August 06, 2016

बरसात की वो शाम और मेरा व्याकुल मन!



अपूर्व राय

गर्मी की तपती दुपहरी में आसमान की तरफ ताकते हुए मन में एक ही सवाल कौंधा-- उफ, कब इस नीले गगन पर कारे बदरा छाएंगे और कब आकाश से बरसती बूंदें तन-मन की अग्नि को शीतलता प्रदान करेंगी.

ऐसा नहीं है कि मेरा मन ग्रीष्म ऋतु से नाराज़ था लेकिन फिर भी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी. यह मनुष्य का स्वभाव है कि जैसे- जैसे समय नज़दीक आता जाता है मन की व्याकुलता बढ़ने लगती है और इंतज़ार की घड़ियां काटे नहीं कटतीं. मेरा मतलब है कि गर्मियां खत्म होने को थीं और हर दिन, हर पल वर्षा ऋतु का इंतज़ार था... जाने कब सावन बरसेगा, आसमान से बरसती बूंदें धरती की प्यास बुझाएंगी, कब मट्टी की खुशबू मेरी नाक तक पहुंचेगी, पेड़ों के मुरझाए पत्ते फिर से हरे होकर हवा के तेज़ झोंकों से झूमेंगे, कब आसमान में टिटहरी हल्ला मचाएगी और ज़मीन में मेंढक टर्राएंगे, कब सरसों के तेल में तले पकौड़े कढ़ाई से निकलेंगे और चाय की गर्म प्याली के साथ मिलकर महीनों की भूख मिटाएंगे और कब कजरी- सावनी के गीत कानों के रास्ते घुसकर आत्मा को शांति देंगे.

कुछ दिनों के सब्र और इंतज़ार के बाद आखिर मॉनसून ने दस्तक दे ही दी. उमड़-घुमड़ कर बादल आने लगे, कारी बदरिया ने सारा आकाश मानों अपनी आगोश में ले लिया, कौंधती बिजली और मेघ गर्जना से दिल भी दहला लेकिन फिर मूसलाधार बारिश नें महीनों की शिकायत दूर कर दी. आज मेरी सभी ख्वाहिशें पूरी हो गईं थीं और में जैसे कि आसमान में एक आज़ाद परिंदे की तरह उड़ रहा था.

उधर आसमान में बादल उफन रहे थे, इधर मेरी रसोई में चाय का पानी उबल रहा था. तेल खौल रहा था और पकौड़े तले जा रहे थे. उधर जंगल में मोर नाच रहा था, इधर मेरा मन मयूर भी नृत्य करने को बेचैन था. एक तरफ मिट्टी की सोंधी-सोंधी मादक महक पागल कर रही थी वहीं सरसों के तेल में बन रहे पकौड़ों की खुशबू ने भूख बेकाबू कर दी थी. किसी ने घर की खिड़की बंद कर दी, लेकिन मैंने खोल दी क्योंकि आज बौछारों को भी मेरे शयन कक्ष में बेरोकटोक घुस आने की खुली छूट थी. किसी जाते हुए राहगीर की चाल तेज़ हो गई थी ताकि वो ऐसी जगह पनाह ले ले जहां उसके कीमती वस्त्र बरसात के पानी से भीग न जाएं. लेकिन मेरे मिजाज़ में संगीत था, अल्हड़पन था और इसी कारण मैंने अपनी शर्ट तक उतार दी और बंद कमरे से निकल खुली छत पर जा बैठा जहां बरसात की हर एक बूंद मेरे तन-मन को भिगो रही थी. आखिर ये महीनों की प्यास थी और आज ही मैं इसे पूरी तरह बुझा लेना चाहता था.

