April 28, 2020

स्वाद का लॉकडाउन



अपूर्व राय

कोरोना वायरस को रोकने के लिये लॉकडाउन जारी है और असमंजस की स्थिति बनी है कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा. कभी सोचा न था एक दिन ऐसा भी आएगा जब हम दहशत की ज़िंदगी जीने को मजबूर हो जाएंगे, अपने सगों से भी घबराने लगेंगे, पड़ोस वाले को शक की निगाह से देखेंगे, बगल से गुज़रने वाले हर इंसान से डरेंगे, घर में बैठकर दफ्तर का काम करेंगे और भूल जाएंगे मौज मस्ती क्या होती है.

कोई दिन-रात दफ्तर का काम कर रहा है, कोई अपनी दिनचर्या बिगड़ जाने से दुखी है, बच्चे अपने करियर को लेकर परेशान हैं, हर रोज़ हर तरफ बीमारी की ख़बर से कोई विचलित है तो कोई रोज़ की भागती दौड़ती ज़िंदगी थम जाने से परेशान है. इतना ही होता तो भी ठीक था लेकिन बात और भी गंभीर हो रही है. बिगड़ती अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेकारी और तनख्वाहों में कटौती ने हालात को नाज़ुक बना दिया है. कुल मिलाकर इन दिनों हर इंसान परेशान है, भयभीत है.

मिली है जीने की नई राह
बहरहाल, बिगड़े हालातों के बीच घर में गुज़र रही ज़िंदगी ने हमें जीने का एक नया आयाम दिया है. लॉकडाउन हर किसी के लिए एक नया मायने भी लेकर आया है. जिस तरह निराशा में आशा छुपी रहती है उसी तरह समाज में ऐसे लोग भी देखने को मिले जिन्होंने आज के खराब समय में भी जीने का एक नया अवसर देखा और जीवन में कुछ नया करने का प्रयास कर रहे हैं, एक नई ज़िंदगी एक नए उत्साह से जीने की कोशिश कर रहे हैं. आखिर ज़िंदगी ज़िंदादिली का ही नाम है और वही शख्स खुश रहता है जो अपने और अपनों के जीवन में खुशी और आनंद के चंद पल चुरा के ले आता है. ऐसे ही लोगों के लिए लॉकडाउन वो वक्त साबित हुआ है जब वो ज़िंदगी के बारे में और गहराई से सोच रहे हैं, अपनों के और करीब आ रहे हैं, एक-दूसरे के दिल की बात को बिना कहे महसूस कर रहे हैं और इस बात पर गहराई से मनन कर रहे हैं कि आखिर ज़िंदगी में क्या-क्या ज़रूरी है और कितना

जब सुबह-सुबह उठने की जल्दी न हो, दफ्तर जाने की हड़बड़ी न हो, बच्चों को स्कूल भेजने की फिक्र न हो तो एक बात सबसे पहले मन में आती है-- आज क्या बनाएंगे, आज क्या खाएंगे ! लॉकडाउन का सबसे उजला पहलू जो हम सबके बीच उभर कर आया वो है खाना-पीना.  बिस्तर से उठकर सुबह की नींबू वाली 'ग्रीन टी' और साथ में कुछ-एक बिस्किट. जो चाय हम सदा से सुकून से पीना चाहते थे वो इन दिनों मिल रही है. साथ ही हो रही है चाय पे चर्चा. चर्चा किसी गंभीर विषय पर नहीं है बल्कि इस बात पर है कि आज लंच पर क्या बने और बच्चों की कौन सी फरमाइश पूरी की जाए. परेशानी और अवसाद के माहौल में भी खुशी के कुछ क्षण दिखे हैं इन दिनों.

पिछले एक महीने में लोगों ने जितनी चाय पे खाने की चर्चा की होगी उतनी शायद पिछले कई वर्षों में नहीं की होगी. जब घर के सब लोग साथ हों और कहीं जाने की जल्दबाजी न हो तो रोज़ का खाना किसे अच्छा लगता है-- वही दाल-चावल, रोटी-सब्ज़ी, आम का अचार और आलू के परांठे, चटनी, पापड़, सलाद. इन दिनों फरमाइशें बढ़ गई हैं और कुछ नया बनाने की होड़ सी लगी हुई है. एक ने कोई नया केक बना दिया तो किसी और ने सब्ज़ी एक नई विधि से बनाकर सबको चकित कर दिया.

