January 11, 2024

गजब की है सर्दी !

 


अपूर्व राय/ APURVA RAI

सर्द मौसम है. भयंकर ठंड पड़ रही है; पूरा शरीर ऐसे कांप रहा है जैसे जेठ की दुपहरी में गर्म हवा के झोंकों के बीच पेड़ पर लटका हुआ एक पत्ता. दो-दो स्वेटर पहने हुए हैं पर फिर भी कंपन थम नहीं रहा. बाहर ज़बरदस्त कोहरा है, कई दिन हो गए सूरज के दर्शन नहीं हुए. दोपहर होते-होते शाम का एहसास होने लगता है और शाम ढलते-ढलते रात का एहसास. रात तो लंबी होती ही है लेकिन राहत इस बात की है की रजाई का सुखद अहसास सारे कष्टों को हर लेता है. गजब है जाड़े का मौसम.

लेकिन अजब हाल है. इधर धूप नहीं निकल रही, कोहरे की घनी चादर छाई हुई है और कुछ सूझ नहीं रहा है. शरीर गर्म कपड़ों से लदा है मगर फिर भी कांप रहा है और मौसम विभाग कह रहा है तापमान सामान्य से दो डिग्री अधिक है. मतलब ये कि अभी ठंड कम है. सोच-सोच कर डर लग रहा है कि तापमान और गिरा तो जाने क्या होगा; जान ही निकल जाएगी.

अभी कितना कष्ट का अहसास हो रहा है. सच पूछिये तो कितने इंतज़ार के बाद आया है जाड़े का मौसम. दोपहर में खिड़की के पास बैठा दूर तक फैले कोहरे को देख-देख मेरे मन में ख़्याल आ रहा था मई-जून के महीने का. सुबह उठते ही तेज़ धूप से मन घबरा उठता था और सोचते थे कब आएगी सर्दी और हम बिना पसीने के बाहर घूमने जा पाएंगे. सच ही है वक्त कभी एक सा नहीं रहता और मानव मन कभी संतुष्ट नहीं होता. मई-जून में सर्दी चाहिए थी और अब दिसंबर-जनवरी में गर्मी. गर्मी थी तो एयरकंडीशनर ढूंढ रहे थे और अब सर्दी में हीटर. किसी भी सूरत में चैन नहीं है. इंसान की फितरत ही ऐसी है कि जो पास में है उससे खुश नहीं और जो दूर है उसकी ख्वाहिश में परेशान है.   

बहरहाल बड़े इंतज़ार के बाद जब सर्दी आ ही गई है तो उसका लुत्फ तो उठाना ही चाहिए. ऐसा नहीं है कि जाड़े में सिर्फ कष्ट ही कष्ट है, जाड़े के अनेकों लाभ भी हैं और इसका अपना मज़ा भी है. याद आती है ग्रीष्म ऋतु जब पसीने से लतपथ बाज़ार से लौटते हुए सोचते थे कि सर्दी आएगी तो बढ़िया कपड़े पहनकर इसी बाज़ार में दोबारा आएंगे, खूब घूमेंगे, गरम-गरम आलू टिक्की खाएंगे, हॉट कॉफी पियेंगे और शॉपिंग कम, विंडो शॉपिंग अधिक करेंगे. सच मानिये सर्दियों में बाज़ार की रौनक कुछ अलग ही होती है और माहौल खुशनुमा रहता है. कुछ खरीदिये चाहे न खरीदिये मगर बाज़ार का एक चक्कर लगाना, कैफे में कॉफी की चुस्की और खुले पार्क में बैठकर धूप का आनंद लेना एक अलग ही अहसास देता है. अपनी बात कहूं तो मुझे सर्दी की दुपहरी में कनॉट प्लेस जाना सबसे अच्छा लगता है. मूड फ्रेश करने के लिए इससे अच्छी दवा और क्या हो सकती है. 

पड़े रहिये रजाई में

सर्दी की सबसे वफादार और सबसे ज़्यादा साथ निभाने वाली वस्तु का नाम है रजाई. छुट्टी वाले दिन तो रजाई से कौन निकलता है. किसी तरह मुंह-हाथ धोकर आए और फिर रजाई में घुस गए. वहीं नाश्ता, खाना, पढ़ना-लिखना और फिर मुंडी अंदर करके लुढ़क जाना. जानिये कि सभी क्रियाएं रजाई के अंदर. कई बार तो रजाई में भी आप पूरा पैर फैलाकर नहीं सो पाते, बस एक करवट सिकुड़े पड़े रहते हैं और रात बीत जाती हैं. सिकुड़े रहने पर आधी ही रजाई गर्माहट देती है और बची आधी में गलती से भी पैर चला गया तो ठंड का ऐसा करेंट लगता है कि बस पूछो नहीं. नींद ही टूट जाती है जो ढेरों कोशिशों के बाद और अपनी पोजिशन एक बार फिर दुरुस्त करने पर ही वापस आती है. कुछ लोग तो रजाई को ऐसा लपेट कर सोते हैं कि सिर्फ नाक ही बाहर रहती है और रातभर इतना बजती है कि बगल वाला अपनी रजाई कान से हटा ही नहीं पाता.   

खाने-पीने का मज़ा

सर्दी आई तो जानते हैं सबसे बड़ी बात क्या हुई ? अरे भाई, रोज़-रोज़ लौकी, टिंडा, तरोई और परवल जैसी भयंकर सब्ज़ियां खाने से निजात मिल गई! पूरी गर्मी यही दो-चार सब्ज़ियां घूम-फिरकर थाली में सामने आती थीं. डॉक्टर भी कहने लगा आखिर कितना लौकी, परवल खाओगे. अभी ब्रेक मिल गया है. कुछ समय तक इनके दर्शन नहीं होंगे. बड़ी राहत है भइया! इन दिनों टोमैटो सूप पी रहा हूं, पालक-पनीर खा रहा हूं, गोभी-मटर की तहरी और फिर परांठों का स्वाद तो बस छाया हुआ है. सरसों का साग और मक्की की रोटी तो साल में एक बार ही खाने को मिलती है. बाजरे की रोटी और साग वाली दाल के क्या कहने. भोजन के बाद गुड़ की एक डली जो मुंह में घुली तो मानिये स्वर्ग की प्राप्ति हो गई.

 

सर्दी में खाने की बात चली तो हरी मटर का ज़िक्र कैसे न हो. रोज़ ठेली में भरकर हरी मटर बेचने आ जाता है और आवाज़ लगाकर दाम बताता है तो कैसे रुक सकते हैं. सर्दी बढ़ती जाती है, मटर के दाम घटते जाते हैं और हमारे कदम आगे-आगे ठेले की तरफ भागते जाते हैं. बस रोकती हैं तो श्रीमती जी. ठेले वाला जानता है मटर साहब की कमज़ोरी है. सुनेंगे दाम कल से आज कम हैं तो खरीदेंगे ही. उस दिन भी ऐसा ही हुआ. मटर की फलियां एकदम हरी दिख रही थीं, लंबी-लंबी और मोटी-मोटी. बोरा भरा हुआ था, दाम घटा हुआ था. यह सब देख मन ललचाया हुआ था. मैंने कहा दे दो भाई चार किलो. लेकिन पत्नी ने ऐतराज़ जताया और कहा दो किलो ही चाहिए. हमने भी अपना ज़ोर चलाया और कहा नहीं, दाम गिरा हुआ है चार किलो ले लो ना, चार पैसै बचेंगे ही. तुरंत ही पलटकर जवाब आया अगर चार किलो आज ही अकेले छील सको तो ज़रूर ले लो. हम तो रिटायर्ड ठहरे और वो अभी कार्यरत हैं. लिहाज़ा उनसे छीलने को नहीं कह सकता था. मगर चार किलो आज ही छीलने की बात से डर गया. ठेलेवाला भी चेहरा देखकर माजरा भांप गया और बोला दो किलो आज लो लो, बाकी दो किलो दो दिन बाद ले लेना, रेट यही लग जाएगा. मेरी जान में जान आई. सभी की जीत हो गई... पत्नी की बात रह गई, मेरा मन रह गया और दुकानदार की बिक्री भी हो गई. सब खुश.