खुली छत से मैनें क्या नहीं देखा. कहीं बच्चे सड़क पर लगे पानी में छपाक-छपाक करते देखे तो कुछ बच्चे रिक्शे में भीगते हुए स्कूल से घर को जाते देखे, रंग-बिरंगी छतरियों मे दुबके खुद को बारिश से बचाते हुए लोग देखे, ढेरों लोगों को एक बस स्टैंड में सिमटे देखा, कुछ लोगों को बरसाती पहनकर स्कूटर-मोटरसाइकिल पर जाते देखा, और सड़क पर जमा पानी को दूर तक उछालकर लोगों को भिगोकर रफू-चक्कर होती कारें भी देखीं-- कितना दिलकश था ये नज़ारा. लोगों के चेहरों पर परेशानी और उलझन थी मगर मन में खुशी भी थी. आखिर आज झमाझम बरसात जो रही थी.

मुझे आज महसूस हो रहा था कितना खूबसूरत होता है सावन की महीना और घनघोर बारिश का मज़ा. दूर-दूर तक फैले घनघनातै हुए काले बाद और उनके बीच चमकती बिजली-- मैं जी भर के बारिश में भीगा. काफी समय कुदरत के साथ बिताने के बाद आखिरकर मैं छत से उतर आया. घर आने के बाद भी बारिश घंटों चलती रही और मन को प्रसन्न करती रही.
समय काफी बीत गया था और आज अंधेरा भी जल्दी हो गया. खिड़की से बाहर झांककर देखा तो हैरान रह गया. सड़क पर वाहनों की जली बत्तियां देखकर महसूस कर रहा था कितना मुश्किल हो रहा होगा गाड़ी चलाना. वाहनों की संख्या भी बढ़ गई थी और सड़कों पर कारों, बसों और स्कूटरों की लंबी कतार खड़ी थी.

सभी परेशान लग रहे थे क्योंकि किसी को आगे बढ़ने का कहीं कोई रास्ता नहीं था. मेरा मन कचोटने लगा और मैंने सोचा इन लोगों का भी तो मन कर रहा होगा गर्म चाय पीने का, समोसे और पकौड़े खाने का और सावन के रंगीन गीत सुनने का. लेकिन सच्चाई यह थी कि ये सड़क पर फंसे दूसरे वाहनों का धुंआ खा रहे थे, बारिश की बूंदे पी रहे थे और सड़क पर हो रहा शोरगुल सुन रहे थे.

मैं कितना भाग्यशाली था जिसने आज बारिश का भरपूर मज़ा लूटा. लेकिन ऐसा सबके साथ नहीं था-- सड़क पर चल रहा हर आदमी एक कड़वी सच्चाई से रू-बरू हो रहा था. सड़कों पर दिख रही थी वाहनों की कभी न खत्म होती कतार और रेंग- रेंग कर धीमी गति से बढ़ती गाड़ियां. वाहनों की मद्धम चाल से लाखों की कीमत का हज़ारों लीटर पेट्रोल बर्बाद हो रहा था और उनके धुंए से वातावरण में ज़हर घुला जा रहा था. पर लोग मजबूर थे और जिनको परवाह करनी चाहिए उन्हें फिक्र कहां. अफसोस ये कि मेहनत की कमाई से खरीदा महंगा पेट्रोल जल गया, गाड़ी डिगी तक नहीं और लोग जहां के तहां खड़े रह गए. उधर सड़क पर घुटनों तक लगे पानी की वजह से कितने ही वाहन बंद हो गए थे और लोग उसी मैले पानी में उतरकर धक्का लगा रहे थे. अब ऐसे में भला किसे सुनाई देगी मेंढक की टर्र-टर्र. अभी तो आम आदमी ही टर्रा रहा था कि लो आज पहली ही बरसात में ऐसा हाल-- तौबा रे तौबा!