क्या करें, हम इंसानों की सबसे बड़ी कमज़ोरी अच्छा खाना है. लॉकडाउन है, बहुद से स्वाद से वंचित हैं. लिहाज़ा घर में ही तरह-तरह की भोजन सामग्री तैयार हो रही है और दूर बैठे मित्र, रिश्तेदारों के दिल जल रहे हैं. इस बीच एक प्रतिस्पर्धा भी शुरू हो गई है-- भला उसकी सब्ज़ी मेरी सब्ज़ी से लज़ीज़ कैसे ? किसी ने नाश्ते में इडली-सांबर बनाया तो अगले दिन ही ख़बर आई कि एक अन्य मित्र के घर नाश्ते में ढोकला बना और वो भी एकदम बाज़ार जैसा. लीजिये साहब, दे दिया नहले पर दहला. जो लोग पहले होटल में कश्मीरी दम आलू सबसे पहले मंगवाते थे वो इन दिन इसे घर पर ही पूरे विधि-विधान से बना रहे हैं और उसकी तस्वीरें साझा कर रहे हैं. अजीब लगता है, पर है सच

जब बाज़ार की बात आई तो एक दिन शाम की चाय पर बाज़ार के स्वाद पर ही चर्चा शुरू हो गई. मैडम का मन कर गया चाट खाने का. वाह, चाट की दुकान के दृश्य का पूरा खाका ही खिंच गया-- भैया पापड़ी चाट एक प्लेट बना दीजिये और थोड़ी तीखी कर दीजियेगा, गोल-गप्पे खाने के बाद दो बार उसका पानी मांगना और साथ में सोंठ की मीठी चटनी डलवाना कोई कैसै भूल सकता है. साहब को वो करारे सिंके हुए गरमा-गरम भटूरे और साथ में पिंड वाले छोले याद आने लगे. ऐसा इत्तेफाक कम ही होता है लेकिन उस दिन हो गया. एक मित्र को फोन किया तो उनके साथ भी बातचीत का सिलसिला खाने से ही शुरू हुआ. साहब नॉन-वेज को बेहद शौकीन हैं इसलिये मटन कोरमा के साथ शामी कबाब और रुमाली रोटी को याद फरमा रहे थे. कहने लगे भई मटन नहीं मिल रहा है, एक महीना हो गया खाने का असली स्वाद नहीं आया. मैंने भी हां में हां मिलाई क्योंकि कबाब और उल्टे तवे के पराठे की याद तो मुझे भी सता रही थी कई दिनों से. अब जब तक मीठे की बात न हो जाए तब तक बात पूरी नहीं होती. मटके वाली कुल्फी को कैसे भूल सकते हैं. घर में तो वैसी न बन सकती है और न कोई बना सकता है. मुंह में पानी भर गया. 



लेकिन लॉकडाउन है, स्वाद का 'बाज़ार' बंद है. इन दिनों खाने की सभी जगहों पर ताले लटके हुए हैं. बस स्मृतियां हैं, उन्हीं से काम चला लीजिये.

रसोई में घुसे साहब
लॉकडाउन में खाने का एक और नया स्वाद भी दिखने को मिला है. इन दिनों पुरुष रसोई घर में काफी सक्रिय हैं और नित नए, नाना प्रकार के व्यंजन परोस रहे हैं. पतियों के रसोई में घुसने से बहुत सी पत्नियों के मन में खुशी लहर दौड़ गई, हालांकि एकाध 'उनके' रसोई में जाने से परेशान भी दिखीं. प्यार भरी शिकायत कर रही थीं कि कल 'उन्होंने' पूरी-भाजी बनाकर खिलाने का वादा किया पर मैं रसोई से एक मिनट भी बाहर नहीं निकल पाई क्योंकि 'साहब' को न तो ये मालूम मसाले कहां हैं, न तो नमक का अंदाज़ है, न पूरी बेलनी आती है और न ही सब्ज़ी में ठीक से छौंका लगा पाए. ऐसे पति का क्या फायदा जो आराम देने की बजाय परेशानी और बढ़ा दे ! अब रहने भी दीजिये हम ही बनाकर खिला देंगे. जिसका काम उसी को साजे, और करे तो डंडा बाजे, वो अपना ही काम करें तो बेहतर, हम अपनी रसोई और परिवार का ख़्याल खुद ही रख लेंगे.

लॉकडाउन का स्वाद है, कुछ नहीं तो प्यार ही बढ़ा रहा है, मेरे ख्याल से.

पति रोज़ क्यों न बनाए
जब पति लोग रसोई में घुस ही गए हैं तो एक नई बहस भी छिड़ गई है. लॉकडाउन खत्म होने का बाद क्या 'उनका' वही पुराना रूप सामने आ जाएगा या आगे से हम 'उनका' एक नया और बदला हुआ रूप भी देखेंगे. कुछ महिलाएं तो रसोईघर को अपना अधिकार क्षेत्र या कर्मभूमि मानती है लिहाज़ा उन्हें नहीं पसंद कि उनके वो रसोई में बार-बार जाएं या जाना ही शुरू कर दें. कभी-कभार की बात और है, स्वाद बदलने के लिए पति के हाथ का खाना खाया जा सकता है, बाजार से सस्ता पड़ता है. 

