April 06, 2020

फासलों के दरमियां... !




अपूर्व राय

इन दिनों घर में हूं... अपने परिवार के साथ. वजह है कि पूरे भारत देश में एक विकट सी स्थिति पैदा हो गई है एक ऐसी महामारी के कारण जिसने पूरी दुनिया को हिला के रख दिया है. कोरोना वायरस या चाइना वायरस जिसे कोविड 19 के नाम भी दिया गया है लोगों में भय का कारण बन गया है. पूरी दुनिया में हज़ारों- लाखों लोग अपनी जान गंवा बैठे हैं और लाखों- करोड़ों इस महामारी से पीड़ित हैं. इंसान से इंसान को लगने वाली और एक वायरस से फैलने वाली इस बीमारी का पता ही नहीं चलता कब किसे लग गई, लिहाज़ा भारत में पूरी तरह लॉकडाउन लगा हुआ है. लॉकडाउन एक तरह का कर्फ्यू है जिसमें बाहर निकलने या कहीं आने-जाने पर पाबंदी तो है पर कानून की सख्ती नहीं है. 

आज की स्थिति यह है कि हम सब अपने-अपने घरों में जमे हैं, मिलना-जुलना बंद है क्योंकि ख़ैरियत इसी में है कि सबसे दूर रहें.

बैठे-बैठे मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे कि कभी सोचा न था कि एक दिन वो भी आएगा जब किसी से मिलना भी बंद हो जाएगा, कहीं जाना भी मुश्किल हो जाएगा, घर की ड्योढ़ी भी नहीं लांघ पाएंगे और वो भी 21वीं शती में. वाकई कितने अचरज की बात है कि अभी बमुश्किल दो दशक पहले ही 21वीं शताब्दी का कितने उल्लास और उत्साह के साथ स्वागत किया था हमने. लगता था नया दौर आ गया है जहां पिछड़ेपन और पिछड़ी सोच की कोई जगह नहीं है, विकास की नई राह है और टेक्नोलॉजी तो अद्भुत है, अकल्पनीय है. नई टेक्नोलॉजी ने दूर बैठे अपनों को पास ला दिया, दुनियाभर की जानकारी हमारी हथेली पर रख दी और पूरे संसार को ऐसा सिमटा दिया कि फासले लगभग खत्म हो गए.

नई शती के दो दशक बीतते-बीतते कोरोना नाम के वायरस ने ऐसा प्रकोप दिखाया कि सारी टेक्नोलॉजी धरी रह गई, विकास आसमान देख रहा है और फासले ऐसे बढ़ गए कि आप अपने सामने वाले से हाथ तक नहीं मिला सकते, उसे गले भी नहीं लगा सकते. और तो और घरों से बाहर निकलने में भी डर लगता है, पता नहीं कहां छुपा बैठा होगा दहशत का वायरस और हमें जकड़ लेगा.

वैसे ऐसा नहीं है कि आधुनिकता, विकास, आरामदेह और भागदौड़ से भरी ज़िंदगी में हम सब एक दूसरे से मिलने को लालायित थे-- कुछ तो व्यस्तता थी है पर उससे ज़ायादा था व्यस्तता का ढोंग. किसी से मिलने को कहो तो एक ही जवाब, 'भई वक्त मिलेगा तो ज़रूर बैठेंगे'. पर वक्त कभी किसी को मिला नहीं, या, यूं कहें कि किसी ने निकाला नहीं.

कोरोना वायरस शायद हम सबकी भावनाओं और बातों को चुपके-चुपके अपने भीतर सजो रहा था और एक दिन आया जब उसने हमला बोल ही दिया. आज शहर के शहर बंद हैं, आवाजाही ठप है. अब आप चाहकर भी किसी को बुला नहीं सकते, किसी से मिलने को सोच नहीं सकते और चाहकर भी कहीं जा नहीं सकते.

