July 29, 2019

जिस गांव ने प्रेमचंद को प्रेरणा दी



विनय कुमार राय
प्रेमचंद के उपन्यास आपने पढ़े होंगे और कहानियां भी. आपको लगा होगा कि उनकी कहानियां बेजोड़ हैं, उनके उपन्यास किसी मुल्क की जीती-जागती तस्वीरें हैं जिन्हें हम और आप हिन्दोस्तान कहते हैं. वही इकबाल वाला हिन्दोस्तान याद होगा आपको, 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा' वाला हिन्दोस्तान.

वैसे तो अपना मुल्क सबको प्यारा होता है, अपनी धरती सबको भाती है, सभी वतन की मिट्टी को प्यार करते हैं, पर कम ही होते हैं जो उस मिट्टी पर जान निसार करते हैं, उसी मिट्टी में मिल जाना चाहते हैं. ऐसे ही चंद जांबाज़ों में प्रेमचंद का भी नाम लिया जाता है. उन्होंने अपने मुल्क के लिये, अपनी मिट्टी के लिये, अपने हमवतनों के लिए क्या नहीं किया. मगर उन्होंने यह लड़ाई तलवार से नहीं लड़ी, बमों का सहारा नहीं लिया, दूसरे के मुल्क ढहाकर अपनी हिफाज़त की आवाज़ बुलंद नहीं की, बल्कि अपने मुल्क की आज़ादी के लिये अपनी कलम से वह जादू पैदा किया जिसने कौम के सोए हुए लालों की आंखों से पर्दा हटा दिया. उन्होंने जनता को तिलस्मी दुनिया से उतारकर धरती पर टिका दिया. जो अभी तक अपनी ही मूरत को पहचान नहीं सके थे उन्हें नई आंख दी, नई रोशनी दी. इन्हीं नई आंखों से लोगों ने अपने ऊपर के नीले आसमान को देखा, अपनी धरती के लहलहाते खेत देखे, धरती को संवारते हुए हल देखे, बैल देखे और उस दुखी किसान को भी देखा जो खुद चिथड़ों में सिमटा हुआ, मौसम की बेढंगियों से होड़ लेता हुआ उन हलों के पीछे चिरन्तन  विश्वास से चला जा रहा था

लेकिन आश्चर्य है कि प्रेमचंद के पहले क्या लिक्खाड़ नहीं हुए? क्या उनके पहले साहित्य वीरान था? नहीं!  लिखनेवाले थे, पर उनकी दृश्टि अलग थी, उनका मकसद दूसरा था. वे साहित्य को तफरीह की चीज़- एक आरामगाह समझते थे जहां पर बैठकर दुनिया के लोग अपना ग़म ग़लत कर सकें, कहकहे लगा सकें. इसीलिए तो उन्होंने काल्पनिक साहित्य लिखे. सदियों से गुलामी में कैद हिंदोस्तानी को अपनी रोज़-रोज़ की कशमकश के बाद ऐसा ही मसाला भाने लगा. वह अपने को इस साहित्य में डुबो देना चाहता था, अपना रज मिटाना चाहता था, हकीकतों से मुंह चुराकर कुछ देर परियों के मुल्कों की सैर करना चाहता था. इसलिए उसने इस साहित्य का आह्वाहन किया. लेकिन कुछ ऐसी ही परिस्थिति में प्रेमचंद ने साहित्य में प्रवेश किया-- एकदम नयी सजधज के साथ, एकदम नए दृश्टिकोण से. उन्होंने जनता के सामने जनता की तस्वीर खींची, उन्हीं की भाषा में बातचीत की, उन्हीं के मसलों को उभारा-- उनकी ग़रीबी को, उनकी ग़ुलामी को, उनके शोषण को. पर सच तो यह है कि ये जनता की ही समस्याएं नहीं थीं, ये तो उनकी समस्याएं भी थीं. वह खुद भी गुलामी से, ग़रीबी से और शोषण से तंग गए थे; उनसे मुक्त होना चाहते थे, लोगों को मुक्त कराना चाहते थे. फलत: अपनी कृतियों में उन्होंने अपने दिल की आवाज़ बुलन्द की-- वही आवाज़ जो जनता की आवाज़ की प्रतिध्वनि थी.
 