लेकिन दूसरी तरफ वो महिलाएं भी अपनी आवाज़ बुलंद कर रही हैं जो मानती हैं कि पति को नियम से रसोई के काम में पत्नी का हाथ बंटाना चाहिए. कई तरह के तर्क हैं इनके. एक तो ये कि जब स्त्री-पुरुष बराबर तो घरेलू कामकाज में भी बराबरी का बंटवारा क्यों नहीं ? एक ये कि मैं भी तो दफ्तर से काम करके, थककर लौटी हूं तो चाय या खाना मैं ही क्यूं बनाऊं? एक तर्क यह भी आया कि जब रेस्तरां में शेफ पुरुष होते हैं और खाने का स्वाद उनके हाथ में अधिक होता है तो पुरुष भी क्यों न घर में भी नियमित रूप से रसोई का काम संभालें ?

तर्क तो सभी दमदार हैं, जवाब नहीं देते बनता. और अगर बहस कर ली तो सर के बाल नहीं बचेंगे, बात मान लीजिये. 

तर्क-कुतर्क को एक किनारे कर दें तो एक बात तो हम सभी मानेंगे कि ज़िंदगी अधिकारों पर बहस करने से नहीं चलती, काम के बंटवारे से नहीं चलती और न ही इस रवैयै से चलती है कि यह काम स्त्री का है और ये काम पुरुष का. जीवन को अगर सही ढंग से, बिना किसी रुकावट के चलाना है तो उसमें प्यार, भावना, संतुलन और संवेदनशीलता का तड़का बहुत ज़रूरी है. अगर पत्नी थकी है तो चाय आप भी बना सकते हैं, अगर वो बच्चों का टिफिन पैक कर रही है तो उन्हें स्कूल के लिए आप तैयार कर सकतै हैं, कपड़े धुले हैं तो उन्हें तार पर आप लटका सकते हैं, छुट्टी वाले दिन आप भी लंच बनाकर खिला सकते हैं.

वैसे भी आज तक दुनिया में हर कोई मां के हाथ का खाना ही याद करता है. मुझे तो कोई आजतक ऐसा नहीं मिला जो बाप के हाथ के खाने के लिए परेशान हुआ हो. रेस्तरां में शेफ भले ही पुरुष होते हैं पर होटल में खाना बनाना उनका पेशा है जिसके लिए उन्हें पैसे मिलते हैं. लेकिन घर की स्त्री जब रसोई में काम करती है तो वो संवेदना, प्यार और दिल साथ रखती है जो किसी शेफ के पास नहीं हो सकता. घर के हर प्राणी के लिए उसकी पसंद का खाना या फिर एक ही व्यंजन के दो प्रकार-- यह काम घर की स्त्री ही कर सकती है, शेफ नहीं. यही वजह है कि घर की स्त्री का बनाया हुआ भोजन हर कोई याद रखता है और हर जगह उसे ही तलाशता है. यही एक स्त्री का सबसे बड़ा पुरस्कार है जो दुनिया के बड़े से बड़े शेफ को भी नहीं मिलता. 

तनख़्वाह और पुरस्कार में फर्क तो होता ही है. आखिर हम सबको यह भी मानना ही पड़ेगा कि ज़िम्मेदारियां बांटने से प्यार बढ़ता है और बहस करने से प्यार का संतुलन डांवाडोल हो जाता है. मेरे ख़्याल से. 

संकट काल में सब हों एकजुट, बनें कल्याणकारी
वैसे तो कोरोना वायरस बहुत ख़तरनाक साबित हुआ है लेकिन इसे बुद्दिमान भी कहें तो ग़लत न होगा. कोरोना ने हमें एक ऐसे समय में जीवन का दर्शन दिया है जब हम भौतिकता, सांसारिकता और संग्रह की दौड़ में बेतहाशा दौड़े जा रहे थे और अपनों को कहीं पीछे छोड़ते जा रहे थे. सामान से हमारा प्रेम इतना बढ़ गया था कि हम उसे ही जीवन का संगी-साथी बना बैठे थे. लेकिन आज संकट की इस घड़ी में वही साजो-सामान वहीं धरा का धरा है और हम अपनों को तलाश रहे हैं. जीने के लिए ज़रूरी है हम एक-दूसरे से मिलें, उनसे बात करें. सामान तो वहीं का वहीं पड़ा है, एकदम निर्जीव, बेकार.
 
आज हममें से हर कोई अपनों को ही ढ़ूंढ रहा है, हम रिश्तों को तलाश रहे हैं, दूर से ही सही नज़दीकियों का तानाबाना बुन रहे हैं. आज लाखों लोग मुसीबतों का सामना कर रहे हैं, कोई भूखा है तो कोई बीमार है. संकट के इस समय में इंसान ही इंसान की मदद के लिए खड़ा हुआ है चाहे वो ज़रूरतमंदों को भोजन मुहैया कराने वाले कर्ममवीर हों या फिर बीमार का इलाज करने वाले डॉक्टर.

आज हर किसी को महसूस हो रहा है कि सेवा ही परम धर्म है, रिश्ते ही ज़िंदगी में काम आते हैं और बाकी सब तो दिखावे और अहंकार का साधन है, मेरे ख़्याल से.