मन इस ख्याल से ही सिहर उठा कि सचमुच अगर एक शाम भी किसी के साथ ऐसा हो जाए तो बेचारा हट्टा-कट्टा आदमी भी तन और मन से बीमार नहीं पड़ेगा तो और क्या होगा. मुझे लगा किसी ने आपके शहर के विकास के नाम पर आपसे वोट लिए होंगे, कोई इस वायदे के साथ बड़का बाबू बना होगा कि वो देश और समाज की सेवा करने की नीयत रखता है... लेकिन सब गुम दिखे आज. गुम क्या दिखे सच मानिये तो आज की बारिश का असल लुत्फ तो वही ले रहे होंगे और हमारा-आपका क्या, हम तो दिन काट लेंगे और सब कुछ भुलाने का नाटक करते हुए कल फिर एक नई उम्मीद के साथ पानी से भरी इन सड़कों पर उतरेंगे.

सचमुच किसी की लापरवाही मेरे कष्टों का इतना बड़ा कारण भी बन सकती है ऐसा मैने शायद ही कभी सोचा था. बस इसी विचार से मेरा मन एक बार फिर व्याकुल हो गया. है कोई जो मेरी इस व्याकुलता को दूर करेगा!

मैं खबरिया चैनल देख रहा था और लोगों की परेशानी महसूस कर रहा था. सड़कों पर फंसे हजा़रों वाहनों और इंसानों के बीच मेरी निगाहें उन नेताओं को ढूंढ रही थीं जो चुनाव से पहले बड़े- बड़े बोल बोलते हैं, लंबी-चौड़ी बातें करते हैं और हसीन सपने दिखाते हैं. मेरी निगाहें उन अफसरों को भी ढूंढ रही थीं जो नौकरी का इंटरव्यू देते हुए समाज सेवा की बात करते हैं, अपने अधिकारों से बदलाव लाने की बात करते हैं और नागरिकों की सहुलियतों के बारे में कहते नहीं थकते. मेरी निगाहें पथरा गईं लेकिन ऐसा कोई दिखा नहीं. आज मेरा मन आश्वस्त हो गया कि नेता वोट के आगे की सोच ही नहीं पाते और अफसर सरकारी सुविधाओं के आगे बेबस हो जाते हैं. लेकिन यह भी सच्चाई है कि रात तो बीत ही जाएगी और कल का सवेरा एक नए कलेवर के साथ आएगा. कल नेताओं की नींद खुलेगी, मंत्री लीपापोती करेंगे, छींटाकशी करेंगे, कोई इसको तो कोई उसको दोषी ठहराएगा, तकलीफें दूर करने के लिए एक बार फिर से नए वादे किए जाएंगे, कमेटियां बनेंगी, अफसर तलब होंगे और न जाने क्या-क्या. इस बीच सड़कों का पानी धीरे- धीरे उतर चुका होगा, लोग फिर से अपने काम में जुट गए होंगे और हम सब फिर से इंतज़ार करेंगे अगली बरसात का... एक बार फिर से समस्या के उभरने का.

मुझे इंतज़ार है उस वक्त का जब मैं नहीं बल्कि ये नेता और अफसर व्याकुल होंगे और कसम लेंगे कि आम आदमी को इस तरह के हालात से दोबारा रू-बरू नहीं होना होगा. मुझे इंतज़ार है उन व्याकुल नेताओं, मंत्रियों और अफसरों को देखने का जो लोगों की तकलीफों से इतने व्याकुल हो जाएं कि घर पर रुक न सकें और फौरन बाहर आकर जनता के साथ साथ सड़क पर खड़े दिखें-- बाद में छींटाकशी और रिपोर्ट तैयार करते हुए नहीं.

आखिर बरसात का मौसम है, मौज-मस्ती का मौसम है. इसमें प्रेम है, भूख है, नादानी है, शोखी है... ऐसे में मेंढक को ही टर्र-टर्र करने दें, हम इंसानों के लिए तो ये बरसात की बूंदे सुकून लेकर आती हैं, आज उसी का आनंद लेने दें.

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2) http://apurvarai.blogspot.in/2010/09/blog-post.html
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