बीवी खुश हो गई तो मटर के तमाम व्यंजन भी बनने लगे. नाश्ते में घुघनी और चूड़ा-मटर, खाने में मटर-पनीर और मटर की निमोना. साथ में मिले मटर के परांठे और छुट्टी वाले दिन मटर भरी पूड़ी. और हां, मटर-चावल तो आम बात है, बतलाने की अधिक ज़रूरत नहीं. जब सादा खाना होता है तो मटर का भरता भी बनता है. जब इतना कुछ मिल जाता है और वह भी प्रेम से तो चार किलो मटर छीलने में क्या जाता है. ठीक है न!

जाड़े में खाने के साथ सलाद ज़्यादा ही स्वादिष्ट लगता है. और सलाद का अभिन्न हिस्सा बनती है मूली. बाज़ार से सब्ज़ी आती है तो मूली ज़रूर आती है. मटर की तरह ही मूली के भी कई व्यंजन का स्वाद लिया जाता है. सर्दी आई और मूली के परांठे नहीं खाए तो क्या खाया. हफ्ते में दो बार तो हो ही जाते हैं. कभी-कभी बाज़ार भी जाते हैं परांठे खाने लेकिन मूली के परांठे खाना नहीं भूलते.

सरकारी दफ्तरों में माहौल ठंडा

सरकारी बाबुओं को ठंड कुछ ज़्यादा लगती है. दफ्तर का समय नौ बजे से होता है पर क्या मजाल टाइम से आ जाएं और काम शुरू कर दें. रोज़ कोई बहाना मिल ही जाता है, कभी कोहरा होता है, कभी खुद की और कभी बच्चों की तबीयत बिगड़ जाती है, कभी त्योहार पड़ जाता और कभी फैमिली में शादी-ब्याह. बाबू लोग अगर टाइम पर आ भी गए तो सबसे पहले खाना का डिब्बा बिजली की मशीन में डाला जाता है ताकि चार घंटे बाद लंच पर खाना गर्म मिले. इसके बाद हीटर चलाया जाएगा और हाथ रगड़ कर गर्म किया जाएगा. कहने की ज़रूरत नहीं कि फाइल चलाने के लिए और बिल पास करने के लिए हाथ नहीं मुट्ठी गर्म करने की ज़रूरत होती है. फिर चाहे ठंड कैसी भी हो. मेज़ के ऊपर रखा हीटर हथेली गर्म करता है और मेज़ के नीचे से नगद-नारायण मुट्ठी गर्म करते हैं. सर्दी में गर्मी का खेला. है न कमाल की बात!












दिल्ली में शास्त्री भवन, रेल भवन के आस-पास दोपहर लंच टाइम में कई खाने के ठेले लगते हैं. अभी कुछ कम हो गए हैं पर पहले कई सारे हुआ करते थे. इनमे से एक-दो ठेलों पर सिर्फ मूली मिला करती है. दूसरी जगहें पर भी जहां सरकारी दफ्तर हैं वहां लंच टाइम में बाहर इसी तरह का नज़ारा दिख जाता है. सरकारी दफ्तर इसलिये क्योंकि लंच टाइम के अधिकार का पूरा उपयोग यही लोग करते हैं. लंच टाइम ही क्यों, आधा घंटा पहले से आधा घंटा बाद भी माहौल वही रहता है. सही बात है काम का वज़न कम करने के लिए सरकारी नौकरी और शरीर का वज़न कम करने के लिए मूली. है न गजब जोड़ी!

ज़्यादा भटकते नहीं हैं क्योंकि मूली बुला रही है. छीलकर साफ करके और बीच से कट लगाकर उसमें चाट मसाला भरकर और नींबू का रस निचोड़कर जब आपके हाथ में आती है तो वह मूली नहीं रह जाती, एक लाजवाब व्यंजन बन जाती है. सुनहरी धूप हो और खुला मैदान तो मूली के ठेले पर सबसे अधिक भीड़ लग जाती है. लोग दो-दो खा जाते हैं वहीं खड़े-खड़े. कहते हैं जितना भी गरिष्ठ खाया है वह सब हज़म कर देगी मूली.

मूली के साइड इफेक्ट

जब मूली और मटर इस कदर खाया जाएगा तो इसके साइड-इफेक्ट्स भी होंगे ही. बस इशारा समझ लीजिये कि किसका ज़िक्र हो रहा है. बहुत घातक होता है मूली का असर. खाना कितना पचाती है यह तो नहीं कह सकता पर जब खुद पचती है तो आसपास सभी को हिला देती है. हम सभी के पास इसके किस्सों का भंडार है. सुनने-सुनाने का भी गजब मज़ा है क्योकि हंसी फव्वारे भी इसी से फूटते हैं. बात तो यह है कि मूली एक आदमी खाता है और उसके परिणाम पचीसों को बर्दाश्त करने पड़ते हैं. घर हो या बाहर मूली का प्रसाद बड़ा भयंकर होता है. घर में रजाई बहुत कुछ भीतर ही छुपा लेती है पर अगली सुबह जब रजाई उठाई जाती है तो बिस्तर उठाने वाला या वाली ईनाम के हकदार ज़रूर होते हैं. अब समझ में आता है कुछ लोग हर दूसरे-तीसरे रजाई को खुली हवा या फिर धूप में क्यों रखते हैं. इन दिनों डबल बेड की रजाई या कम्बल बहुत प्रचलित है. हर घर में मिल जाएगा. शाम को पूरा परिवार एक ही बड़ेे से कम्बल में घुसकर टीवी सीरीयल देखता है और मूंगफली खाता है. एक बड़ा कम्बल, कई सारे लोग. कल्पना कीजिये कितने बम चलते होंगे और आखिर में जो ओढ़ कर सोता होगा वो कितना बर्दाश्त करता होगा.

कभी आप ट्रेन में हो या फ्लाइट में और कोई मूली खाकर चढ़ जाए तो बस अपनी किस्मत ही मानिये कि सफर बिना किसी कष्ट के कट जाए. लेकिन ऐसा होता नहीं है. दिल्ली से चलने वाली शताब्दी ट्रेन में सफर करने वाले कई लोग तरह-तरह के किस्से बयान करते हैं ख़ासकर सर्दी के दिनों में. बहुत से यात्री शताब्दी के कोच को गैस चैंबर तक कह डालते रहैं.

एक बार एक बड़े से स्टोर में मैं भी कुछ ऐसे ही हादसे का शिकार बना. पता नहीं कौन था और कितने मूली के परांठे खाए थे, पर साइड इफेक्ट किसी एटम बम से कम न था. देखते-देखते लोगों के रूमाल जेब से निकल कर नाक पर चिपक गए. कोई इधर जा रहा है, तो कोई उधर. जिनके पास किस्मत से पर्फ्यूम की शीशी पर्स में थी उन्होंने तो झट से रूमाल पर छिड़क लिया और बेहतर ऑक्सीजन ले ली. बाकी सब पर तो तरस आ रहा था. मैं तो बेचारे कैशियर को देख रहा था जो कितने कष्ट से अपना काम कर रहा था क्योंकि उसकी मजबूरी थी कि अपनी सीट छोड़ नहीं सकता था. 