इंसान को संकटकाल में एकजुट होने का संदेश देता एक खूबसूरत अंग्रेजी गाना सुनाना चाहता हूं. इस गाने में एक से एक मशहूर गायकों ने अपनी आवाज़ दी है. मधुर संगीत वाले इस गाने को सुनिये, आनंद तो लीजिये ही इसे जीवन में उतारने का भी प्रयास कीजिये. पूरे विश्व में लॉकडाउन है. ऐसे में एक-दूसरे की मदद और एक-दूसरे के लिए संद्भावना का स्वाद खुद भी लीजिये और बाकी सबको भी दीजिये.



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NOTE


कोरोना वायरस से जुड़े जीवन के तमाम पहलुओं को छूते मेरे अन्य लेख पढ़ने के लिये अंत में दिये लिंक को कॉपी पेस्ट करें :


1) Lockdown Changes Life & Style
https://apurvaopinion.blogspot.com/2020/05/lockdown-changes-life-style.html














2)  ठहरे कदम !

https://apurvarai.blogspot.com/2020/04/blog-post_17.html













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3) फासलों के दरमियां 
https://apurvarai.blogspot.com/2020/04/blog-post.html














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4) Mass Exodus in History
https://apurvaopinion.blogspot.com/2020/04/mass-exodus-in-history.html





April 17, 2020

ठहरे कदम !





अपूर्व राय

ब्रह्मा की रचाई इस सृष्टि में कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है. पृथ्वी सहित सभी ग्रह अपनी गति से सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं, धरती पर रोज़ाना सूरज के उगने के साथ सवेरा होता है और फिर डूबने के साथ रात होती है, हर रात आकाश में सितारे जगमगाते हैं, चांद निकलता है और अपनी शीतल छटा बिखेरता है, नीले गगन में मेघ विचरण कर रहे हैं, पवन अपनी गति से बह रही है, नदियों का शीतल जल मंद गति से बह रहा है, समंदर की लहरें कोलाहल करती हुई रेतीले किनारों पर उछाल मार रही हैं और ऋतुएं अपने समय से करवट ले रही हैं. 

एक तरफ जहां सृष्टि में सब कुछ अपनी गति से चल रहा है वहीं धरती पर इंसानी ज़िंदगी की रफ्तार थम गई है. हर कोई घर की चाहरदीवारी के अंदर बसर करने को मजबूर हो गया है. जीवन में बहुत कुछ थम सा गया है और ठहर गए हैं हमारे और आपके कदम.

पूरे संसार में कोरोना, या फिर कोविड-19, नाम का एक वायरस इंसानों के गले में हमला बोल कर उसकी इहलीला समाप्त कर रहा है. दुनिया का हर शख्स डरा हुआ है, सहमा है, आदमी आदमी से दूर जा रहा है इस खौफ से कि न जाने किसके खांसने या छींकने से कोरोना नाम का यह वायरस वेताल की भांति उसके ऊपर आ बैठेगा और ज़िदगी हर लेगा. चीन के वुहान प्रांत से चले कोरोना वायरस की कोई दवा नहीं है और इससे निजात का एक ही तरीका है-- दूर-दूर रहना, पास न आना. हम और आप एक-दूसरे से न मिलें, एक-दूसरे के करीब न जाएं इसके लिये दुनिया के तमाम शहरों में लॉकडाउन, यानि घरों के भीतर ही रहो, का फरमान जारी है जिसके कारण ज़िंदगी भले ही चल रही हो लेकिन रफ्तार थम गई है, कदम ठहर गए हैं.

आज पूरी नगरी सुनसान दिखाई पड़ती है, सड़कें इतनी खाली कभी नहीं थी, बाज़ार इस तरह से कभी बंद नहीं थे, मोटर-गाड़ी इस तरह एक किनारे नहीं खड़ी थीं और पार्क कभी वीरान नहीं थे. कई दिनों से घर के भीतर रहने के बाद आज सुबह यह सोचकर बाहर निकला कि एक बार उस सड़क को देखूं तो जिसपर सुबह से ही मोटर-गाड़ी फर्राटा भरना शुरू कर देती थीं, इतनी भीड़ होती थी और शोर-शराबा होता था कि चलना मुहाल हो जाता था या फिर गाड़ी चलाने में चिड़चिड़ाहट होती थी. मुंह पर मास्क लगाया और बढ़ा दिये मैंने अपने मेरे ठहरे कदम. कुछ कदम चलकर घर के पीछे वाली सड़क तक ही गया क्योंकि ज़्यादा दूर जाना किसी भी तरह से मुनासिब नहीं था. सड़क के दोनों तरफ नज़र दौड़ाई तो मन धक से रह गया-- इस सड़क को इतना वीरान पिछले तीन दशकों में कभी नहीं देखा था. इक्का-दुक्का वाहन गुज़र गए, दो-चार लोग पैदल बढ़ गए, दूर सामने वाले चौराहे पर पुलिस का बैरिकेड और इसके अलावा कुछ नहीं. सुबह-सुबह इतना सन्नाटा मन को खटक गया. 

