March 19, 2011

होली के रंग हज़ार


अपूर्व राय
इस साल ऐसी ठंड पड़ी कि हर कोई परेशान हो गया. सबको बेसब्री से इंतज़ार था कब होली आए, मौसम बदले और सर्दी से राहत मिले.

इंतज़ार की घड़ियां अब समाप्त हुईं और फाल्गुन गया है. फिज़ां में रंगों की छटा है, लोगों में मस्ती और अल्हड़पन देखा जा सकता है. बाज़ार निकलिये तो दुकानों पर तरह- तरह की रंगीन पिचकारियां दिखाई दे जाएंगी. लाल, पीले, गुलाबी और हरे रंगों में अबीर- गुलाल वातावरण में मस्ती का संदेश दे रहे हैं. होली के इसी रंग और मस्ती का तो सालभर सबको इंतज़ार रहता है.

होली रंगों का त्यौहार तो है ही, साथ ही यह प्रेम का संदेश और भाईचारे के भाव को भी लेकर आता है. यही वो पर्व है जब हम गिले- शिकवे भुलाकर एक दूसरे को रंग लगाते हैं और प्रेम भाव से एक दूसरे को गले लगाते हैं. प्रेम से मिलना और साथ में खाना- पीना एक ऐसी परंपरा है जो परिवार, मित्रों और समाज को एक- दूसरे के करीब लाती है.

इधर कुछ समय से हमारे आसपास तमाम ऐसी घटनाएं हो रही हैं जिनसे साफ महसूस किया जा सकता है कि भाईचारा अब जाता रहा. इन घटनाओं ने सदियों पुरानी सद्भावना और सहिष्णुता की परंपरा को ठेस पहुंचाई है.


गिरावट की बात जब उठती है तो सबसे पहले भ्रष्टाचार का मुद्दा हमें झकझोर कर रख देता है. लंबा अरसा हो गया हम भ्रष्टाचार की बात कर रहे हैं, लेकिन तो इससे मुक्ति पाने का कोई ठोस कदम उठा पाए और ही किसी भ्रष्ट को ऐसी सज़ा दे पाए कि दूसरे सहम जाएं. भ्रष्टाचार और घोटालों की घटनाओं ने देश की छवि ऐसी खराब की है कि सारा विश्व भारत को घोटालों का देश मानने लगा है.

ऐसा लगता है कि सदाचारी, ईमानदार और मेहनती लोगों की कौम कहीं लुप्त हो गई है. चाहते हुए भी बार- बार कुछ ऐसा होता है कि बेइमान और चरित्रहीन लोगों का नाम उजागर हो जाता है और सच्चे, ईमानदार लोग गुमनामी में खो जाते हैं.
होली का पर्व है, ऐसे में काश कोई लगाता रंग सदाचार के.

सिर्फ भ्रष्टाचार ही हमारी नैतिकता के पतन के लिए ज़िम्मेदार नहीं है, आज हम भेदभाव की बात भी पहले से ज़्यादा करने लगे हैं. शायद लोग भूल गए हैं कि आज़ादी की लड़ाई में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक सारा देश एकजुट था और सबने मिलकर ऐसा आंदोलन खड़ा किया कि अंग्रेज़ भारत को भारतवासियों के हवाले करने को मजबूर हो गए

आज जबकि भारत की कमान भारतीयों के हाथ में है तो जात- पात की बात हो रही है, अलग राज्य बनाने की बात ज़ोर पकड़ रही है और भाषा के नाम पर लोगों के साथ दुर्वयव्हार हो रहा है. कश्मीर में हिंसा, गोरखालैंड की मांग, तेलंगाना का मुद्दा, मराठी के नाम पर दूसरी भाषा बोलने वालों के साथ सौतेला व्यवहार, पिछड़ी जाति के नाम पर वोट और सत्ता हथियाने की राजनीति, जाति के नाम पर नौकरियों में आरक्षण आदि अनेक ऐसे मुद्दे हैं जो एकजुटता और प्रेम की भावना को आहत करते हैं.

कभी सुकून से बैठकर सोचें तो लगता है कि क्या इसी के लिए हमारे पूर्वजों ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी, क्या संविधान बनाने वलों ने इसीलिए समानता और सामाजिक न्याय की बात कही थी?
होली का पर्व है, ऐसे में काश कोई लगाता रंग सौहार्द के.


राधा-कृष्ण का रास और होली हर किसी का, मन मोह लेती है.
रास: होली पर राधा-कृष्ण की रासलीला. Pix- APURVA RAI
किसी भी सभ्य समाज में हिंसा का कोई स्थान नहीं है. सभी यही चाहते हैं कि हर तरफ प्रेम भाव बना रहे और कोई मारपीट करे. लेकिन हकीकत इससे परे है. हिंसा समाज का हिस्सा है, लेकिन तकलीफ तब होती है जब मारपीट, दुराचार और अत्याचार जैसी घटनाएं ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ जाती हैं

कहते हैं रामराज में हर कोई सुखी था और लोग आत्मीयता से रहते थे. मारपीट आदि की घटनाएं यदा-कदा ही सुनाई पड़ती थीं भले ही लोगों के पास उतनी सुविधाएं नहीं थीं जितनी विज्ञान के युग में आज हमारे पास हैं. आज जबकि सुविधाएं बढ़ गई हैं, समाज में हिंसा भी बढ़ गई है. रामराज की बात करना तो आज बेमानी सा लगता है.

देश का कौन सा कोना ऐसा है जहां निर्भय होकर विचरण कर सकते हैं. आज के समाज में पुरुष असुरक्षित हैं और स्त्रियां अपराध का शिकार. छोटी- छोटी बात पर किसी की जान ले लेना, महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाना ऐसी घटनाएं हैं जो तेज़ी से बढ़ती जा रही हैं

स्थिति यहां तक पहुंची है कि आज उन पर भी भरोसा नहीं होता जो भरोसे के सबसे बड़े पात्र हैं. हिंसा और मारपीट के बीच अविश्वास और नफरत की आग जो फैली है उसे बुझाना हमारी सबसे बड़ी चुनौती है.
होली का पर्व है, ऐसे में काश कोई लगाता रंग प्यार के.

त्योहारों का एक ख़ास नाता व्यंजनों से भी होता है. हर पर्व पर कुछ विशेष प्रकार की खाने- पीने की वस्तुएं बनती हैं. होली आती है तो कौन गुजिया नहीं खाना चाहता. यही वो पर्व है जब तरह- तरह के नमकीन भी बनाए जाते हैं
होली के पर्व पर गुजीया, दही-भल्ले और नमकीन आदि व्यंजन बनाने की परंपरा है.
होली के पर्व पर गुजीया, दही-भल्ले और नमकीन आदि व्यंजन बनाने की परंपरा है.

त्यौहार का मौका हो और खाने- पीने के उम्दा व्यंजन हों तो मन प्रसन्न हो ही जाता है. लेकिन हमारी प्रसन्नता उस वक्त अफसोस में तब्दील हो जाती है जब हमें मिलता है मिलावटी दूध, पनीर, खोया और घी- तेल. जिस तरह हम लोग खाने की चाहत में साल भर पर्व का इंतज़ार करते हैं उसी तरह मिलावटखोर भी त्योहार का इंतज़ार करते हैं ताकि वो अपना सामान बाज़ारों में बेच सकें. सचमुच रुपए की हवस में हम कितना गिर गए हैं.
होली का पर्व है, ऐसे में काश कोई लगाता रंग स्वाद के.

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1) आज बिरज में होली रे रसिया
http://apurvarai.blogspot.in/2016/03/blog-post.html