एक और आपबीती बतलाता हूं. बात पुरानी ज़रूर है लेकिन कभी भूलती नहीं. नई-नई नौकरी शुरू की थी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की एक न्यूज़ एजेंसी में था. काम करने के घंटे अधिक होते थे जिसकी वजह से अक्सर देर शाम ही घर वापस लौटना हो पाता था. ऑफिस गोल मार्केट में था. घर के लिए बस पकड़ने कनॉट प्लेस आना होता था जहां से उन दिनों नोएडा के लिए चार्रटर्ड बस चलती थी. बात सर्दी के दिनों की है. बस में बैठा और कुछ देर बात ऊंघने लगा. रोज़ की बात थी क्योंकि दिन भर के काम के बाद बहुत थक जाता था. बस खचाखच भरी थी. खिड़कियां बंद और दरवाज़ा भी बंद. एकदम सीलबंद थी बस. इतने में लगा ऑक्सीजन का रंग बदलने लगा है. बदलता रंग दिख तो नहीं सकता था, बस महसूस किया जा सकता था. धीरे-धीरे रंग गाढ़ा होता गया और सांस लेना दूभर होने लगा. इधर मेरी नींद भंग हुई और उधर बाकी पैसेंजर्स की तड़पन बढ़ी. एक साहब ने तो खिड़की खोल दी. अब मिली तड़पन की डबल डोज़. अंदर की ऑक्सीजन दूषित और बाहर से आने वाली बर्फ सी ठंडी. दोनों ही बर्दाश्त की सीमाओं से परे. नाक ढकें या मुंह कुछ समझ नहीं आ रहा था. एक अन्य  साहब ने ऊंची आवाज़ में बड़ा विनम्र निवेदन किया कि जिस किसी ने भी मूली का सेवन किया है कृपया स्वयम् ही उतर जाएं और बाकी के पचास-साठ मुसाफिरों को ठीक-ठाक पहुंचने में सहयोग करें. उन्होंने यहां तक कह दिया कि उन साहब का पूरा किराया वापस कर दिया जाएगा. अगले ही स्टॉप पर चंद लोग उतरे और गनीमत मानिये कि उसके बाद दोबारा खिड़की खोलने की नौबत नहीं आई. साफ हो गया कि उनमें से किसी ने मूली का भरपूर सेवन किया था. किराया किसी ने वापस मांगा नहीं लिहाज़ा पता भी नहीं चल सका किसने भरपेट मूली खाई थी. बचा सफर ठीक से कट गया लेकिन नींद फिर पूरे रास्ते नहीं आई. दो दशक से ज़्यादा बीत गए हैं पर पर इस घटना को भूल नहीं पाता हूं हालांकि अब इस तरह कि चार्टर्ड बसें चलना अब बंद हो गई हैं.  

रोज़-रोज़ नहीं नहाना
गर्मी में जहां एक दिन में दो बार नहाते थे अब दो दिन में भी एक बार नहा लें तो बड़ी बात. जाड़े में बदरी हो जाए और कोहरा घना हो तो बाथरूम का रास्ता कौन देखता है. शीत ऋतु ही कमात्र ऋतु है जो इस बात का ज्ञान देती है कि रोज़ नहाना कितना निरर्थक होता है. पूरी गर्मी दिन में दो-दो बार नहाकर कौन सा कीर्तिमान बना लिया. और सर्दी में बिन नहाए कौन सा गुनाह कर दिया. सब मन की बात है, आपकी सोच है और आपका ही अहसास है. कुछ लोग जो सर्दी में रोज़ नहाते हैं वो इसको कहीं न कहीं, किसी न किसी तरीके से जतला ज़रूर देते हैं. लर्दी में रोज़ नहाने वाले घर से ऐसे तैयार होकर निकलते हैं कि आप समझ जाएं कि वो नहाकर आए हैं. कुछ ऐसे प्राणी भी हैं जो इस बात का दंभ भरते हैं कि वो कुड़कुड़ाते जाड़े में भी ठंडे पानी से ही नहाते हैं. गजब का तर्क होता है भई इनका. कहते हैं के ठंडे पानी से नहाने के बाद ठंड का अहसास नहीं होता, बस पहली बौछार ही थोड़ी तकलीफ देती है. साहब हम तो न ही पहली बौछार में जाने की हिम्मत करते हैं और न ही पानी गर्म करने का कष्ट करते हैं. मुंह-हाथ धो लिया, क्रीम पाउडर रगड़ लिया, पर्फ्यूम छिड़क लिया और गर्म साफ कपड़े पहनकर निकल पड़ते हैं कुछ बहादुरों से निपटने के लिए. सब कुछ अंदर की बात है. मन प्रसन्न रहना चाहिए और हमारा मन तो बिना नहाए ज़्यादा प्रसन्न रहता है. बस फिर ठीक है हम किससे कम हुए.

अभी सर्दी पूरे शबाब पर है. कम होने के आसार कम ही लग रहे हैं. कहते हैं 14 जनवरी को मकर संक्रांति के बाद जब सूर्य उत्तरायन होता है तो ठंड कम होने लगती है. पिछले कुछ सालों से ऐसा अनुभव तो नहीं किया पर फिर भी सबकी बातों का सम्मान करते हैं और मन में सोच लेते हैं ठंड कम हो रही है.

टाइम पास का पूरा इंतज़ाम

सर्दी आई नहीं कि चाय की डिमांड रॉकेट की तरह बढ़ जाती है. हर घंटे-दो घंटे पर थोड़ी चाय. और जब हाथ में चाय का प्याला आ जाए तो कोई न कोई चर्चा छिड़ ही जाती है. फायदा यह होता है कि कुछ बातें बहुत विस्तार से डिसकस हो जाती हैं और सोल्यूशन भी निकल आता है. अनजान जगह पर अनजान लोगों के बीच चाय रिश्ता जोड़ने का काम करती है. कभी-कभार कुछ अच्छे रिश्ते भी इसी बहाने बन जाते हैं. ठंडे मौसम में गर्म चाय का कमाल!

सर्दी का मौसम है. शॉल से ढके आप रजाई में दुबके पड़े हैं. सामने टीवी पर फिल्म चल रही है. और इतने में एक पैकेट आता है मूंगफली का. वाह साहब, क्या कहने. फिल्म का मज़ा दूना हो गया. सिनेमा हॉल में जो आनंद पॉप कॉर्न नहीं दे पाता उससे कहीं ज़्यादा आनंद मूंगफली दे जाती है. छीलते जाइये, खाते जाइये और मसालेदार नमक या फिर हरी मिर्च की चटनी का साथ मिल जाए तो सोने पे सुहागा.

कुल मिलाकर कहिये तो सर्दी का पूरा आनंद लिया जा रहा है. कष्ट तो ज़रूर है पर सुख प्राप्ति के तरीके अनेक हैं. मेरे ख़्याल से!


July 29, 2022

प्रेमचंद की शख़्सियत



अपूर्व राय/ Apurva Rai

एक बार फिर 31 जुलाई आ गई है और इस साल उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की 142वीं जयंती मनाई जा रही है. जयंती का मौका है तो गोष्ठियां हो रही हैं, समारोह हो रहे हैं, उनकी रचनाओं का मंचन हो रहा है और कहीं कथागोई हो रही है.

एक ऐसे समय में जब शिक्षा का विस्तार न के बराबर था, स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई हज़ारों में एक को प्राप्त होती थी प्रेमचंद ने शिक्षा भी हासिल की और कलम का ऐसा जादू दिखाया कि दुनियावाले स्तब्ध रह गए. कायस्थ परिवार में जन्में प्रेमचंद को अगर कलम का जादूगर भी कहा जाए तो ग़लत न होगा.

मुंशी अजायबराय श्रीवास्तव और आनन्दी देवी के पुत्र धनपतराय श्रीवास्तव का जन्म 31 जुलाई, 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के समीप लमही ग्राम में हुआ था. यही धनपतराय आगे चलकर मुंशी प्रेमचंद के नाम से विश्वविख्यात हुए और उनका लेखन हर-दिल-अज़ीज़ बन गया, आज भी है और आने वाले लंबे दौर तक बना रहेगा.  आज भी कोई ऐसा शख़्स नहीं होगा जो यह कह दे कि उसने प्रेमचंद को नहीं पढ़ा है. बेशक खरीद कर न पढ़ा हो, दो-चार उपन्यास न पढ़े हों, अनेकों कहानियां न पढ़ी हों पर कुछ-न-कुछ तो स्कूली सिलेबस में ज़रूर पढ़ा है. यह बात दीगर है कि स्कूल के सिलेबस में पढ़कर पूरे में से पूरे नंबर ले आए किन्तु बाद में कभी अलग से और ज़्यादा पढ़ने की इच्छा न हुई हो. स्कूल की मजबूरी ही सही पर प्रेमचंद की कहानियों ने हम सबके दिलों को छुआ ज़रूर है. और ऐसा छुआ है कि तमाम उम्र उसे भुला पाना नामुमकिन है. यही वो बात है जो प्रेमचंद के प्रेमचंद बनाती है.