हां, सड़क पर चार-छह कूकुर भौंक रहे थे और कुछ गाएं आती-जाती दिखीं, शायद भोजन की तलाश में. सड़क पर आदमी नहीं दिखेगा और वहां जानवरों का राज होगा ऐसे दिन की कल्पना कभी नहीं की थी मैंने. बहरहाल यही आज की सच्चाई थी जो मेरी आंखों के सामने खड़ी थी. मौन खड़ा मैं कुछ देर तक इधर-उधर देखता रहा और फिर वापस घर लौट आया. 


अब फिर से घर के भीतर हूं. मेरी ही तरह लाखों-लाख लोग भी अपने घरों में बैठे है. कोरोना को हराने के लिये, अपने और अपनों के प्राणों की रक्षा के लिये सिमटी हुई ज़िंदगी ही आज की हकीकत है. ज़िंदगी के इस नए रूप में सब्र है, एहतियात है, त्याग है, मोहब्बत है, अभाव में सद्भाव है, कष्ट हैं लेकिन फिर भी जीने का जज़्बा है, कहीं मददगार हैं तो कहीं मुफ्तखोर भी हैं जो इंसान की परेशानियों का लाभ उठाते हुए रुपया बनाने का मौका नहीं छोड़ते.

सिमटी ज़िंदगी, सिमटी ज़रूरतें

इन दिनों एक नई जीवनशैली ऊभर कर आई है जिसमें ज़रूरतें अचानक घट गई हैं. करीब तीन हफ्ते से कार खड़ी है जिसके टायरों में लगातार कम होती हवा रोज़ परेशान करती है. महसूस होने लगा है गाड़ी भले ही खड़ी है लेकिन ज़िंदगी की गाड़ी बखूबी चल रही है. अब तो ऐसा भी ख़्याल कौंधने लगा है कि वाकई साल में कुछ दिन इसी तरह ही बिताने चाहिये. क्या ज़रूरत है एक से अधिक गाड़ी की ? लगने लगा है कि एक ही ठीक है, खुद के लिए भी, समाज के लिये भी.

रोटी: जीवन इन दिनों घर के तीन कमरों में बसर हो रहा है. देर तक सोता हूं, बिस्तर पर ही चाय पीता हूं, बाहर बरामदे में बैठकर कुछ देर अख़बार के पन्ने पलटता हूं, फिर पत्नी के साथ इस बात की चर्चा होती है कि आज नाशते में क्या बने, लंच और डिनर क्या हो और हम दोनों में से कौन क्या बनाएगा. इन दिनों पत्नी भी फरमाइश करने लगी हैं तुम ऑमलेट बहुत अच्छा बनाते हो, खिलाओ तो मज़ा आ जाए; शाम को डिनर में कहती है तुम दम आलू बना दो मैं पूरियां बना दूंगी. वैसे पत्नी को सरप्राइज़ देने के लिए मैं अकसर चिकन बना के रखता था पर अब न तो चिकन मिल रहा है और न सरप्राइज़ की गुंजाइश है. पहले हम लोग कितने आलसी थी-- जिस दिन खाना बनाने वाली नहीं आई बस डिनर के लिए बाहर जाने का बहाना बना लिया. वैसे बाज़ार का स्वाद और चटोरापन इन दिनों बहुत खल रहा है, लेकिन दोनों वक्त खाना-बनाना, क्या बनेगा उसकी चर्चा करना, बर्तन धोना बुरा भी नहीं लग रहा.

अब घर की सफाई पर भी काम का बंटवारा होता है क्योंकि कामवाली नहीं आ रही है. कभी वो झाड़ू लगाती हैं और मैं पोछा और कभी इस भूमिका की अदला-बदली भी होती है. घरेलू काम का दबाव इतना बढ़ गया है कि इन दिनों हम दोनों के बीच बहसबाजी भी कम हो गई है और झगड़ा किए तो कई हफ्ते बीत गए हैं.

वाह, किसने सोचा था ऐसे भी दिन आएंगे. तीन कमरों के बीच ज़िंदगी सुनहरी और सरस भी हो सकती है, मेरे ख़्याल से.

कपड़ा: सरलता के एक और पहलू से भी रूबरू हुआ हूं. इन दिनों कपड़ों की आवश्यकता भी नगण्य हो गई है. दो जोड़ी कुर्ता-पायजामा और एक स्लीपर मेरे संगी-साथी बन गए हैं. पिछले कुछ सालों में इतना कुर्ता-पायजामा नहीं पहना होगा जितना बीते तीन हफ्तों में पहन डाला. एक धोता हूं, दूसरा पहनता हूं. खुशी पाने के लिए एकाध बार प्रेस कर लिया वरना ज़रूरत तो उसकी भी नहीं.