पहले हमने फासले बनाए लेकिन आज फासले हमारी मजबूरी बन गए हैं. आज खल रही है मित्रों की कमी, रिश्तेदारों का प्रपंच, दफ्तर के साथियों के उलाहने और पड़ोसियों की जलन. आज हर कोई पास होकर भी दूर है. वक्त है लेकिन मिल नहीं सकते, इच्छा है लेकिन मजबूर हैं. फासलों की ऐसी मजबूरी, वो भी 21वीं शती में, किसने सोची थी भला !

बेहतरीन शायर बशीर बद्र साहब की चंद लाइनें याद आ रही हैं --

यूँही बे-सबब फिरा करो  कोई शाम घर में रहा करो  
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है  उसे चुपके चुपके पढ़ा करो.
कोई हाथ भी मिलाएगा  जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है  ज़रा फ़ासले से मिला करो.
 




फिर भी बंदिशों के बीच ज़िंदगी चल रही है. कहते हैं न ढूंढो तो नकारात्मकता में भी सकारात्मकता मिल ही जाती है. ठीक उसी तरह फासलों ने बहुत कुछ ऐसा दिखाया है जिसके बारे में हम कम सोचते थे. फासलों ने भले ही बहुतों से दूर किया लेकिन ये हमें उन अपनों के करीब ले आए जिनकी हम सबको सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी लेकिन हमारा ध्यान कम था. हमने परिवार बनाया लेकिन इस परिवार को न वक्त दिया, न साथ दिया और न ही उसके करीब रहे. ये फासले हमें हमारे घरों के करीब भी ले आए जिन घरों को बनाने में अपनी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर दिया, जिन घरों को कितने शौक से सजाया था लेकिन अफसोस कभी उसे नज़दीक से जी भर के निहारा भी नहीं. घर ज़रूर हमारा था लेकिन सब कुछ दुनिया को दिखाने के लिये. अपने बनाए सपनों के घर में हम रहते ज़रूर थे पर उसका सुख हमें इब इन फासलों के दरमियां ही मिला. 



नामचीन शायर गुलज़ार साहब की एक रचना इन दिनों काफी चर्चा में है और यहां मौजू भी--







एक मुद्दत से आरज़ू थी फ़ुर्सत की...
मिली तो इस शर्त पर
कि किसी से ना मिलो !
शहरों का यूँ वीरान होना 
कुछ यूँ ग़ज़ब कर गया...
बरसों से पड़े गुमसुम घरों को 
आबाद कर गया !
घर गुलज़ार.., सूने शहर..,
बस्ती-बस्ती में कैद हर हस्ती हो गई...
आज फिर ज़िन्दगी महँगी
और दौलत सस्ती हो गई ..... !!

कितनी सच्चाई है इस कविता में. फासलों के दरमियां शहर वीरान हैं लेकिन घर गुलज़ार और हम यहां बसर कर रहें हैं अपनों के बीच. दहशत का वायरस हमें डरा ज़रूर गया है लेकिन अपनों के करीब कर गया है.

सोचता हूं फासलों के दरमियां परिवार के लिए बढ़ते प्यार के लिये कोरोना वायरस का शुक्रिया करूं या फिर उससे डरूं !

मेरे ख़्याल से.
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नोट

कोरोना वायरस से जुड़े जीवन के तमाम पहलुओं को छूते मेरे अन्य लेख पढ़ने के लिये अंत में दिये लिंक को कॉपी पेस्ट करें :

1) Mass Exodus in History
http://apurvaopinion.blogspot.com/2020/04/mass-exodus-in-history.html













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2) ठहरे कदम !

https://apurvarai.blogspot.com/2020/04/blog-post_17.html 














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3) स्वाद का लॉकडाउन
https://apurvarai.blogspot.com/2020/04/blog-post_28.html
 










4) Lockdown Changes Life & Style
https://apurvaopinion.blogspot.com/2020/05/lockdown-changes-life-style.html


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