जब बात स्कूल की, सिलेबस की और शिक्षा की चल पड़ी है तो प्रेमचंद की शिक्षा का ज़िक्र करना भी ग़लत न होगा. उन्होंके उस ज़ाने में स्कूल और कॉलेज से डिग्री हासिल जब यह हर किसी की सोच तक से परे थी. उन्होंने 1898 में मैट्रिक (हाई स्कूल) पास किया और एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए. इसके बाद 1910 में उन्होंने अंग्रेज़ी, दर्शन (फिलॉसोफी), फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया. 1919 में उन्होंने बी.ए. की डिग्री हासिल की और शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हो गए.  यहां ग़ौर करने वाली बात यह है कि प्रेमचंद के मैट्रिक और इंटर करने के बीच में एक लंबा फासला है. इस फासले की वजह यह है कि उस ज़माने में इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए गणित अनिवार्य था जो उन्हें कतई पसंद न था. लिहाज़ा उन्होंने तब तक इंतज़ार किया जब तक गणित की अनिवार्यता खत्म न हो गई. इसके बाद उन्हें कौन रोक सकता था.

प्रेमचंद की लेखनी ही नहीं उनकी शिक्षा के प्रति लगन भी आज के छात्र-छात्राओं के लिए प्रेरणास्रोत है.  आज के दौर में कौन भला इंतज़ार की बात सोच सकता है. लेकिन प्रेमचंद के अंदर आगे पढ़ने की ऐसी ललक थी कि उन्होंने उस बाधा के हटने का लंबा इंतज़ार किया जो उनको आगे पढ़ने से रोक रही थी. जैसे ही बाधा हटी, रास्ता साफ हुआ और वो आगे बढ़ निकले. जिस इंसान में सही मायने में लगन होती है वो ऐसा ही होता है शायद. आज के आधुनिकता के दौर में इंतज़ार, सब्र जैसे गुण शायद विलुप्त हो गए हैं. आज का छात्र अव्वल रहना चाहता है लेकिन ऊंचे नंबरों के सहारे न कि सच्चे ज्ञान के ज़रिये. अब नंबर कैसे लाए जाएं, क्या पढ़कर लाए जाएं, कहां से पढ़कर लाए जाएं जैसी बातें अधिक महत्वपूर्ण हो गई हैं. आपकी निष्ठा नंबरों की इस दौड़ में कहीं खो गई है. आज तक कितने लोगों ने पूछा प्रेमचंद के नंबर कितने आते थे. उन्होंने अपने गांव, शहर या ज़िले में टॉप नहीं किया था. उनके डिग्री हासिल करने की ख़बर अखबारों में नहीं छपी थी. प्रेमचंद इसलिए नहीं जाने जाते कि उन्होंने कोई बड़ी परीक्षा उत्तीर्ण की थी. ऐसा भी नहीं है कि यह सब उस ज़माने में नहीं था. ज़रूर था, लेकिन प्रेमचंद का मकसद दौड़ लगाना नहीं था. सौ में सौ लाने वाले आज के छात्र प्रेमचंद की कहानी की बात तो करते हैं लेकिन सिलेबस में पढ़ी कहानी के अलावे दो कहानियां या उपन्यास भी नहीं गिना सकते, पढ़ने और समझने की बात तो दूर रही. उनकी लगन की तरफ इन बच्चों का ध्यान जाता ही नहीं. काश प्रेमचंद आज के छात्रों के लिए मेहनत और लगन की मिसाल बनते और कुछ बेहतर कर दिखाते बजाय उस दौड़ का हिस्सा बनने के जिसका कोई अंत नहीं और शायद कोई फलसफा भी नहीं. अपनी काबिलियत में इजाफा करना ही शिक्षा का असली मकसद होता है और डिग्रियां उसका ज़रिया. मेरे ख़्याल से.

पारिवारिक संघर्ष

प्रेमचंद अभी छोटे ही थे कि उनकी माता का देहांत हो गया और उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया. अजायबराय की दूसरी पत्नी ने भी एक पुत्र महताब राय को जन्म दिया. प्रेमचंद को परिवार में एक छोटे भाई का सुख प्राप्त हुआ. अभी परिवार चल ही रहा था कि कुछ वर्षों पश्चात अजायबराय चल बसे. परिवार के लिए कठिन समय आ गया. विमाता के बाद प्रेमचंद ही घर के ज्येष्ठ पुत्र थे और ज़िम्मेदारियां उनके कंधों पर आ पड़ीं. ऐसे कठिन समय में भी उन्होने अजब समझदारी, साहस और  परिपक्वता का परिचय दिया. कई लोग प्रेमचंद की विमाता की चर्चा ज़रूर करते हैं पर किसी ने भी कभी पारिवारिक वैमनस्य, कटुता या इख़्तिलाफ की बात नहीं की. और अगर की तो यह सरासर ग़लत होगा. 

कम ही लोग जानते हैं प्रेमचंद और उनके अनुज महताब राय, जिन्हें वो छोटक कहकर पुकारते थे, के रिश्तों के बारे में. दोनों भाइयों में उम्र का बड़ा फासला था लेकिन फासले भी कभी नज़दीकियां पैदा कर देते हैं. बड़े होने के नाते उनका प्रेम छोटे भाई पर सदा बना रहा. महताब खुद मेधावी थे और उस ज़माने में प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी की शिक्षा कलकत्ते से हासिल की थी. बड़े होने के ही नाते प्रेमचंद को अपने अनुज का आदर और सम्मान ताउम्र मिलता रहा जिसके वो हक़दार थे. जीते जी ही क्यों मरणोपरांत भी छोटक ने वो किया जो भाई प्रेम की मिसाल है और सदा रहेगी. प्रेमचंद की मृत्यु के पश्चात भारत सरकार की तरफ से तत्कालीन राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद ने लमही गांव में स्मारक बनाने की इच्छा ज़ाहिर की. समस्या तब उत्पन्न हुई जब कुर्मियों के बहुल्य वाले गांव में किसी ने भी एक कायस्थ के लिए ज़मीन देने से इंकार कर दिया. महामहिम की मुलाकात महताब से हुई. ऐसे समय में छोटे भाई ने वो फैसला लिया जो आज के ज़माने में कोई सोचने मात्र से सिहर जाता. महताब ने अपना घर, जो प्रेमचंद निवास से सटा हुआ था और अंदर-ही-अंदर जुड़ा भी था, सरकार को पेश कर दिया. इतना ही नहीं छोटे भाई ने सके बदले एक रुपया भी मुआवज़े के तौर पर स्वीकार नहीं किया. वो कर भी नहीं सकते थे क्योंकि परिवार की प्रतिष्ठा और बड़े भाई के प्रेम से बड़ा और क्या हो सकता है !

