May 09, 2024

सत्ता में सियार !


व्यंग्य


अपूर्व राय
/  APURVA RAI

कई बार अख़बार में पढ़ा कि फलाना अफसर के घर से करोड़ों रूपए, गहना-जेवर, दूसरे महंगे सामान बरामद हुए. इतना ही नहीं अलग-अलग जगहों पर कई-कई मकान होने का भी पता चला (वैसे ब्लैक मनी से अनेकों मकान खरीदने का चलन सबसे ज़्यादा है). यह भी हम सब पढ़ते रहते हैं कि किसी नेता के पास भी करोड़ों की जायदाद है भले ही कागज़ कुछ और कहते हों. एक दिन एकांत में बैठकर सोच रहा था कि आखिर माजरा क्या है. अंत में एक बात समझ में आई कि सारा खेल सत्ता, यानि, पावर का है. 

कुछ ऐसे भी कहा जा सकता है कि जहां सत्ता हाथ में आई, गड़बड़ हुई. किसी सरकारी दफ्तर में काम पड़ जाए तो अफसर क्या, क्लर्क तक अपनी ताकत जता ही देता है. इसका तजुर्बा हम सभी को है किसी न किसी रूप में. सत्ता यानि पावर अपना रंग दिखाती ही है चाहे वो सरकारी दफ्तर हो या कॉरपोरेट. पावर किसी करेंट से कम नहीं. वो झटका देती है, दिखती है और महसूस भी होती है-- कभी किसी को तंग करके, कभी ऊपर की कमाई से और कभी किसी अपने पर कृपादृष्टि के ज़रिये. (कुछ अपने तो जगजाहिर होते हैं, और कुछ यह दर्जा प्राप्त कर लेते हैं अपनी अजब कला से.) गजब तो तब हो जाता है जब कमाई भी होती है, दूसरे को तंग भी किया जाता है और अपनों पर मेहरबानी की बरसात भी की जाती है. मतलब तीनों काम एक साथ. है न गजब की मल्टीटास्किंग ! (मोदी जी खामखां स्किल इंडिया का नारा देते रहते हैं. ऐसा वंडरफुल स्किल तो अपने यहां पहले से ही मौजूद है.) यह सब करने के बावजूद तुर्रा ये कि हम मेहनती हैं और कल्याण की भावना रखते हैं. मुझे तो कई बार सुनने को मिला, ‘believe me, I am your well-wisher’. पता नहीं कैसे हितैषी थे !

टीम में रखें हीरे 

इन सबसे ऊपर की एक बात और. वह ये कि ऐसी कौम बहुत मेधावी होती है ऐसी ज़रूरी नहीं. उनकी सारी ऊर्जा, दिमाग और काबिलियत बस यह गणित बैठाने में लगती है कि कैसे अपना खुद का फायदा हो जाए और नाम, सम्मान के साथ-साथ यश का सेहरा भी बंध जाए. इस गणित का एक सीक्रेट है— टीम में चंद काबिल लोगों को शामिल कर लो और फिर चांदी ही चांदी. वैसे अब यह सीक्रेट कम और मैनेजमेंट का अभेद फॉर्मूला अधिक माना जाता है. अमूमन हर संस्था में ऐसे चंद लोग मिल ही जाते हैं. बेचारों की किस्मत देखिये... दिन-रात खटते रहते हैं, नया-नया काम करते हैं, नई सोच, नई दिशा दिखाते हैं पर फिर भी कभी यश और धन के पात्र नहीं बन पाते. अपने संस्थान का महत्वपूर्ण हिस्सा ज़रूर रहते हैं पर पूछे तभी जाते हैं जब काम पड़ता है. वरना तो रोज़मर्रा की दिनचर्या है, अपना-अपना काम है. और हां, ये चमचों की श्रेणी में नहीं आते. ये बॉस की मीरा कहीं से नहीं होते, इनका अलग ही क्लास है. 


हम सभी ने अपने-अपने जीवन में ऐसा देखा है और महसूस भी किया है. कभी आप इसके भुक्तभोगी हुए होंगे या फिर आपने रिश्तेदारों, मित्रों, पड़ोसियों से ऐसे तमाम किस्से सुने होंगे. और कुछ नहीं तो आपके बच्चों को ऐसा तजुर्बा ज़रूर हुआ होगा जिसकी चर्चा उन्होंने आपसे की होगी और आपने बच्चों की एडजस्टमेंट और खड़ूंस बॉस की बुराई का ढिंढोरा पूरे जग में पीटा होगा. कुल मिलाकर ये कि हममे से कोई इससे अछूता नहीं. 