कपड़ों के मामले में मेरी पत्नी की विचारधारा गजब की है. हालांकि इन दिनों वो भी दो-चार जोड़ी में ही जीवन गुज़र-बसर कर रही हैं लेकिन यह उनके स्वभाव के बिलकुल विपरीत है. विवाह के दो दशकों से ऊपर बीत चुके हैं परन्तु जब कभी भी किसी समारोह वगैरह में जाना हुआ तो उनका फिर वही घिसा-पटा सवाल-- क्या पहनूं ? तीन-चार जोड़ी सामने रख दीं. अब बताओ कौन सा पहनूं ! मौका एक है, विकल्प चार. इतना विकट प्रश्न तो शायद सिविल सर्विसेज़ में भी नहीं पूछा जाता. जिस पर हाथ रख दीजिये वही ऑप्शन ग़लत. सच मानिये 'क्या पहनूं' को लेकर कई बार झगड़ा तक हुआ है. 

अब सच्चाई बताऊं तो पत्नी जी की वार्डरोब में कपड़े ठुंसे पड़े हैं, एक निकालती हैं और छह-सात दूसरे गिरते हैं. शुरू में टोका पर अब बोलता नहीं, बस नज़र दूसरी तरफ घुमा लेता हूं या फिर दूसरे कमरे में किसी बहाने चला जाता हूं. वजह समझ लीजिये क्योंकि हर बात कही नहीं जाती. किस्सा यहीं खत्म नहीं होता. वार्डरोब के अलावा तीन-चार बड़े-बड़े सूटकेस भी भरे हुए हैं. इतनी ही नहीं, एक-एक सूटकेस को बंद करने के लिये मुझ दास को पुकारा जाता है और जब तक सूटकेस के ऊपर बैठ न जाओ बंद नहीं हो सकता, यकीन मानिये.

महात्मा गांधी दो कपड़ों में जीवनयापन की बात कहते थे. सुनने में बहुत अच्छा लगता था और सोचता था उनके विचार को अपने जीवन में उतारूंगा ज़रूर, पर मोह-माया का चकल्लस ऐसा कि दिल में चाहत रहते हुए भी कभी ऐसा कर नहीं पाया. धन्य है लॉकडाउन, हमें गांधीवादी बना ही दिया बिना प्रयास के. सबसे बड़ा बदलाव तो उनकी जीवनशैली में दिख रहा है. अब जब गांधी का ज़िक्र आया है तो जीवन की सरलता और ज़रूरतों को कम करने के प्रयासों पर उनकी आत्मकथा पर से चंद लाइनें :

I had started on a life of ease and comfort, but the experiment was short-lived. Although I had furnished the house with care, yet it failed to have any hold on me. So no sooner had I launched forth on that life, than I began to cut down expenses. The washerman's bill was heavy, and as he was besides by no means noted for his punctuality, even two to three dozen shirts and collars proved insufficient for me. Collars had to be changed daily and shirts, if not daily, at least every alternate day. This meant a double expense, which appeared to me unnecessary. So I equipped myself with a washing outfit to save it. I bought a book on washing, studied the art and taught it also to my wife. This no doubt added to my work, but its novelty made it a pleasure.

बहरहाल, सच तो यह है कि ये सरलता और सादगी चंद दिनों की है. लॉकडाउन खत्म, और फरमाइशों का बाज़ार शुरू. सच बात तो यह है कि मैं भी इंतज़ार कर रहा हूं जब बाज़ार खुलेंगे और पत्नी इस संकल्प के साथ जाएंगी कि आज खुद के लिए कुछ नहीं खरीदना है. लेकिन दुकान के सामने पहुंचने के बाद न जाने कौन सा मंत्र चल जाता है कि सारे संकल्प भूल जाते हैं. एक-दो जोड़ी खरीदी जाती हैं और एक बार फिर संकल्प दोहराया जाता है अगली बार नहीं. पर वो 'अगली बार' आज तक तो आया नहीं. दिल की बात कहूं तो चाहता भी नहीं वो कल कभी आए. 

आखिर एक नारी का मन चंचल होता, उसे मैंने कभी रोका नहीं, रोकना भी नहीं चाहता. नारी की यही चंचलता तो जीवन का रस बनाए रखती है, नहीं तो सब कुछ नीरस है.

मकान: मेरे एक मित्र हैं. उनके जीवन में बैंक बैलेंस और तिजोरी में रखे रुपये और गहने का बहुत महत्व है. लक्ष्मी की आमद होती रहे इसका कोई मौका छोड़ते नहीं और लक्ष्मी बाहर न जाने पाए इसी में पूरी शक्ति लगा देते हैं. एक फ्लैट में रहते हैं और दो अन्य फ्लैट किराये पर दिये हैं. लेकिन फिर भी चित्त शांत नहीं है और इधर-उधर घर-ज़मीन देखते रहते हैं. कहते हैं लॉकडाउन से प्रॉपर्टी का बाज़ार गिर गया सोचता हूं कुछ खरीद डालूं, आगे फायदा मिलेगा.