आज लमही में जो प्रेमचंद का स्मारक हम सब देखते हैं वह एक ज़माने में महताब राय का घर हुआ करता था. घर देने के बाद महताब राय अपनी पत्नी, नौ बच्चों और माता के साथ वाराणसी शहर में किराए के एक घर में रहने लगे. किस्मत की बात देखिये कि वह दोबारा अपना घर नहीं बना पाए और शहर के जगतगंज इलाके के उस किराए के घर में ही उनका निधन हुआ. इसे ईश्वर का वरदान ही कहेंगे कि महताब राय कि सभी संतानों ने उच्च शिक्षा हासिल की और जीवन में अपने माता-पिता का नाम रोशन करने के साथ ही परिवार की प्रतिष्ठा को चार-चांद लगाए. जिन नौ संतानों के पिता ने अपना घर भाई के स्मारक के लिए सरकार के हवाले कर दिया और सारी उम्र किराए के घर में गुज़ार दी उन सभी संतानों में से कोई ऐसा नहीं रहा जिसने अपना घर न बनवाया हो. ऐसा तभी मुमकिन है जब ईश्वर की कृपा हो, पिता प्रतापी हो और संताने मेहनतकश. मैं उनके तीसरे पुत्र विनय कुमार राय का पुत्र हूं. मेरे पिता का जन्म भी लमही गांव में हुआ, प्रारंभिक शिक्षा सारनाथ और वाराणसी के मशहूर क्वींस कॉलेज और उच्च शिक्षा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से हुई. यह भी इत्तेफाक की बात है कि जब विनय बीएचयू में पढ़ रहे थे तब भारत के राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन उसके वाइस चांसलर थे और उनके गुरू भी. कई जगहों पर काम करते हुए वो दिल्ली आ बसे और वहीं नोएडा में अपने आवास का निर्माण कर जीवन के आखिरी पल बिताए.

उधर ऐसा नहीं था कि प्रेमचंद ने बहुत रुपया कमाया. वो खुद आजीवन आर्थिक संघर्ष करते रहे और यह बात सर्वविदित है कि उनका निधन अच्छा इलाज न मिलने के कारण हुआ. अगर उन्हें किसी अच्छे शहर के बड़े डॉक्टर का इलाज मिल जाता तो शायद वो कुछ वर्ष और साहित्य की सेवा कर पाते और वो सब काम पूरा कर पाते जिन्हें वो अधूरा छोड़ गए.  प्रेमचंद का जब निधन हुआ तो उनके पास भी बैंक बैलेंस नाम की कोई चीज़ नहीं थी. लेकिन इसे उनका प्रताप और प्रभु का आशीर्वाद ही कहेंगे  कि उनकी तीन संतानों ने अपने पिता का नाम खूब रोशन किया. उनके दोनों पुत्र श्रीपत राय और अमृत राय योग्य पिता की योग्य संतान कहलाए और हिंदी साहित्य की वो ख़िदमत की जो फ़कीद-उल-मिसाल है.

महज़ प्रेमचंद का जीवन ही संघर्षमय नहीं रहा बल्कि पूरा परिवार ही इससे जूझता रहा. सफलताएं मिलीं पर इसमें एक पीढ़ी चली गई. आज जब हम प्रेमचंद की बात करते हैं, उनके लेखन की बात करते हैं, उनके संघर्षों की बात करते हैं तो ऐसे में हम उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते.

थोड़ा हटकर है लेकिन यह कहना अनुचित भी नहीं कि प्रेमचंद के पुत्र श्रीपत और महताब राय के पुत्र और  मेरे पिता विनय कुमार राय दोनों ही दिल्ली में आ बसे थे. दोनों भाइयों में उम्र का बड़ा फासला था; श्रीपत मेरे पिता से काफी बड़े थे. तीन दशकों से अधिक दोनों का साथ रहा और मेरी स्मृति में कोई महीना ऐसा नहीं गुज़रा जब दोनों एक-दो बार आपस में न मिलते रहे हों, दोनों के बीच लिहाज़, आदर, फिक्र और स्नेह में कभी कोई कमी आई हो या फिर दोनों ने साथ बैठकर घंटों एकांत में गप्प न की हो. आज जबकि दो सगे भाई एक-दूसरे से नहीं मिलते ऐसे में भ्राता प्रेम की मधुर यादें और तमाम बातें मेरे दिमाग में ताज़ा-तरीन हैं.

आज संपूर्ण प्रेमचंद परिवार खुशहाल और यशस्वी परिवार है और यही बात सीखने की है. आज के नए दौर में जब बात डिग्री ख़त्म होने से पहले नौकरी मिलने और सालाना पैकेज की होती है तो कुछ अजीब सा लगता है. आज जब लोग अपना ही ख़र्च उठाने में दिक्कत महसूस करते हैं तो कुछ अजीब सा लगता है. आज जब लोग माता-पिता की ज़िम्मेदारी, भाई-बहन के खर्च को बोझ कहने लगते हैं तो कुछ अजीब सा लगता है. ज़रूरत महज़ प्रेमचंद की किताबों को पढ़ने की नहीं है बल्कि उस शख्सियत के जीवन को भी पढ़ने की है जो हमें बहुत कुछ प्रेरणा और शिक्षा दे जाता है. मेरे ख़्याल से.

जीवन की सादगी

पिछले कुछ समय से प्रेमचंद की एक तस्वीर बहुत चर्चा में है जिसमें वो अपनी पत्नी शिवरानी देवी के साथ एक कुर्सी पर बैठे हुए हैं. तस्वीर को चर्चा में आने की वजह प्रेमचंद के फटे जूते हैं जिसमें से शायद उनके पैर की उंगलियां बाहर आ रही हैं. यह तस्वीर मुझे भी कई जगहों से प्राप्त हुई. अब समझ में नहीं आ रहा कि क्या कहूं. मैंने किसी को जवाब तो नहीं दिया पर मन में सोचा ज़रूर कि लोग सोशल मीडिया के ज़रिये तस्वीर एक-दूसरे को भेजकर आखिर कहना क्या चाहते हैं. अजीब से लगता है जब फटे जूते पहनने वाले प्रेमचंद की तस्वीर शेयर करने के बाद खुद महंगे जूते पहनकर बाज़ार में निकल जाते हैं. 

मैंने इस तस्वीर में प्रेमचंद के जूतों के अलावे और भी बहुत कुछ देखा. इस तस्वीर को दोबारा देखिए और आप पाएंगे कि जिस कुर्सी पर वो महान कथाकार बैठा है क्या आप वैसी कुर्सी पर बैठना पसंद करेंगे? बैठना तो दूर शायद आप ऐसी कुर्सी अपने घर पर रखना भी पसंद न करें. इतना ही नहीं, आप उनके और उनकी पत्नी के वस्त्रों को भी देखिए. एकदम साधारण सूती धोती-कुर्ता है दोनों की देह पर. आज के दौर में इतने साधारण वस्त्र कौन धारण करता है. ज़माना तो ऐसा आ गया है कि काम जैसा भी हो वस्त्र बेहतरीन होने चाहिएं. आप उस कमरे को भी देखिए जिसमें दोनों बैठे हैं. निहायत साधारण चार दीवारें हैं, और पीछे का दरवाज़ा ऐसा कि कोई पसंद भी न करे. आज हम शानदार कमरों में बैठते हैं, महंगे पर्दे लगवाते हैं, महंगा फर्नीचर रखते हैं, महंगी कालीन डलवाते हैं, एयरकंडिशनर के बिना गर्मी में बेचैन हो जाते हैं और न जाने क्या-क्या. पर इन सबके बावजूद हममें से कितने लोग जीवन में एक काम भी ऐसा कर जाते हैं जो दूसरों के लिए मिसाल बने? अजीब सा लगता है !

दुनिया में सबने प्रेमचंद के फटे जूते तो देखे पर कितनों ने उनके चेहरे को ग़ौर से देखा. अब देखिये और महसूस कीजिये उनके चेहरे पर झलकता सुकून, ललाट पर छाई प्रतिभा और होठों पर न रुकने वाली मुस्कान. इतना ही नहीं उनके माथे पर कहीं शिकन या तनी हुई भवें दिखाई पड़ती हैं? कतई नहीं. मुफलिसी और सादगी में भी कितना खुश है वो इंसान. लेखनी के अलावा यही वो ख़ुसूसियत है जो प्रेमचंद को असाधारण होने का दर्जा प्रदान करती है.

