February 21, 2017

उत्तर प्रदेश में चुनाव के रामविकास !

उत्तर प्रदेश विधानसभा भवन, लखनऊ.



अपूर्व राय

उत्तर प्रदेश के चुनावों को अगर महाभारत की संज्ञा दी जाए ग़लत होगा. हर बड़ी पार्टी का उम्मीदवार मैदान में है और हर पार्टी का बड़ा नेता चुनाव प्रचार में. क्या मंत्री, क्या मुख्यमंत्री और क्या प्रधानमंत्री किसी के पास भी मानो कोई काम नहीं, कोई दफ्तर नहीं, कोई फाइलें नहीं, कागज़ों पर कोई हस्ताक्षर नहीं. हर कोई चुनावी रण में डटा है क्योंकि हर किसी का लक्ष्य एक है-- पार्टी और उम्मीदवार की जीत.

सत्ता हासिल करने के लिए जीभ लपलपाते नेता जीभ का कैसा इस्तेमाल करते हैं ये चुनावों में खूब दिखता है; उत्तर प्रदेश में कुछ ज़्यादा ही. चुनावी जंग ज़ारी है, चुनावी बाण चलाए जा रहे हैं और चुनावी रथ हांके जा रहे हैं. कौन विजयी होगा और कौन धराशाई कोई नहीं जानता पर कुर्सी पाने का ऐसा लालच शायद ही कभी किसी ने देखा हो.

दूसरी ओर बेचारी जनता है, आम आदमी है जो हर किसी की बात सुन रहा है, हर किसी को परख रहा है क्योकि उसे ही अंत में वोट डालने जाना है और उसी का वोट इन नेताओं को सत्ता की चाश्नी का स्वाद दे सकता है. गांवों, शहरों कस्बों और मोहल्लों में रहने वाला आम आदमी ही वोटर है और अपने भले के लिए इन नेताओं को सुनता है और कुर्सी देता है. एक बार चुन लिए गए और मंत्री बन गए तो यही नेता किस वोटर के हाथ आते हैं और किसका कितना भला करते हैं यह किसी सफेद झूठ से कम नहीं.

जैसे ही उत्तर प्रदेश में चुनावी माहौल बना नेताओं को एक-एक कर वादे याद आने लगे-- कुछ  जिन्हें पूरा कर लिया और कुछ जिन्हें पूरा करने के लिए वो सत्ता हासिल करना चाहते हैं. जैसे ही राज्य में चुनावी माहौल बना नेताओं ने एक-एक कर गड़े मुर्दे उखाड़ने शुरू कर दिए; किसने कब क्या कहा था, कौन सा काम था जो करना चाहते थे पर किसी ने करने नहीं दिया, कौन कितना खाकर डकार गया वगैरह- वगैरह. चुनाव के समय नेता अंतर्यामी भी हो जाते हैं और उन्हें आम आदमी एक इंसान नहीं दिखता, वो उसमें हिंदू देखते हैं, मुसलमान देखते हैं, उसकी जाति देखते हैं-- अगाड़ी देखते हैं, पिछड़ा देखते हैं, उसकी ग़रीबी देखते हैं, उसके बैंक खातों का ख्याल करते हैं, उसकी नौकरी की चिंता करते हैं, उसकी सेहत की चिंता सताने लगती है. आखिर पांच साल बाद मौका मिला है हर नेता को जनता के दरबार में हाज़िरी लगाने का, इसलिए कोई मौका छोड़ना नहीं चाहता. एक बार चुनाव पूरे हुए नहीं कि फिर पांच साल की छुट्टी.

बेचारे नेता! समाज सुधार की कितनी फिक्र है उन्हें, कितनी ज़िम्मेदारियां हैं उनके कंधों पर. अब अगर जनता का वोट नहीं मिलेगा तो बेचारे कैसे चला पाएंगे जन कल्याण कार्यक्रम. अब कल्याण चाहे जनता का करना हो या फिर अपना सबसे पहले सत्ता ज़रूरी है वरना काहे का कल्याण, काहे का धर्म, काहे की जातियां, कौन किसान, कौन व्यापारी-- सब एक समान हैं.