उनकी संगत में रहकर पहले मुझे भी उनकी बातें तर्कसंगत लगने लगी थीं. लॉकडाउन के बाद से जीवन का जो पहलू सामने आया उसने मुझे बदल कर रख दिया; अब ऐसा लगने लगा है कि या तो वो मूर्ख हैं या फिर उनको ज़िंदगी का सुख भोगना नहीं आता. 'आगे फायदा मिलेगा' इस सोच में वो 'आज का सुख' गंवाए जा रहे हैं. मेरे ख़्याल से रहने के लिये एक ही घर, या फिर कहें तो दो कमरे ही बहुत हैं. प्यार इसी में पैदा होता है और पनपता है. बाकी का सुख तो पता नहीं कौन ले रहा है, बस मन भ्रमित रहता है जिससे सिवाय अभिमान और अहंकार के कुछ और हासिल नहीं होता.

लॉकडाउन के बीच ठहरे कदम जिस तरह घर की चाहरदीवारी, परिवार के प्रेम और जीवन की सरलता के इर्द-गिर्द घूमें हैं वो अकल्पनय है, अद्भुत है और अविश्वसनीय है.

कुदरत से करीबी: लॉकडाउन के दिनों में घर से न निकले की हिदायत है. लिहाज़ा सड़कों पर ट्रक, बस और मोटर-गाड़ी नहीं हैं और आसमान में विमानों का विचरण भी थमा हुआ है. बदलाव यह आया है कि सड़कों पर जानवर दिखने लगे हैं क्योंकि इंसानों का खौफ खत्म है. आकाश में पहले के मुकाबले अधिक पंछी उड़ान भर रहे हैं क्योकि शहर में कोलाहल नहीं है, धुंआ नहीं है, इंसानी गतिविधियां रुकी हुई हैं. जिस नीले गगन की बातें हम किताबों में पढ़ते थे इन दिनों वो साफ दिख रहा है. 

सबसे ज़्यादा आनंद तो सांझ के बाद आता है जब आसमन में तारे दिखने लगते हैं क्योंकि ऐसी झिलमिलाहट तो बरसों बरस से नहीं देखी थी. हमने तो इसका लाभ भी भरपूर उठाया. एक दिन तय हुआ कि क्यों न छत पर सोया जाए, नीले गगन के तले. बस बिछौना लगाया गया और मच्छरदानी के अंदर घुस गए. कुछ देर हेमंत कुमार और तलत महमूद के रसीले गाने सुने. फिर ख्याल आया कि क्यों न आज आसमान के तारे गिने जाएं-- एक बार फिर से अपना बचपन जिया जाए. रात भर साफ हवा में सांस ली और तब जाना कि घर की छत में जो नींद आती है और सुबह जो ताज़गी महसूस होती है वो बंद कमरे में, एयरकंडिशनर चलाकर भी नहीं प्राप्त होती. बता नहीं सकता कितनी सुखद अनुभूति थी. सोचने लगा फाइव स्टार होटलों में नाहक इतना पैसा खर्च करते हैं, कुदरत की गोद में एक रात बिता के तो देखिये ऐसा लाजवाब अनुभव और इतना आराम मुफ्त में ही मिलता है.

सचमुच प्रकृति बहुत सुन्दर है-- धरती, आकाश, हवा, पानी और बादल में.

एक बार फिर गांधी की दो लाइनें यहां पर कहना ज़रूरी लग रहा है :

You may have occasion to possess or use material things, but the secret of life lies in never missing them.

इंसानियत और हैवानियत: कोरोना वायरस की दहशत और लॉकडाउन के कारण थम गई ज़िंदगी की रफ्तार और जीवन के बदले स्वरूप ने मनुष्य के दो अन्य रूपों से भी मिलने का मौका दिया.