महसूस तो यही होता है कि प्रेमचंद की सादगी का पाठ पढ़ने में लोगों से कहीं चूक हो गई. सादगी दिखावे की चीज़ नहीं है और न ही दूसरों को नसीहत देने की. सादगी वो भी नहीं कि आप निभाने की उम्मीद तो किसी और से रखें और खुद दिखावे की दौड़ में शामिल हों. सादगी एक जीवन का दर्शन है, एक दिनचर्या है जो वही अपना सकता है जो मेहनत, सब्र, त्याग और ज़िम्मेदारी निभाने में यकीन रखता है. प्रेमचंद का जीवन सादगी, संस्कार और परंपरा की एक बेहतरीन मिसाल है. काश आज की पीढ़ी भी इससे सबक ले पाती. मेरे ख़्याल से. 

मैं इसे अपनी खुशकिस्मती मानता हूं कि मेरा जन्म ऐसी महान शख़्सियत के कुन्बे में हुआ. यह भी मेरी खुशनसीबी है कि मेरे पूर्वज न सिर्फ मेहनतकश और काबिल थे बल्कि संस्कारों के भी धनी थे. मुझे इस बात पर फक्र है कि मैंने विरासत में ऐसे गुण पाए हैं जो मुझे आडंबर से जुदा रखते हैं, सादगी में यकीन दिलाते हैं, आदर, सम्मान और त्याग की भावनाओं की कद्र करना सिखाते हैं. तो आप अगली मर्तबा जब भी प्रेमचंद की तस्वीर देखें तो उनके जूतों को ही न देखें, आप उनके चेहरे को भी देखें जहां आप तसल्ली का भाव पाएंगे, उनके ललाट को देखें जहां तेज़ दमकता होगा, उनके माथे को देखें जहां शिकन नदारद मिलेगी और उनके होठों को देखें जो हर हाल में मुस्कुराते रहने का पैगाम देते हैं. 

ऐसी महान शख़्सियत को मेरी श्रद्धांजलि.

 


April 08, 2022

दूसरी बार, फिर योगी सरकार



By APURVA RAI / अपूर्व राय

यूं तो हमारे देश में बहुत से मेले लगते रहते हैं पर इन सब में सबसे ख़ास है चुनावी मेला. हर पांच साल में होने वाला संसद का चुनाव तो अहम होता ही है पर इन पांच सालों के बीच में भी अनेक राज्यों की विधान सभाओं का चुनाव देखने को मिल जाता है. मतलब यह कि चुनाव का सिलसिला थमता नहीं. और जब हर साल चुनाव होंगे तो नेता और जनता दोनों ही व्यस्त हो जाएंगे— नेता ता भाषणों में और जनता आपस की बहस में.

जब बात विधान सभा चुनावों की हो तो कुछ कुछ राज्यों पर ध्यान ज़्यादा जाता है. ऐसा शायद दे वजहें से होता है. पहला इसलिये कि कुछ राज्य हम सब पर कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में असर डालते हैं. दूसरा यह कि कुछ राज्यों के नेता चर्चा में ज़्यादा रहते हैं जिससे उन पर, उनकी पार्टी पर और उनके  राज्य पर नज़र बनी ही रहती है. उत्तर प्रदेश भी ऐसे ही राज्यों में से एक है जिसे चाहकर भी कोई नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता.

उत्तर प्रदेश में इस साल फरवरी में चुनाव हुए और मार्च में नतीजे आए. चुनावी परिणाम कुछ के लिए खुशियां लेकर आए तो कुछ के सपने चकनाचूर कर दिए. चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की अभूतपूर्व जीत हुई और पिछले पांच साल से मुख्यमंत्री रहे योगी आदित्यनाथ ने एक बार फिर से सत्ता की कमान संभाल ली.

सहज नहीं है डगर

चुनाव में लगातार दूसरी जीत बीजेपी के लिए खुशियां तो लेकर आई ही है लेकिन साथ ही सबक का विषय भी है. पार्टी को इस साल 273 सीटें ज़रूर मिलीं पर 2017 के चुनावों के मुकाबले 50 सीटें कम प्राप्त हुईं. इसके अलावा कुछ मुस्लिम बाहुल्य इलाकों जैसे आज़मगढ़, रामपुर, शामली में बीजेपी को एक भी सीट नहीं मिली. मतलब साफ है कि समाज के सभ लोग सरकार के साथ नहीं हैं और पार्टी को बहुतों का दिल जीतना अभी बाकी है. 

यूपी में बीजेपी का दोबारा से सत्ता में आने और योगी आदित्यनाथ के फिर से मुख्यमंत्री बनने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें जनता का पूरा समर्थन प्राप्त हुआ है. इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि विरोधी पक्ष इतना मज़बूत नहीं था कि सबका दिल जीत सके. अगर यह कहें कि बीजेपी को कमज़ोर विपक्ष का फायदा मिला तो यह गलत नहीं होगा.

चुनाव में जीत के दो मतलब हैं— एक तो यह कि जनता ने आप पर जो भरोसा दोहराया है जिसे कायम रखना ज़रूरी है. दूसरा यह कि आप अपने वादों और ज़िम्मेदारियों को पहले से अधिक निष्ठा से पूरा करेंगे. कहते हैं कि सत्ता का अलग ही सुख होता है जो आपको रास्ते से भटकाने के लिए काफी है. लेकिन वही सत्ताधारी सफल होता है जो सत्ता के मद से दूर रहकर अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता देता है. 

योगी 2.0 का लक्ष्य साफ है कि उसे पहले से ज़्यादा मेहनत करनी है क्योंकि जनता की उम्मीदें काफी हैं और विपक्ष आगे के लिए चौकन्ना है.

उत्तर प्रदेश में बनी नई-नवेली सरकार को ढेरों चुनौतियों के बीच काम करना होगा और अगले पांच सालों में ठोस नतीजे सामने रखने ही होंगे. वैसे भी बीजेपी और सीएम योगीनाथ अपने हिंदुत्व एजेंडा के लिए अधिक जाने जाते हैं. पर इस सत्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि हिंदू या फिर धर्म की राजनीति आपको बहुत दूर तक नहीं ले जाती. और ऐसा होना भी नहीं चाहिए. धर्म निर्पेक्ष देश में सरकार का काम सभी धर्नों का सम्मान करना है और सभी को समान अवसार प्रदान करना उसका दायित्व बनता है. सरकार वही सफल होती है जो अपनी नीतियों से लोगों में भाईचारे को बढ़ावा दे न कि मज़हब के आधार पर लोगों के बीच दूरियां बढ़ाए.  

धर्म की राजनीति बीजेपी के दामन में सबसे बड़ा दाग है जिसे, मेरे ख्याल से, दूर करना उसकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. मज़हबी फासलों के कम करके अगर सरकार जातिवाद को ख़त्म करने की दिशा में कुछ कदम उठाती है तो बहुत से लोग इसका स्वागत करेंगे. मेरे ख़्याल से. 

क्या करें, कैसे करें

अब जबकि योगी सरकार 2.0 सत्ता में आ चुकी है और काम भी शुरू कर दिया है तो, मेरे ख़्याल से, उसे कुछ मुद्दों पर अधिक ध्यान देना होगा.

सबसे पहले तो ज़रूरी है सरकारी कर्मचारियों में काम के प्रति सजगता. लोग अक्सर कह देते हैं कि सरकारी नौकरी कर लो उसके बाद तो मौज है. हालांकि सरकारी सेवा में कार्यरत लोग इस पर विरोध करंगे पर काफी हद तक ऐसी धारणा सत्य है. सरकार को इस दृष्टिकोण को पूरे तरीके से बदलना होगा. वैसे कुछ विभाग ऐसे हैं जहां काम में कोतीही नहीं होती लेकिन इसके बावजूद ऐसे बहुत से दफ्तर हैं जहां मनमर्ज़ी चलती है.

