November 17, 2016

मेरा रुपया मेरी मुट्ठी में



अपूर्व राय

नरेंद्र मोदी को चर्चा में रहने की कला आती है; चाहे वो गुजरात के मुख्य मंत्री रहे हों, चाहे बीजेपी को सत्ता में लाने वाले स्टार प्रचारक या फिर आज के प्रधानमंत्री. कभी सपनों के भारत की बात करना, कभी लोगों के मन की बात करना, कभी देश-विदेश के अथक दौरे करना, कभी योग करना या फिर नई- नई पोशाक का शौक--- मोदी ने देश और दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाई है. भला कहें या बुरा, मोदी को भुला पाना मुश्किल है. 

अभी तक की बात तो जो थी सो थी; लोग सोच रहे थे अच्छे दिनों की बात सिर्फ हो ही रही है पर कुछ अच्छा होता दिख नहीं रहा-- रोज़मर्रा की ज़िंदगी वैसी ही जद्दोजहद से भरी है, महंगाई काबू में नहीं है, अपराध कम नहीं हो रहे, असुरक्षा बढ़ रही है, उद्योग तरक्की नहीं कर रहे, किसान उपज नहीं बढ़ा सक रहे, किसी को नौकरी मिल नहीं रही तो किसी की छूटी जा रही है, कभी सूखा पड़ जाता है तो कभी सैलाब आ जाता है, समाज में कोई मौज कर रहा है तो कोई परिवार पालने के लिए कशमकश कर रहा है. आधुनिकता और विकास महज़ मेट्रो ट्रेन, मोबाइल फोन और इंटरनेट पर आकर रुक जाता है. देश के किसी भी बड़े शहर में एकबारगी टहल जाइये आपको हर तरफ लापरवाही की मिसाल मिलेगी और ऐसे में छोटे शहरों की बात क्या करें. विकास की बात तो हर कोई कर रहा है पर अफसोस तो इस बात का है कि विकास दिख नहीं रहा, महसूस नहीं हो रहा.

इन सबके बीच एक रोज़ शाम को मोदी जी अचानक प्रकट होते हैं और घोषणा कर देते हैं कि अब से पांच सौ और एक हज़ार रुपए के नोट अमान्य होंगे. बैठे-बिठाए ये नोट बेकार हो गए. सुनते ही मानो पांव तले धरती सरक गई, कोई भूचाल आ गया और लोग रात का खाना भूल गए. एक बार फिर से मोदी जी चर्चा में आ गए. कश्मीर से कन्याकुमारी तक जन-जन उनकी बात कर रहा था--  कोई भला-बुरा कह रहा था तो कोई उनकी घोषणा को साहसिक कदम बतला रहा था. लेकिन सरकार का यह कदम शायद उचित था क्योंकि आतंकवाद के ऊपर लगाम लगाना ज़रूरी हो गया था और उधर काले धन का नंगा नाच भी रोकना था.

मोदी जी की 8 नवंबर की इस घोषणा के बाद से पूरे देश के हालात बदल गए और ऐसे बदले कि शायद खुद प्रधानमंत्री ने इसकी कल्पना भी नहीं की होगी. दस दिन के करीब बीत चुके हैं और पूरा देश आज भी अपने नोट बदलवाने के लिए बैंकों के आगे लाइन लगाए खड़ा है. आज सड़क-सड़क और गली-गली जो नज़ारा दिख रहा है ऐसा शायद ही किसी ने देखा होगा. क्या सरकार में किसी ने ऐसे दृश्य की परिकल्पना की थी; शायद नहीं!

सरकार की तरफ से ज़रूर कहा गया कि लोगों को कुछ परेशानी होगी पर जल्दी ही सब कुछ ठीक हो जाएगा. लेकिन हालात ऐसे हो जाएंगे किसी ने सोचा भी न था. क्या योजना के क्रियान्वयन में कुछ खामी रह गई? मुझे लगता है बहुत कमियां रह गईं. सवा सौ करोड़ लोगों के देश में कोई योजना भला बिना किसी ठोस तैयारी के कैसे लागू की जा सकती है. कितनी शर्म आती है मुझे जब मैं देखता हूं लाखों आदमी अपना काम-धंधा छोड़कर बैंकों के आगे लाइन लगाए खड़ा है और वो भी अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा बदलवाने या फिर अपने खाली बटुए में चार पैसे बटोरने के वास्ते.

क्या इसी तरह से हम विकास करेंगे? कभी-कभी सोचता हूं कि अगर ऐसी ही योजना किसी विकसित देश जैसे अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी या जापान में लागू की जानी होती तो वो कैसे करते? कल्पना कीजिये कि अमेरिका में भी अगर ऐसा ही कुछ फैसला हो हो जाता है तो क्या होगा? क्या पूरा मुल्क काम छोड़कर डॉलर बदलवाने बैंक के आगे लाइन लगाकर खड़ा हो जाएगा और वो भी एक दिन नहीं, दो दिन नहीं... दस-बीस दिनों तक! अगर अमेरिका में ऐसा कुछ हो जाए तो पूरी दुनिया में खलबली मच जाएगी, दुनिया के हर अख़बार में इस बात की सुर्खियां बन जाएंगी, हर न्यूज़ चानल में बांक के आगे खड़े अमेरिकियों की तस्वीरें दिखाई जाएंगी. ऐसा हो जाएगा मानो दुनिया में इससे बड़ी ख़बर ही नहीं है. लेकिन इस बात का यकीन मानिये कि अमेरिका में अगर कुछ ऐसा हो भी गया तो वहां किसी को काम छोड़कर डॉलर बदलवाने के लिए लाइन में खड़े होने की कतई ज़रूरत नहीं पड़ती. हर कोई अपना काम करता रहेगा और उसका पूरा पैसा भी उसे सुरक्षित मिल भी जाएगा... बिना किसी नुकसान, बिना किसी दिक्कत, बिना किसी परेशानी और बिना किसी हर्ज़े के.