जब सब कुछ बंद है तो सामान की दिक्कत होना स्वाभाविक है. ग़रीब दो जून की रोटी के लिये भी परेशान भटक रहा है. ऐसे में मदद के लिये उठे हाथ देखने को मिले. जगह-जगह लोगों की सहायता के लिये अस्थाई शिविर खड़े हो गए हैं जहां मुफ्त में खाना खिलाया जा रहा है. कहते हैं न कि भूखे का पेट भरना ही असली नारायण की सेवा होता है. तमाम सह्रदय लोग नारायण बनकर ग़रीबों की सेवा में जुटे हैं और वो भी बिना किसी अपेक्षा के. ऐसी सुंदर भावना और दया ही इंसान को सबसे श्रेष्ठ प्राणी बनाती है.
किन्तु ऐसा नहीं है कि हमारे बीच सिर्फ नारायण रूपी लोग रहते हैं. हमारे बीच ऐसे भी लोग हैं जिनके जीवन में नगद नारायण का महत्व सर्वोपरि है, चाहे वो कैसे भी प्राप्त हों. जब मनुष्य जीवन की दिक्कतों का सामना कर रहा होता है और प्राण संकट में होते हैं तो चंद लोग ऐसी परिस्थिति का फायदा उठाने और अपनी तिजोरी भरने के मौके से भी नहीं चूकते. इंसान की मजबूरी का फायदा उठाने वाले ऐसे दानव इस बार भी चोरी-छुपे काला धंधा करते दिखे. 
कोरोना वायरस के मरीज़ों को वेंटिलेटर नाम की मशीन की ज़रूरत थी और बाज़ार में इसकी कमी हो गई. दानवों ने कम सप्लाई का भरपूर फायदा उठाया. इसी तरह किसी ने फेस मास्क बेचकर रुपया कमा लिया तो कुछ ऐसे भी दरिंदे दिखे जिन्होंने नकली सामान बनाकर उसे धोखे से बेच डाला. रुपया कमाने के लिये कुछ लोग नीचता की किस हद तक गिर सकते हैं यह सोचकर भी रूह कांप उठती है. मैंने देखा अपनी जेब भरने के लिये लोग किस तरह दूसरे की पीड़ा से नज़रें फेर लेते हैं. सोचता हूं किस मुंह से ऐसे लोग ईश्वर की प्रार्थना करते होंगे. शर्म आती है ऐसे दानवों पर जो उस देश में पैदा हुए हैं जहां गांधी कहते थे, "वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड पराई जाणे रे..."  
कुछ समय के लिए भूल ही गया हूं लॉकडाउन एक महामारी की रोकथाम के लिए लगाया गया है. दुनिया में लोग मर रहे हैं, हर तरफ डर का माहौल है, लोग तनाव से घिरे हुए हैं और जीवनयापन दुर्लभ हो गया है.

फिर भी खूबसूरती इसी में है कि हम अभावों और तकलीफों के बीच खुशी के चंद पल खोज लें. मैंने तो यही सीखा घर के भीतर रहकर जबकि हम और आप बाहर निकल नहीं सकते और ठहरे हैं हम सबके कदम. जीवन सादगी और सरलता से जिया जा सकता है, रोज़-रोज़ की हाय-हाय कम की जा सकती है बस ज़रूरत है सोच में थोड़ा बदलाव लाने की और उसके लिए थोड़ी कोशिश करने की. 

मेरे ख़्याल से.

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कोरोना दहशत के बीच बदली जीवनशैली और ठहरे कदमों को दर्शाते कई तरह के मेसेज मिल रहे हैं. आपके लिये एक :

वातावरण बिल्कुल शांत है, पैसे की जरूरत नही. तीन टाइम खा रहे है!  और अगर ऐसा ही रहा तो कपड़ों की जरूरत भी नही रहेगी.

सिर्फ दो नेकरों और दो  बनियानों से पूरा साल निकल जाएगा...

वातावरण इतना साफ की कार्बन डाइऑक्साइड का नामो निशान नही और साफ ऑक्सीजन ही लेंगे तो बीमार भी नही पड़ेंगे, मृत्युदर तो ना के बराबर.

कोरोना से मरे तो मरे, बाकी एक्सीडेंट से कोई नही मरेगा.

सारे झगड़े फसाद खत्म, न कोई प्रेम का चक्कर, न किसी को किसी पर शक, न शॉपिंग का चक्कर, न होटल या मूवी की फरमाइश... न घूमने जाने की ज़रूरत... न नई साड़ी की डिमांड न ज्वैलरी खरीदने की जिद्द.
सब कुछ ठीक ही चल रहा है. सही कहते थे लोग कि राम राज आएगा,
सच मे रामराज आ गया है...

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ऊपर एक अंग्रेज़ी गाने का वीडियो दिया गया है जो इन दिनों कोरोना वायरस के कारण लगे विश्वव्यापी लॉकडाउन के ऊपर बनाया गया है. 

यह गाना एक पैरोडी है जिसका मूल (original) अंग्रेज़ी गाना Bee Gees का Staying Alive है. Original song का लिंक नीचे दे रहा हूं, सुनिये और इस बेहतरीन गाने का आनंद लीजिये.

  

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NOTE :

कोरोना वायरस से जुड़े जीवन के तमाम पहलुओं को छूते मेरे अन्य लेख पढ़ने के लिये अंत में दिये लिंक को कॉपी पेस्ट करें :

1) Mass Exodus in History:
https://apurvaopinion.blogspot.com/2020/04/mass-exodus-in-history.html











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2)फासलों के दरमियां :
https://apurvarai.blogspot.com/2020/04/blog-post.html













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3) स्वाद का लॉकडाउन 
https://apurvarai.blogspot.com/2020/04/blog-post_28.html












4) Lockdown Changes Life & Style

https://apurvaopinion.blogspot.com/2020/05/lockdown-changes-life-style.html