ भ्रष्टाचार के साथ भी हुआ है. घूसखोरी, हेरा-फेरी इस कदर बढ़ गई कि दुर्बल दिखने वाले किन्तु इरादों के पक्के एक वृद्ध व्यक्ति (मैं अन्ना हज़ारे की बात कर रहा हूं) की एक पुकार पर पूरा देश एकजुट हो गया. लोग न सिर्फ सड़कों पर उतर आए बल्कि उन्होंने अपने रोष का खुलेआम जमकर इज़हार भी किया.


इक्कीसवीं शती के भारत में ऐसा भी नज़ारा देखने को मिलेगा किसी ने ख्वाब में भी न सोचा होगा. लेकिन समय बदल गया है और ख्वाब हकीकत में बदल रहे हैं.


हमें अन्ना जी के जज़्बे और उनकी हिम्मत को सलाम करना चाहिए. उन्होंने देश में जागरूकता और एकता की ऐसी मिसाल रख दी कि देखने वाले देखते ही रह गए.


सच पूछिये तो भ्रष्टाचार नासूर बनकर लोगों का जीना मुश्किल कर रहा है. जो 'कमाने' की स्थिति में है वह निडरता से कमाए जा रहा है और जो रिश्वत दे रहा है उसके पास कोई दूसरा चारा नहीं है और वह निरीह सा जी रहा है. वाकई इसे ही कलयुग कहते हैं-- 'चोर' करे ऐश और ईमानदार करे मजूरी.


भ्रष्टाचार, घूसखोरी और हेरा-फेरी के सबसे ज़्यादा मामले सरकारी दफ्तरों में मिल जाएंगे. सरकारी काम हो, सरकारी धन हो, सरकारी कर्मचारी हों और हेरा-फेरी न हो! ऐसा हो ही नहीं सकता.


सरकारी कर्मचारी आपको रुपए की ताकत का अहसास पग-पग पर कराते रहते हैं. आपका मकान बन रहा है-- नक्शा बनवाना, पास करवाना, बिजली-पानी के कनेक्शन से लेकर कई छोटे-बड़े काम हैं जो बिना 'लेन-देन' के संभव नहीं. गाड़ी का लाइसेंस, पासपोर्ट, रेल के सफर में टीटी से गोटी बैठाना, सेल्स टैक्स और इनकम टैक्स अधिकारियों से 'डीलिंग', पुलिस से पाला, टेलीफोन और बिजली विभाग में काम करवाना, पुल या सड़क का निर्माण कार्य, सरकारी विभागों में टेंडर से लेकर खरीद फरोख्त (परचेज़)-- न जाने कितने विभाग और कार्य हैं जहां सिर्फ दो ही चीज़ें काम आती हैं, एक पैरवी और दूसरी रिश्वत.


'ऊपर की कमाई' कर रहे हज़ारों-लाखों कर्मचारी भ्रष्ट हैं लेकिन आपको कितने ऐसे मिले हैं जिन्होंने इस सच्चाई को स्वीकारा. शिकायत सभी को है, लेकिन मजाल है कि किसी ने कहा हो कि उसके पास 'ऊपर' की भी आमदनी है. आश्चर्य है! मतलब ये कि बेईमानी भी करते जाएये और दंभ भरिये ईमानदारी का.


ऐसा नहीं है कि तमाम सरकारी विभागों और कार्यालयों में ही रुपया बोलता है. ज़रा लोगों के घरों पर भी बारीक नज़र डालिए, पता चल जाएगा रुपया दफ्तरों में ही नहीं घरों में भी बोलता है. सरकारी ज़मीन या मकान तो नियम से एक ही खरीदा जा सकता है, लेकिन प्राइवेट बिल्डरों के डिज़ाइनर फ्लैट चाहे जितने खरीदिये और चाहे जहां, कोई रोकटोक नहीं. यही वजह है कि 'ऊपर की कमाई' इन डिज़ाइनर घरों की खरीद में खूब खर्च होती है और यह निवेश भी साबित होती है. शायद यही वजह है कि महंगे डिज़ाइनर फ्लैटों की न ही तो मांग कम हो रही है और न ही कीमत. नतीजा ये कि ईमानदार आदमी के लिए सैलरी से रुपया बचाकर या फिर बैंक से कर्ज़ लेकर अपने लिए एक आशियाना बनाना एक सपना ही रह गया है.