लेकिन ये भारत है दोस्तों. यहां बड़े-बड़े फैसले ले लिए जाते हैं लेकिन ये कोई नहीं जानता काम कैसे होगा, किस तरह से होगा, कब तक होगा, किस तरह के हालात बनेंगे और किस तरह की मुश्किलें आएंगी और उन मुश्किलों से कब तक, किस तरह से निपटा जा सकेगा. बस हर कोई हवा में तीर छोड़ रहा है.

सरकार ने नोटबंदी के ज़रिये निशाना किसी पर साधा था लेकिन शिकार कोई और हो गया. देश के हर शहर और गांव में आम जनता लाइन में खड़ी है अपना ही पैसा पाने को क्योंकि जो उसकी जेब में है वो कागज़ का टुकड़ा हो चुका है. दोबारा जेब में रकम आ जाए इसके लिए सब लाइन लगाए खड़े हैं. पर उन लोगों को क्या फर्क पड़ता है जो अफसर हैं, नेता हैं, रसूखदार हैं, सिफारिशी हैं या फिर पैसेवाले हैं. इन सबका का काम तो बिना लाइन में लगे ही हो गया या फिर हो रहा है. सचमुच दांव सिर्फ अखाड़े में ही नहीं खेले जाते असल ज़िंदगी में भी खेले जाते हैं. रईसों ने ऐसे दांव खेले कि साफ बच निकले और देखने वाले देखते रह गए.

सरकार का मानना है कि देश के भीतर ही ढेरों काला धन है जिसे निकालना आवश्यक है और इसी को देखते हुए 500 और 1000 रुपए के नोट बंद कर दिए गए. उम्मीद जताई जा रही है कि रईसजादे इन नोटों को या तो सरकार को लौटा देंगे या फिर उन्हें जला देंगे. इस तरह से बाज़ार में घूम रहा लाखों का काला धन यकायक रुक जाएगा और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में कुछ आसानी हो जाएगी.

जिनके पास ये नोट काले धन की शक्ल में बोरियों, तकियों या गद्दों में छिपे थे वो एक पल तो घबराए ज़रूर पर उन सबने रास्ता निकाल लिया. काले धन ने एक नए धंधे को जन्म दिया और पैसे वाले लोग 1000 के बदले 700 रुपए धड़ाधड़ ले आए क्योंकि कुछ नुकसान भले ही हो जाए पर रुपया काम तो आ गया. कुछ और पहुंचवाले लोग भी थे जिनके साथ बैंकवालों ने 'दोस्ती' निभाई. कहा तो यहां तक गया कि इस दोस्ती की कीमत भी अदा की गई क्योंकि अपना पैसा बचाना था और लंबी कतारों से भी बचना था. इसके अलावा कुछ और 'काले रईस' थे जिन्होंने सोने के सिक्के खरीदकर सूटकेस भर लिए. कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने रातों रात रुपए देश केबाहर रवाना कर दिए और वो रुपए अब डॉलर या दिरहम बन गए. Afterall, right conection matters.

सच दोस्तों, जुगाड़ का देश है ये. यहां कोई काम ऐसा नहीं जिसके लिए जुगाड़ न निकल आए.

मारा गया तो आम आदमी जिसके पास न तो काला धन है कि एक हज़ार के सात सौ ले आए, न ही सोने के सिक्के खरीदने की कूबत है और न ही अफसरों/ बैंक वालों की सिफारिश कि घर बैठे रुपए बदलकर आ जाएं. सरकार भले ही अपनी पीठ ठोंक ले पर काला धन निकला कहां. रईसज़ादे कुछ 'गरीब' ज़रूर हुए पर काम बन गया. कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी तो पड़ता है.

सच में पैसे वाले ठीक ही कहते हैं रुपए का कोई रंग नहीं होता--- रुपया तो रुपया है काला हो या सफेद. रुपए की ताकत उसके रंग से नहीं बदलती. रुपया कमाने के लिए कोई मेहनत करता है तो कोई मेहनत के साथ-साथ ख़तरे भी मोल लेता है. आखिर किसे नहीं पसंद उसकी जेब रुपयों से भरी हो, अपनी ख्वाहिश पूरा करने के लिए रुपयों की खातिर मायूस न होना पड़े. जो पैसे वाला है वो हर सुख का स्वामी है, कष्ट तो ग़रीबों के लिए है. और ऐसे में जब सरकार कोई सख्त कदम उठाती है तो यही काले धन के मालिक उसका मुनासिब तोड़ निकाल लेते हैं. 

बेहतर होता मोदी जी भी कोई ऐसा कदम उठाते कि काले धन के मालिकों को दिन में तारे नज़र आ जाते... फिलहाल अगर वो मुस्कुरा नहीं रहे हैं तो रो भी नहीं रहे हैं.

लेकिन इसके बावजूद लाइन में खड़े उस आम आदमी का जज़्बा देखिए कि मोदी के कदम की सराहना करने से नहीं चूक रहा. लाइनों में खड़ा ये आम आदमी ही सच्चा है, ईमानदार और वफादार है. बेईमान आखिर बेईमान ही होते हैं-- चाहे वो रुपए का मामला हो या फिर वोट का. बेइमानों का क्या भरोसा... वो तो पैसों से सामान खरीदते हैं, आदमी और ईमान भी.


जय हो मोदी... हर हर मोदी !