आख़िर प्रेमचंद की आवाज़ में इतनी मज़बूती क्यों थी?  उनकी कलम में सल्तनतों को हिला देने वाली ताक़त कहां से आई, क्यों आई? क्यों उनको समाज की सदियों से पलती हुई नाकिस और गलीज़ बीमारियों को मार भगाने में कामयाबी हासिल हुई? इसीलिए कि जिस फिज़ां में वो सांस ले रहे थे, जिस ज़मीन पर वह खड़े थे उसे उन्होंने ग़ौर से देखा-भाला था. उन्होंने हिंदोस्तान को गांवों में देखा और इसीलिए उन्होंने गांव को ही अपना रंग--महफिल चुना.

गांव की मुक्त हवा में उन्होंने सांस ली थी जिसने उन्हें गुलामी के खिलाफ जेहाद बोलने के लिए ललकारा. वहां की गरीबी से उनका कलेजा चाक हुआ था-- तब कहीं जाकर उन्होंने अपने उपन्यासों में इसका अक्स उतारा. गांवों की संकीर्णता से विचलित हो चुके थे तभी उन्होंने इसे दूर करने की ठानी. उन्होंने गांव के दामन में अपनी उम्र गुज़ारी थी. यही एक बड़ी वजह है कि गांवों को, वहां के रहने वालों को, उनके सवालों को, उनकी मजबूरियों को प्रेमचंद ने महसूस किया और जनता के सामने उनको उतारने की कोशिश की.

प्रेमचंद के होरी का गांव

जिस गांव ने प्रेमचंद को प्रेरणा प्रदान की, जिस गांव में प्रेमचंद का होरी रहता था वह गांव इसी बनारस के आंचल में, शहर की रंगीनियों से कोई तीन-चार कोस की दूरी पर अब भी बरकरार है. आप समझते होंगे यह गांव कोई जुदा किस्म के नाक-नक्शे का होगा जिसने प्रेमचंद को जनमाया! नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है. यह गांव भी हिंदुस्तान के उन्हीं हज़ारों-लाखों गांवों की तरह है जिन्हें आपने देखा होगा. यकीन कीजिये यहां की धरती भी ठीक वैसी ही है जैसी किसी और गांव की, यहां के खेतों में भी साल में एक बार गेहूं और जौ की बालियों में सुनहरा रंग चढ़ जाता है. यहां किसानों की बखारें भी कम से कम भर उठती हैं, वो एक बार फागुन में झूम के होली गा उठते हैं, एक बार उनकी बेटियों के हाथ भी पीले होते हैं. एक बार उनके दरवाज़े पर डफली और तुरही बजती है.

पर गांव का यह खाका जो मैंने आपके सामने खींचा है वह महज़ एकतरफा है. वहां सिर्फ रंगीनियां ही नहीं हैं-- वहां ग़रीबी भी है, भूख भी है. इस गांव में भी तीन-चौथाई इन्सान महज़ किसान होने का दम भरते हैं, पर वास्तव में वो किसान हैं नहीं. उनके पास अपनी ज़मीनें नहीं हैं. उनके पास अपनी बखारें नहीं हैं. उनके पास अपने गाय-बैल नहीं हैं. परायी ज़मीन को अपने खून-पसीने से सींचने वाले इन इन्सानों का तबका धरतीहीन मज़दूरों का है. ये वही इन्सान हैं जो ज़मीन में सोना उगाना चाहते हैं पर उनके पास ज़मीन नहीं है.