'नंबर दो की कमाई' खर्च होती है होटलों में महंगा खाना खाने पर, महंगे और बड़ी ब्रांड के कपड़ों पर, हीरे और सोने के गहनों पर, पेट्रोल पर, हवाई यात्राओं पर, विदेश की सैर पर और बच्चों के पॉकेट मनी पर.


बेचारे रिश्वतखोर, कितना खर्च करें.


इस बात पर और भी ताज्जुब होता है कि रिश्वत लेने वाले और हेरा-फेरी करने वाले ज़्यादातर लोग पढ़े-लिखे हैं. कहते हैं शिक्षा से मूल्यों में सुधार होता है पर जो उदाहरण देखने को मिलते हैं वो एकदम इसके विपरीत हैं. वाह री शिक्षा प्रणाली-- लोगों को डिग्रियां तो खूब मिलीं, पर शिक्षा धरी रह गई.


यह भी अचरज की बात है कि लगभग सभी लोग सरकारी नौकरी पाते वक्त समाज और देश सेवा का हवाला देते हैं. लेकिन बाद में क्या होता है हम सभी जानते हैं-- खूब समाज और देश सेवा हो रही है.


सरकारी पुलों में 30-40 सालों में ही दरारें दिख जाती हैं, लेकिन ठेकेदारों और इंजीनियरों के घरों की दीवारें जीवन भर नहीं हिलतीं. सड़कों पर हर साल-दो साल में गड्ढे पड़ जाते हैं, लेकिन ठेकेदारों के घरों की फर्श सालों-साल चमकती रहती है. वन विभाग हर मॉनसून में लाखों रुपयों के पौधे लगवाता है जो कुछ महीनों में सूख भी जाते हैं लेकिन अधिकारियों के घरों के गमले सदा हरे-भरे रहते हैं.
इस सबमें दोष हमारी प्रणाली का भी है. अफसोस इतना है कि प्रणाली की खामियों का सबसे ज़्यादा फायदा भी वही उठा रहे हैं जिन्होंने इसे बनाया है.


वैसे तो भ्रष्टाचार, अनाचार और दुराचार सदा से ही हर देश और समाज का हिस्सा रहे हैं. कुछ पश्चिमी देशों में उन जगहों पर रिश्वत और घूस नहीं ली जाती जहां आम आदमी से जुड़े काम होते हैं. लेकिन हमारे देश में उलटा है. पब्लिक डीलिंग से जुड़े विभागों में जमकर रिश्वत चलती है क्योंकि यहीं पर कमाई की गुंजाइश सबसे ज़्यादा होती है. लोगों का काम फंसेगा तो पैसा देंगे ही. जन सुविधाओं से जुड़े विभाग ही तो 'आमदनी' का सबसे बढ़िया ज़रिया होते हैं, हमारे यहां के लोग इसे बखूबी जानते हैं.


भ्रष्टाचार बढ़ाने में उदारीकरण और बाज़ारवाद ने आग में घी का काम किया है. बाज़ार में एक से बढ़कर एक सामान आ गया है जिससे नई-नई ज़रूरतें भी पैदा हो गई हैं. जब ज़रूरतें पैदा हो गई हैं तो उन्हें पूरा करने के लिए पैसा पैदा करना भी ज़रूरी है. सो, प्रणाली में खामियां ढूंढी गईं और लोगों की ज़रूरतों का फायदा उठाया गया.


जब पैसा आने लगा और ज़रूरतें पूरी होने लगीं तो अरमान बढ़ने लगे. अब अरमानों पर कहां लगाम लगती है, वह तो होते ही हैं उड़ने के लिए. तो अब उड़ाने के लिए रुपया 'कमाया' जाने लगा.
मजमून साफ है कि बढ़ते अरमानों ने भ्रष्टाचार, हेरा-फेरी, सफेद झूठ और चरित्रहीनता को जन्म दिया है.


सच पूछिये तो सरकार की साख गिराने में सरकार से जुड़े लोग ही सिर्फ ज़िम्मेदार हैं-- अब चाहे वो मंत्री हों या फिर अधिकारी. दोषी सभी हैं. कुछ अपवादों को नकारा नहीं जा सकता लेकिन हम सभी जानते हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पिसता ही है.