चुनाव चल रहा है और चुनावी वादे पूरे शबाब पर हैं. लोगों के सामने वादे कुछ इस तरह से किए जा रहे हैं मानों मंच के नीचे धूप और बारिश में खड़ी जनता या तो निकम्मी है या फिर भिखारी. जिस तरह कुत्ते के आगे टुकड़ा या हड्डी फेंक दी जाती है और वो दौड़ा चला आता है ये नेता भी जनता के साथ ठीक उसी तरह का व्यवहार करते हैं. आम आदमी की भीड़ जमा करो, वादों के टुकड़े फेंको, वोट पाओ और घर को जाओ. कुछ बोलो, कुछ कहो बस लक्ष्य है सत्ता. जनता की ताकत तो 'वन वे ट्रैफिक' की तरह है-- वो सत्ता दिला तो सकती है पर नाखुश होने पर कुर्सी से उतार नहीं सकती. लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी कमी खलती है.

राम- राम
अब बात उत्तर प्रदेश की. चुनाव आते ही एक ख़ास पार्टी को भगवान राम याद जाते हैं. बहुत वादे किए हैं राम के नाम पर. भारतीय जनता पार्टी चुनाव के वक्त राम का सहारा ऐसे लेती है जैसे मुसीबत में पड़ा इंसान भगवान का नाम जपने लगता है. सचमुच याद ही गया-- दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे कोय! एक बार सत्ता में हाथ में आई तो फिर राम नाम को राम-राम! भगवान राम का नाम कैसे भुनाया जा सकता है ये कोई भाजपा से सीखे.

राम मंदिर के नाम पर लाखों करोड़ों का चंदा बांट चुके हैं नेता, सरकारी दौरे बनाए हैं, सरकारी भवनों में मुफ्त में रात बिताई है, मुफ्त में सरकारी भोजन किया है और मंदिर बनवाने का वायदा तो झूठा ही निकला. कोई भाजपा से पूछे मंदिर अगर भी जाता है तो इससे कितने लोगों का जीवन-स्तर बेहतर होगा, कितने लोगों को नौकरियां मिलेंगी, खेतों में उपज कैसे बढ़ेगी, उद्योगों का विकास कैसे होगा, लोगों की सेहत कैसे सुधरेगी, आम आदमी का पिछड़ापन कैसे दूर होगा... मंदिर मात्र बनवा देना ही अगर हर समस्या का इलाज होता, तो मेरे ख़्याल से, मुसलमान तक इस कार्य में सहयोग देने से पीछे नहीं हटते.

सोचता हूं भारतीय जनता पार्टी ने राम मंदिर की राजनीति करने के बजाय राम-राज्य की बात की होती तो कहीं बेहतर होता. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ. राम को मर्यादा पुरोषोत्तम
कहा गया है पर बीजेपी ने राम नाम को तो पकड़ लिया पर मर्यादा को वा में उछाल दिया. राम जीवन में जिन आदर्शों पर चले वो अभूतपूर्व हैं. अगर सत्ता की ललक उनके अंदर होती तो वो वनवास को नहीं जाते; पर ऐसा नहीं हुआ. राम त्याग की मूरत थे. राम ज्ञानी थे और दूसरों को स्नेह और दर देना जानते थे. राम वो पुरुष थे जिनके राज्य में हर नागरिक सुखी और संतुष्ट था. प्रजा की प्रसन्नता के लिए राम को किसी तरह की त्याग-तपस्या से संकोच नहीं था. इन्ही सब गुणों ने राम को राम बनाया और उनके शासन को रामराज्य.
भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम माना जाता है और उनके राज को रामराज्य कहा जाता है. राम के नाम पर राजनीति करने वाले क्या रामराज्य लाने की बात करते हैं?