प्रेमचंदपुरी

ऐसे ही लोगों के बीच, ऐसी ही मिट्टी की गोद में प्रेमचंद ने इसी गांव में जन्म लिया. याद होगा गांव को जाने वाली सड़क किस कदर वीरान थी. सड़क में किस कदर दो-दो, तीन-तीन फुट के गढ्ढे और मनों गर्द थी और इन्हीं गढ्ढों में फंसी हुई बैलगाड़ियां जिनको गाड़ीवान बैलों से जोर में जोर मिलाकर, कभी पहियों को अपने फौलादी हाथों से ढकेलता हुआ, कभी बैलों पर डंडों की बरसात करता हुआ, कभी बैलों का मां-बहन से रिश्ता कायम करता हुआ उन्हें बढ़ावा देता था. पर अब हालात कुछ बदल गए हैं. सड़क पत्थर की बन गई है जिन पर गाड़ियां नहीं फंसती, जिस पर गर्द नहीं उठती. आप कहेंगे इस सड़क ने तरक्की की है, हिंदुस्तान ने तरक्की की है. हां, मुल्क करवट ले रहा है पर मुझे तो गांव की वही हालत बयान करनी है जिसने प्रेमचंद के खून में उबाल पैदा किया था, जिसने उन्हें कलम उठाने के लिए प्रेरित किया था

यह सड़क उन दिनों एक वीरान इलाके से होकर गुज़रती थी और रात ढलने के बाद उन दिनों लोग अकेले इस सड़क से गुज़रने में खौफ खाते थे. ऐसी ही सड़क के किनारे बसे हुए लमही ग्राम का ज़िक्र है जिसमें प्रेमचंद के दोनों घर अब भी खड़े हैं-- एक जिसमें उन्होंने जन्म लिया और दूसरे जिसे उन्होंने खुद बनवाया था.

यह गांव एक छोटा ग़रीब किसानों का गांव है जिसमें कुछ कुनबी, कुछ लाला, कुछ कहार, कुम्हार, एक-आध बढ़ई और इसी तरह के चन्द और फिरके के लोग बसते हैं. प्रेमचंद का घर गांव के एक सिरे पर बसा है जिसके बाद बागों की शुरूआत है और उसके बाद खेतों की. इसी घर में रहते हुए प्रेमचंद ने अपनी साधना आरम्भ की. यह घर किसी नुक्ते से बेमिसाल नहीं कहा जा सकता, बल्कि यह वैसा ही एक मामूली घर है जो कहीं भी पाया जा सकता है. फर्क इतना ही है कि गांव का घर होते हुए भी यह ईंट-पत्थर का बना है, मिट्टी-गोबर का नहीं. पर इस घर का निर्माता मिट्टी-गोबर के घर में ही पैदा हुआ था जो अब भी वैसा ही मौजूद है. प्रेमचंद ने अपने घर के बाहर जहां भी नज़र डाली उसे ग़ौर से देखा, परखा, गुना और सीने में सजो लिया. उन्होंने गांव को कुनबियों की दालानों में बैठकर गप्पें भी लगाईं, उनके कोल्हू के पास खड़े होकर गन्ने का रस भी चखा और ताज़े-ताज़े बनते हुए गुड़ का भी मज़ा लिया; उन्होंने इन किसानों को मिट्टी के किनारे-किनारे आग तापते हुए और इसी आग में भुने हुए आलू खाते भी देखा, उनकी बातें सुनीं, समझीं और उनके साथ हमदर्दी का इज़हार किया. उन्होंने पूस की रात में घुटनों तक धोती पहने और जिस्म पर बोरे को समेटे हुए किसानों को खेतों की रखवाली करते देखा. उन्होंने जेठ की चिलचिलाती दुपहरी में किसानों को नंगे- बदन, नंगे- पांव खेतों में गोड़ाई करते देखा है, उन्हें दिन-दिन भर पुरवट से पानी निकालते देखा, जौ के आटे की बनी उनकी मोटी-मोटी रोटियां चखीं. गांव की इन समस्त अनुभूतियों ने प्रेमचंद के अंतर को सींचा, उनके ह्रदय में भावनाओं का वह अदम्य स्रोत प्रवाहित कर दिया जिसे वो रोक पाए और जो उनकी लेखनी से फूट पड़ा

लमही नाम का यह गांव जिसके बारे में आपने कुछ बातें पढ़ीं, जिसका नाम आपकी नज़रों से गुज़रता रहता है, पाण्डेपुर-आज़मगढ़ वाली सड़क पर प्राय: ढाई मील की दूरी पर बाएं किनारे पर बसा है. हिन्दी साहित्य का इतिहास इस गांव को भुला नहीं सकता. यह एक तीरथ है जिसे हम और आप भूल बैठे हैं, पर मुझे विश्वास है कि एक एक दिन हिन्दुस्तान चेतेगा और लोग इस गांव को देखने के लिए तड़प उठेंगे.