जब भी कोई नई सरकार बनती है तो मंत्री लोग अफ्सरों और दूसरे कर्मचारियों को सही वक्त पर ड्यूटी पर आने और काम को ज़िम्मेदारी से करने की हिदायत जारी कर देते हैं. पहली बात कि ऐसा होता ही क्यों है. दूसरा ये कि कुछ दिन तो ठीक-ठाक चलता है पर उसके बाद फिर वही सब. दरअसल, अगर मंत्री खुद भी दफ्तर में अधिक समय दें और काम का ठीक से निरीक्षण करें तो बहुत कुछ अपने-आप ही दुरुस्त हो जाएगा. इसके लिए मंत्रियों को चुनावी रैलियों और अन्य तरह के गैर-ज़रूरी दौरों से बचने की ज़रूरत है. ज़ाहिर बाद है कि 'वर्क कल्चर' ऊपर से नीचे की तरफ प्रवाहित होता है.

विकास का मुद्दा

अब जबकि योगी सरकार 2.0 सत्ता में आ चुकी है और काम भी शुरू कर दिया है तो, मेरे ख़्याल से, उसे कुछ मुद्दों पर अधिक ध्यान देना होगा.

इन दिनों विकास की बात करना पार्टियों और नेताओं के लिए आम बात हो गई है पर कोई भी विकास की स्पष्ट रूपरेखा नहीं खींचता. सही मायनों में विकास तभी हो सकता है जब दूरगामी परियोजनाएं बनें जिनसे जन साधारण का जीवल सहज हो और रहन-सहन का स्तर बेहतर हो सके. 


विकास को लेकर ही पार्टियों में आपसी खींचतान भी बहुत देखने को मिलती है. एक दल अपने कामों को गिनाएगा और दूसरा दल अपने कामों को. यह मैंने किया- तूने क्या किया का रवैया खत्म करने की ज़रूरत है और परियोजनाओं को दलगत राजनीति से अलग करके राज्य की परियोजनाओं को रूप में देखा जाना आवश्यक है. मेरे ख़्याल से सरकार किसी भी पार्टी की हो उद्देश्य जन कल्याण ही होता है, चाहे किसी भी नाम से हो या किसी भी रूप में हो. फिर मेरा नाम-तेरा नाम की रीजनति क्यों? ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि विकास से जुड़ी योजनाएं सरकार बनाए और उनको लागू करने का कार्य एक स्वतंत्र कमेटी देखे जिसके सामने कार्य को पूरा करने का लक्ष्य हो भले ही इस बीच सरकार क्यों न बदल जाए.

आखिर जन-कल्याण से जुड़े मुद्दे क्या हैं—मेडिकल सुविधा, शिक्षा, कृषि, उद्योग, व्यापार, रोज़गार, यातायात आदि. अब तक बनी सभी सरकारें इन्हीं मुद्दों पर काम करती आई हैं परंतु फिर संतोषजनक नतीजे नहीं मिले हैं. मतलब साफ है कि कहीं न कहीं इच्छा शक्ति और काम करने के तरीके में कमी होगी. मूल विषय वही रहते हैं लेकिन अगर काम के प्रति रवैया बदला जाए तो वेहतर परिणाम हासिल किए जा सकते हैं. 

अगर राजनीतिक इच्छा शक्ति है और काम के प्रति गंभीरता है तो पांच साल का वक्त कम नहीं होता किसी काम को मुकम्मल अंजाम देने के लिए. फिर क्यों न इन्ही कार्यों को थोड़ा बहतर तरीके से किया जाए जिससे मनचाहे परिणाम मिलें और खुद को संतोष व जनता को खुशी प्राप्त हो.

शिक्षा: हम सबका भविष्य इसी बात पर निर्भर करता है कि आने लाली पीढ़ी कितनी काबिल है और कितनी सजग है. इसके लिए सशक्त, मज़बूत और आधुनिक शिक्षा प्रणाली सबसे ज़रूरी है. हम लोग अपने बच्चों को कॉन्वेंट और पब्लिक स्कूल में पढ़ाना पसंद करते हैं. हम लोगों में नेता, मंत्री और सरकारी पदाधिकारी भी शामिल हैं. आखिर हम अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में क्यों नहीं भेजना चाहते. ज़ाहिर है कि इन स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई का स्तर वो नहीं है जो हम अपने बच्चों को देना चाहते हैं. सरकारी स्कूलों के मुकाबले प्राइवेट स्कूल बहुत महंगे हैं लोकिन फिर भई वहां दाखिले की होड़ लगी रहती है.

सरकारी स्कूलों में सुधार की बात हर बार होती है पर कुछ होता नहीं. तो क्यों न सरकार तय करे कि हर साल हर ज़िले के दो स्कूलों को इस स्तर पर पहुंचाएगी कि वो प्राइवेट स्कूलों को टक्कर देंगे. शुरुआत भले ही छोटी हो लेकिन असरदार होनी चाहिए.

इसके अलावा पांच सालों के अंदर कम से कम चार विश्वविद्यालयों को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने की दिशा में काम हो. इनका स्तर ऐसा किया जाए कि देश के दूसरे भाग से बच्चे दाखिला लेने यहां आएं.

शिक्षण संस्थानों में सुधार के लिए पहले दिन से ही एक्सपर्ट/ मॉनिटरिंग कमेटी का गठन किया जाए जिससे मनचाहे नतीजे मिल सकें और विषेशज्ञों के अनुभव का लाभ भी मिल सके. 

पांच साल, पांच ज़िले: विकास की गति को आगे बढ़ाने के लिए सरकार प्रदेश के पांच सबसे विकसित और पांच सबसे पिछड़े ज़िलों को सर्वप्रथम चिन्हित करे. लक्ष्य हो कि पांच सालों में सबसे विकसित ज़िले अथवा शहर राष्ट्रीय स्तर के बनए जाएं जहां आधुनिकीकरण की कोई कसर न छूटे. सरकार को जीवन स्तर के कुछ पैमाने तय करने होंगे और एक-एक करके इन पांच ज़िलों का स्तर ऊपर लाना होगा. काम ऐसा होलकि लोग खुद महसूस करें न कि नेताओं को काम गिनाना पड़े.

इसके अलावा पांच सबसे पिछड़े ज़िलों का स्तर ऐसा कर दिया जाए कि लोग गर्व कर सकें कि हम वहां के निवासी हैं और हमें किसी चीज़ की कमी नहीं है. इन ज़िलों में बेहतर तरीके सा काम करने वाला अस्पताल, बस अड्डा, रेलवे स्टेशन, बज़ार, अच्छे स्कूल-कॉलेज, बैंक, पुलिस व्यवस्था आदि हों जिनसे किसी व्यक्ति का रोज़मर्रा का जीवन सरल बनता है. 

प्रशासन अगर चाह ले तो पांच सालों मं यह कार्य नामुनकिन नहीं. 

पर्यटन वाले शहर: परिवार के साथ घूमने जाना अब एक आम बात हो चली है. खुशकिस्मती की बात यह है कि उत्तर प्रदेश में पर्यटन की ढेर सारी संभावनाएं हैं. सरकारो चाहिये कि पांच सालों में कम से कम दस ऐसे शहरों में अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं मुहैया करवाए जो पर्यटन की द्रष्टि से महत्पवूर्ण हैं. इन शहरों में पर्यटन वाली जगहों का अच्छा रख-रखाव हो, अच्छे होटल हों, सुगम यातायात हो, शॉपिंग के लिए अनूठी दुकानें और मार्केट बने, बैंक, नृत्य/संगीत और खाने-पीने की बढ़िया व्यवस्था हो. शहरों की ख़ासियत के अनुसार पर्यटन के नए-नए तरीके अपनाकर घुमक्कड़ों को आकर्षित किया जा सकता है.