आज की राजनीति में नेता राम की बात तो करते हैं पर शायद ही किसी ने उनके कदमों पर चलने का प्रयास किया हो. आज के नेताओं के गुण राम के गुणों के ठीक विपरीत हैं. हर किसी ने मोह-माया, लालच, झूठ, फरेब और स्वार्थ के मार्ग का ही अनुसरण किया है. मैं समझता हूं कि अगर कोई भी एक नेता, चाहे वो किसी भी पार्टी का हो, अगर दस कदम भी राम के आदर्शों पर चला होता और राम-राज्य की स्थापना के लिए चुटकी भर भी कार्य किया होता तो निश्चय ही जनता ने उसे सिर पर बिठा लिया होता.

सच्चाई तो ये है कि आज के नेताओं का अर्थ लोभ उनके यश लोभ पर हावी हो गया है. जीवन से सादगी चली गई है, चुनाव में दिखावा बढ़ गया है, परिवार और बच्चों को सुरक्षा देने की चाहत सर्वोपरि हो गई है वगैरह- वगैरह. अब अगर यश की कामना करेंगे तो उनके हाथ क्या आएगा. राम त्रेतायुग में आए जहां मर्यादा को पूजा जाता था; आज कलजुग है और अब किसे पूजा जाता है... आप खुद ही समझ लें तो बेहतर होगा.

हे राम, कितनी मोटी चमड़ी है इन नेताओं की. स्वर्गलोक में बैठे भगवान राम भी जब धरती की ओर देखते होंगे तो सर पकड़ कर कहते होंगे-- हाय राम!

आखिर कब तक रटते रहेंगे विकास-विकास
उत्तर प्रदेश के चुनावों में एक अन्य पार्टी है जिसके नेता विकास के नाम का नारा लगाते फिर रहे हैं. जी हां आप ठीक समझे, मैं समाजवादी पार्टी और राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का ज़िक्र कर रहा हूं. वोट बटोरने का उन्होंने एक शानदार और भावनात्मक रास्ता ढूंढा जिसे नाम दिया विकास. अब कौन विकास नहीं चाहता और जिसने भी इसकी बात की और विकास का भरोसा दिलाया उसने जनता का दिल जीत लिया... नहीं- नहीं, जनता का वोट पा लिया!

उत्तर प्रदेश सबसे बदहाल राज्यों में से एक है और इसे बीमारू राज्य का दर्ज़ा प्राप्त है. याद दिला दूं कि इंस्टीट्यूट ऑफ इकॉनोमिक रिसर्च के दिवंगत प्रोफेसर आशीष घोष ने बेहद खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों-- बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश को मिलाकर 'बीमारू' (BIMARU) शब्द ईज़ाद किया था. उत्तर प्रदेश की छवि आज भी वैसी ही खराब है जैसी कुछ दशकों पहले थी. कितनी ही सरकारें आईं और गईं, कितने ही नेता बड़े-बड़े वादों के सहारे त्री बने और चले गए, कितने लोग ढ़-लिखकर अपनी काबिलियत के दम पर अफसर बने और बड़े-बड़े पदों तक पहुंचे पर उत्तर प्रदेश की सच्चाई तनिक भी नहीं बदली. इसके बाद भी अगर कोई गला फाड़-फाड़कर विकास-विकास चिल्लाए तो क्या कर सकते हैं! अब अखिलेश यादव के पास कोई जादू की छड़ी तो है नहीं, कोई अलादीन का चिराग भी नहीं है और हीं उनकी बातों में कोई करिश्माई विचार दिखता है कि उन्हें विकास का मसीहा मान लिया जाए.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे अखिलेश यादव ने विकासपुरुष की छवि बनाने का प्रयास किया पर जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके.