लमही गांव ने प्रेमचंद को वह चीज़ दी जिसने उन्हें मुल्क की आंख का तारा बना दिया. प्रेमचंद ने इस छोटे से गांव को क्या समझा गोया उन्होंने हिन्दुस्तान को समझा, लोगों की नब्ज़ जानी और उनके दिल की धड़कनों को सुना और ऐसी ज़बान में हमारे सामने रखा जिसे पढ़कर हम और आप अपनी बेबसी पर दो बूंद आंसू की टपका देते हैं.

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नोट:
यह लेख मेरे पिता विनय कुमार राय ने वाराणसी से प्रकाशित होने वाले 'आज' अख़बार के लिये सन 1955 में लिखा था. मुझे इस अख़बार का पन्ना बड़ी जर्जर हालत में मिला जो हाथ से उठाते ही टूटा जा रहा था. किसी तरह से मैंने इसकी तस्वीर खींची और उसकी फोटोकॉपी करवाकर इसे टाइप किया और इसे अपने ब्लॉग में जगह देने का सौभाग्य मिला. अख़बार के मूल पृष्ठ की तस्वीर भी आप सबके सामने रख रहा हूं.
 
मेरे पिता की लेखनी में गजब का प्रवाह था और मेरा ऐसा मानना है कि अगर उन्होंने लेखन को ही अपने जीने का ज़रिया बनाया होता तो हम सबको अपनी भाषा और लेखनी से धन्य करके ही दुनिया से अलविदा कहते. वो ज़्यादा तोहीं लिखते थे लेकिन फिर भी अगर कोई उनसे लेख मांगता तो निराश नहीं करते थे. शायद यह मेरी कमी थी या फिर नासमझी कि मैं उनके कई अच्छे लेख सजो कर नहीं रख पाया. इसका मुझे अफसोस है और सदैव रहेगा. 

प्रस्तुत लेख को अपने ब्लॉग में लाना केवल टेक्नोलॉजी के कारण संभव हो पाया वरना मेरे पिता ने प्रेमचंद पर ही कुछ अन्य लेख भी लिखे थे जो अब जाने कहां खो गए हैं. 

मुंशी प्रेमचंद के अनुज महताब राय के तीसरे सुपुत्र मेरे पिता का जन्म भी लमही गांव में ही हुआ था. उनकी तालीम क्वींस कॉलेज, वाराणसी, और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) से हुई थी. जीवन के उतार-चढ़ाव को पार करते हुए विनय दिल्ली पहुंचे और यहीं के हो के रह गए

किस्मत की बात कि मुंशी प्रेमचंद के ज्येष्ठ पुत्र श्रीपत राय भी दिल्ली बसे और इस तरह दोनों चचेरे भाइयों ने जीवन का एक लंबा समय एक ही शहर में एक दूसरे के सानिध्य में व्यतीत किया. मैंने विनय और श्रीपत के रिश्तों को बहुत नज़दीक से देखा है और आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो पाता हूं कि दोनों में एक-दूसरे के लिए जो आत्मीयता, प्रेम और सम्मान जीवन पर्यंत रहा वो आज के ज़माने में दो सगे भाइयों में पाना दुर्लभप्राय है.

विनय कुमार राय ने मुंशी प्रेमचंद पर अन्य लेख भी लिखा था जो अंग्रेज़ी के अख़बार 'पैट्रियट' (PATRIOT) में छपा था जहां मैं कार्यरत था. इस लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक को कापी/ पेस्ट करें. 

LINK:       

1)


प्रेमचंद: ज़िदगी के आइने में (7 Oct, 2019)

https://apurvarai.blogspot.com/2019/10/blog-post.html







2)



The Genius of Premchand (28 July, 2017)  

http://apurvaopinion.blogspot.com/2017/07/the-genius-of-premchand.html