घूमने आने वाले लोगों को महसूस होना चाहिये कि उन्होंने जो भी खर्च किया है वह बेकार नहीं गया. बढ़िया और विकसित पर्यटन न केवल रोज़गार उत्पन्न करता है बल्कि सरकार के लिए बड़े राजस्व का ज़रिया भी होता है, यह बात नहीं भूलनी चाहिए. 

मेडिकल व्यवस्था: पिछले दो सालों से कोविड के आतंक ने एक बात साफ कर दी है कि सरकार चाहे किसी बने, मुख्यमंत्री चाहे कोई हो बीमारी से कोई अछूता नहीं. कोविड ने साबित कर दिया कि हमारी चिकित्सा व्यवस्था में कितनी खामियां हैं. प्रशासन के लिए सबसे बड़ा सबक यही है कि राज्य में उत्तम मेडिकल सेवा सुनिश्चित करे. अब वो वक्त नहीं कि सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें कर दीं, बजट पास कर दिया और रुपए डकार गए. 

सरकारी अस्पतालों की क्या स्थिति है यह कहने की ज़रूरत नहीं. ओपीडी के बाहर लाइन लगी है, हज़ारों मरीज़ों के बीच डॉक्टर बेचारा उलझा है, लोग टेस्ट कराने इधर से उधर भटक रहे हैं, संगीन बीमारियों के लिए पचास दिक्कतें, सिफारिश और पहुंच वालों के लिए सेवाएं और आम आदमी के लिए धक्का-मुक्की वगैरह-वगैरह. उधर प्राइवेट अस्पतालों की अपनी ही कहानी है. इधर मरीज़ भर्ती हुआ उधर कैश डिपॉज़ट भी शुरू. प्राइवेट अस्पताल सुविधा के नाम पर जिस तरह से रुपया वसूलते हैं कि दिल मुंह को आ जाता है. इनके लिए इलाज और मुनाफा पर्याय हैं और इसके लिए निजी अस्पताल क्या कुछ नहीं कर गुज़रते.

पांच साल में सरकार इतना तो कर ही सकती है कि प्रदेश के दो मौजूदा बड़े सरकारी अस्पतालों को इस स्तर पर ला खड़ा करे कि किसी को भी इलाज के लिए दिल्ली/ मुंबई का रुख न करना पड़े. इसके अलावा चुनिंदा ज़िला अस्पतालों को भी इस स्तर का बनाया जा सकता है कि आसपास के लोग अच्छा इलाज प्राप्त कर सकें. इस कार्य के लिए कुछ मेडिकल मैनेजर्स की टीम बनाकर सुगमता से किया जा सकता है. अब वक्त आ गया है कि हर क्षेत्र में प्रोफेशनल मैनेजमेंट दिखाई पड़ना चाहिए. 

व्यापारिक इंटरचेंज: उत्तर प्रदेश एक बड़ा राज्य है. बहुत सा औद्योगिक और कृषि उत्पाद रेल और सड़क मार्ग के ज़रिये एक जगह से दूसरी जगह जाता है. ज़ाहिर है सफर लंबा होता है, समय लगता है, खर्च आता है और माल ले जाने और लाने वाले श्रमिकों के लिए थकान भरा भी होता है.

मेरे ख़्याल से एक ऐसा तरीका क्यों न निकाला जाए कि सामान की आवाजाही आसान हो जाए, खर्च भी कुछ कम हो और श्रमिकों की थकान भी घटे. पूरे प्रदेश को व्यापारिक दृष्टि से तीन हिस्सों में बांट सकते हैं— पूर्वी, मध्य और पश्चिमी उत्तर प्रदेश. इसमें मध्य उत्तर प्रदेश इंटरचेंज का काम करेगा जहां ट्रक और ट्रेन दोनों की ही सुविधा उपलब्ध होगी. अगर किसी को अपना सामान पश्चिम यूपी से सुदूर पूर्व भेजना है तो वह अपना ट्रक इंटरचेंज तक ही भेजे जहां से पूर्व की ओर जाने वाले वाहन उसे गंतव्य तक पहुंचा देंगे. इंटरचेज से वही ट्रक ज़रूरत का दूसरा सामान लेकर पश्चिमी भाग की ओर वापस आ जाएगा.

इस काम को कई ट्रांसपोर्ट कंपनियां अंजाम दे सकती हैं. ज़ाहिर है कि जब श्रमिकों को थकान कम होगी तो सड़क हादसों में भी कमी आएगी. 

उर्जा के स्रोत: आज के  मय में बिजली की खपत कई गुना बढ़ गई है. इन दिनों हम कल्पना भी नहींकर सकते कि दिन भर या रात भर बिजली गुल रहे. सरकार के सामने एक बड़ा कार्य है कि वह ऊर्जा के अन्य स्रोतों पर विशेष ध्यान दे. इसके लिए सौर ऊर्जा उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के लिए सबसे उपयुक्त माध्यम हो सकती है. गांवों में जहां खुले मैदान हैं, छोटे शहरों   जहां छोटे मकान हैं वहां घर-घर सोलर पैनल का प्रसार किया जाना चाहिए. ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों में सोलर पैनल की अनेकों एजेंसिया खोलने पर ज़ोर हो और इससे जुड़ी जानकारी बड़े पैमाने पर उपवब्ध कराना योगी 2.0 का प्राथमिक लक्ष्य होना चाहिए. सरकार सोलर पैनल के निर्माण को लिए भी उद्योग को बढ़ावा दे जिससे ये जन-जन तक पहुंच सकें. 

खेल और खिलाड़ियों को बढ़ावा: सरकार में स्पोर्ट्स का अलग ही मंत्रालय होता है. प्रदेश में कई स्टोडियम भी हैं. सरकार स्पोर्ट्स के नाम पर ढेरों रुपया भी खर्चती है. पर इन सबके बावजूद खेलों में हमारा वो स्तर नहीं जो हम चाहते हैं. जो सफल खिलाड़ी हैं वो अपनी व्यवस्था करके बड़ी स्पर्धाओं में हिस्सा लेते हैं पर मझोले और छोटे खिलाड़ी ऐसा नहीं कर पाने और पूछे रह जाते हैं. टैलेंट की कमी नहीं है पर उसे सही दिशा दिखाने और सही राह पर ले जाने वाली व्यवस्था की कमी है. सरकार को तय करना होगा कि कौन से खेल प्रदेश में विकसित हैं, कौन से खिलाड़ी इनमें आगे हैं और उन्हें किस तरह की ट्रेनिंग की ज़रूरत है. अगर उचित दिशा में प्रयास किया जाए और लक्ष्य बहनाकर आगे बढ़ें तो ऐसा नहीं कि पांच सालों में पांच ऐसे खिलाड़ी प्रदेश से नहीं निकल सकते जो देश का नाम रोशन करने में किसी से कम हों.

मुद्दे और भी हैं जैसे सुरक्षा-व्यवस्था, महिलाओं का सम्मान, खेती और उद्योग को निरंतर बढ़ावा जिससे उत्पादन और व्यापार में वृद्धि हो, घूसखोरी में कमी आदि.

वैसे प्रशासनिक दिक्कतें, बजट, नकारात्मकता हमारे काम में बाधा पहुंचाती हैं पर सरकार को यह निश्चय करना होगा कि उसके सामने कुछ लक्ष्य हैं जिन्हे हर हाल में प्राप्त करना ही है. काम किया जाए तो पांच वर्ष का समय कम नहीं होता. और काम करने चलो तो पांच वर्ष कब बीत गए पता भी नहीं चलता.

इसलिये बेहतर होगा कि योगी 2.0 को जो मौका मिला है वह किसी भी तरह से व्यर्थ न जाए. सरकार अगर प्रोफेशनल तरीके से काम करती है तो बेहतर नतीजे पाना मुश्किल नहीं होगा. और अगर ऐसा हो गया तो योगी 3.0 भी असंभव नहीं.

वरना... मेरे ख़्याल से, आप खुद अंदाज़ा लगा सकते हैं !