अखिलेशजी पांच साल तक मुख्यमंत्री रह लिए और एक बार फिर मुख्य मंत्री बनने की हसरत रखते हैं. पिछले पांच सालों में क्या कुछ बदला है, कागज़ों और सरकारी स्लोगनों की बात छोड़ दें, तो सच्चाई हम और आप खूब जानते हैं. दोबारा मुख्यमंत्री बनकर अखिलेश उत्तर प्रदेश का भला कैसे करेंगे और प्रदेश को बीमारू श्रेणी से कैसे उबारेंगे या फिर छवि कैसे सुधारेंगे इस बात को किस तरह हलक के नीचे उतारें.

चुनावों में हम और आप सभी वोट डालने जाते हैं. मतदान केंद्र अधिकांश सरकारी स्कूलों में बनाए जाते हैं. कभी वोट डालते वक्त क्या आपकी नज़र इन स्कूलों की दशा की ओर भी गई है? याद कीजिये, नहीं तो अगली बार ध्यान ज़रूर दीजियेगा. ये सरकारी स्कूल विकास और बच्चों के भविष्य का वादा करने वाली सरकारों की पोल खोल के रख देते हैं. चुनावी वादे और मतदान केंद्र बने स्कूल जिस सच्चाई को बतलाते हैं उससे साफ हो जाता है नेताओं के वादे कितने थोथे होते हैं.

मतदान केंद्रों पर लगी कतारें बताती हैं कितना जागरूक है आज का वोटर.
ज़िंदगी सुधारनी है और विकास की साइकिल चलानी है तो स्कूलों को ठीक करना होगा, अस्पतालों को ठीक करना होगा, हर गांव में शहर जैसी आधुनिक सुविधाएं पहुंचाने का सच्चा प्रयास करना होगा, उद्योगों को बढ़ाना होगा, खेती को आधुनिक बनाने के साथ-साथ उपज को सड़ने से बचाने के भी कारगर उपाय करने होंगे और कानून व्यवस्था दुरुस्त करके दिखाना होगा. महज़ लंबी-लंबी सड़कें बनवाकर और उन पर हवाई जहाज़ उतारकर आप विकास की बात करेंगे तो इसे जनता को झांसा देना ही कहा जाएगा.

अगर अखिलेश यादव विकास की बात करते हैं तो अपने शासन के पांच सालों में हासिल की गई कोई पांच अभूतपूर्व उपलब्धियां सामने रख दें. राज्य में कौन सा उद्योग पनपा है, कौन सी फसल का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है, कितने गांव समृद्ध हुए हैं, कितने विश्वविद्यालयों या शिक्षा संस्थानों ने देश में कोई मुकाम हासिल किया है, कितने अस्पताल भरोसेमंद कहलाने लायक हैं और देश के दूसरे हिस्सों से कितने लोग नौकरी करने उत्तर प्रदेश आना पसंद करते हैं

एक तरफ किसान जहां मेहनत से अच्छी फसल उगाता है और देश का नाम ऊंचा करता है वहीं गोदामों में रखा अनाज अफसरों और कर्मचारियों की लापरवाही के कारण सड़ता रहता है. सच्चाई एकदम विपरीत है-- उत्तर प्रदेश के लोग नौकरी के लिए दिल्ली, मुंबई, बेंगालुरू, हैदराबाद जैसी जगहों पर जाते हैं, इलाज कराने के लिए लोग दूसरे बड़े शहरों में जाते हैं, कोई उद्योग यहां अपनी पहचान नहीं बना पाया है और खेती का हाल तो मत पूछिये. फसलों और खेतों का हाल बुरा है. किसान की हालत को लेकर सिर्फ सियासत होती आई है. न नदियों का विकास, न नहरों का निर्माण और न ही सिंचाई की सुचारू व्यवस्था, बिजली बदहाल है, आधुनिकता से अछूता किसान आज भी परंपरागत शैली से ही खेती करने को मजबूर है और गांवों में बाज़ार और बैंक जैसी सुविधाएं नदारद हैं. विकास की बात करने वाले मुख्यमंत्री महोदय क्या बता सकते हैं कि कितने गांवों का आधुनिकीकरण किया गया है? लेकिन इन सबके बावजूद किसान अगर अपनी खुद की मेहनत से अच्छी पैदावार करता है तो सरकार के पास अनाज भंडारण के लिए कोई ठोस व्यवस्था नहीं है. हम और आप भली-भांति जानते हैं कितना अनाज बरसात के मौसम में बर्बाद हो जाता है.

एक ज़माना था जब कानपुर को राज्य का सबसे बड़ा औद्योगिक नगर होने का गौरव प्राप्त था. पर आज कोई कानपुर में निवेश करना ही नहीं चाहता. उद्योग बंद हो चुके हैं और लोग रोज़गार की तलाश में दूसरे राज्यों को चले गए गए हैं. क्या अखिलेशजी इन उद्योगों को वापस लगवा पाएंगे और कामगारों को वापस ला पाएंगे? उत्तर प्रदेश हथकरघा उद्योग के लिए भी जाना जाता था; आप ज़रा भदोही और मिर्ज़ापुर जा के तो देखिए बुनकरों की दशा तो दूर शहर की दशा ही आपको दोबारो आने से रोक दे तो कहियेगा.

लेकिन फिर भी बात होती है विकास की! कहते हैं 'काम बोलता है'.
गंगा की सफाई के लिए करोड़ों रुपए खर्च हुए लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.उत्तर प्रदेश का सौभाग्य है कि यहां गंगा जैसी पवित्र नदी बहती है जो अब मैली हो चली है. गंगा की सफाई को लेकर करोड़ों रुपए खर्च हुए हैं, मंत्रियों और अफसरों के दौरे हुए हैं पर स्थिति जस की तस. कौन सी सरकार दावा कर सकती है कि उसने गंगा मां का मान बढ़ाने में राजनीति से आगे बढ़कर सहयोग किया.  

उत्तर प्रदेश सबसे भ्रष्ट राज्यों में से एक माना जाता है. घूसखोरी का आलम ऐसा कि ईमान हवा हो गया है और आम राय बन चुकी है पैसा दो, काम करवाओ. सुरक्षा की हालत ऐसी कि जो कानून का सम्मान करते हैं वो भय में जीते हैं और जो कानून को जेब में रखकर घूमते हैं वो सीना फुलाकर टहलते हैं. गुंडागर्दी जहां खुलकर होती है उत्तर प्रदेश उन जगहों में से एक है. इतना ही नहीं, लोगों के हमदर्द बने फिरते सफेद पोशाक पहने बड़ी-बड़ी गाड़ियों में सड़कों पर साइरन बजाते हुए फर्राटा भरते नेताओं को देखकर भी भय ही लगता है. ऊपर से त्रासदी ये कि इन्हीं नेताओ को वोट देकर मंत्री का ओहदा देना पड़ता है. ऊपर से हम हैं कि सहमें से वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं इन नेताओं की गाड़ियों से उड़ती धूल खाने को, मंत्री बनने के बाद छोटे से काम के लिए भी इनके दफ्तरों के चक्कर काटने को, इनकी एक झलक पाने को बेकरार.

उत्तर प्रदेश के गांवों की तस्वीर जस की तस है-- विकास से कोसों दूर.उत्तर प्रदेश की जिन शानदार सड़कों की बात की जा रही है और जिनके दम पर विकास की साइकिल दौड़ाई जाने के वादे किए जा रहे हैं उन सड़कों पर चलकर आपकी साइकिल किस शहर और किस गांव पहुंचेगी, क्या देखेगी और क्या पाएगी, ज़रा सोचियेगा!

नेता कोई भी, पार्टी कोई भी हो आज अगर ज़रूरत है तो नि:स्वार्थ भाव से उत्तर प्रदेश को अपना समझने वालों की है कि उसकी विरासत को भुनाने वालों की

मेरे ख़्याल से.