मेरा स्वयं का भी तजुर्बा कुछ अलग नहीं है. बहुतों को टॉप पर आते देखा. पहला काम मीटिंग बुलाई और सबकी तारीफ कर दी. अब चंद लोगों को ज़िम्मेदारी की भूमिका क्या दे दी कि आपका
सीना फूल गया. आप महसूस करने लगे कि वाह टॉप बॉस की नज़रों में आप ही आप हैं. अब क्या आपने दिन दूनी- रात चौगुनी मेहनत करनी शुरू कर दी. अच्छे नतीजे मिलने लगे. दोबारा मीटिंग बुलाई गई आपकी भूरी-भूरी प्रशंसा हुई. इस मीटिंग में तीन-चौथाई लोग तो आपसे जल-कुढ़ गए और आपके पक्के दुश्मन बन गए. लेकिन आपको क्या फर्क पड़ता है, आपका स्थान तो बॉस की नज़रों में बहुत ऊंचा है. अब खेल देखिये... अच्छे नतीजों का सेहरा बॉस के सर बंधा पर आपको क्या मिला. तारीफ के दो शब्द
! कुर्सी किसकी बची ? उनकी. तरक्की के लिए सबसे ऊपर नाम किसका गया ? उनका. सुविधाएं किसकी बढ़ीं ? उनकी. अब आप कहां? वहीं, जहां थे. जस के तस. 

हम सबके निजी जीवन में सत्ता का ऐसा खेल किसी के लिये फायदेमंद और किसी की नींद उड़ाने का काम करता है. और सत्ता में बैठा व्यक्ति मेधावी हो न हो, होशियार ज़रूर है. पूरी मलाई उसके पास. किसी ख़ास की बात क्या करें, उदाहरण तो हम सबके पास हैं. कोई नई बात नहीं है... सदियों से चली आ रही है. 

उसने पुकारा और हम चले आए

मुद्दा यह है कि आखिर यह विचार मेरे ख़्याल में आया क्यों

हुआ यूं कि बीते दिनों के एक साहब से अचानक मुलाकात हो गई. अकेले ही मॉल में कुछ खरीददारी करने आए थे. दूर से देख लिया और पुकारा. मेरे संस्कार मुझे इजाज़त नहीं देते कि कोई पुकारे तो अनसुना कर दूं. मैं उनकी तरफ बढ़ गया, हालांकि मुझे ऐसा करना नहीं चाहिये था. एक समय था जब अपनी पावर बनाए रखने के लिए वो कुर्सी से चिपक गए थे. हमसरीखों को नहीं दिखेगा पर कुर्सी और पावर को बचाए रखना आसान नहीं. कौन-कौन से पापड़ नहीं बेलने पड़ते, क्या-क्या वादे नहीं करने पड़ते और कितनी एड़ियां रगड़नी पड़ती हैं. पांव में छाले भी पड़ ही जाते होंगे, पर, शुक्र है वो दिखते नहीं. लोगों ने तो और भी बहुत कुछ बतलाया पर सब सुनी-सुनाई थी इसलिये यहां कुछ नहीं कहूंगा. पर आप सब समझदार हैं. इशारा भर ही काफी है. आखिर कुर्सी का महत्व भी इसीलिये है कि वो आपको पावर देती है. मैं जिन साहब की आवाज़ सुनकर रुका और उनके पास चला गया वो इसका जीवंत उदाहरण थे. 

वो मेरी तारीफ के पुल बांधते नही थकते थे, पर मलाई उन्हें ही मिलती थी. कहीं का दौरा हो तो वो जाएंगे, वीआईपी मीटिंग में वो ही जाएंगे, निर्देश जारी वो करेंगे और हम पालन करेंगे, सबसे ज़्यादा पावर उनके पास होगी, मोटा पैकेट उन्हें ही मिलेगा, गाड़ी-घोड़ा, घर-बार और चाटुकार भी उनके. हम बस छोटी-मोटी रेवड़ी में ही खुश रहे. उम्मीदों की लहरें हमारे अंदर भी जोर मारने लगी थीं. संत नहीं हैं हम, ख्वाहिशें हमारी भी हैं. सोचते थे कि खुद ही हमें भी एक-दो पायदान ऊपर उठा देंगे. आखिर काम की ज़िम्मेदारी तो हमारे ही सर थी न इसलिये रिवार्ड्स का ख़्याल भी आता था. पर कभी कहा नहीं. पता नहीं कौन सी बात थी जो हमें कुछ मांगने और कहने से रोकती थी. अब हुआ उलट. कुछ चाटुकार पोजिशन पा गए और हम काम ही करते रह गए. इस तरह के लोग हम जगह मिल जाएंगे जो दिन-रात काम करेंगे पूरी ज़िम्दारी के साथ, नया-नया आइडिया देंगे, छुट्टी भी कम से कम लेंगे वगैरह, वगैरह. 

पर आज मॉल में मिलना, उनका अकेलापन और मुझसे दिल खोलकर बातें करना एक अलग ही कहानी कह रहा था. एक समय में सत्ता के मद में झूमने वाले शख्स का सारा नशा आज उतर चुका था. पहली बार उनकी बातों में निस्वार्थ भाव देखा और कहीं अफसोस भी महसूस किया. कुछ बातें कही नहीं जातीं और कुछ बातों का ज़िक्र भी नहीं किया जाता. लेकिन न जाने कैसे वो बातें हो भी जाती हैं जो दिलों के अंदर रहती हैं और ज़ुबान तक पहुंच नहीं पातीं.

सत्ता के मद, कुर्सी की अटूट ख्वाहिश, चमचों की चाश्नी भरी दुनिया का अनुभव हम सभी को है. अंग्रेजी में इसे ही कहते हैं first-hand experience. ऐसे ही पावरफुल, खुदगर्ज़, चालाक और जगभलाई के नाम पर खुद की भलाई सोचने वाली कौम की ही तुलना सियार से की गई है. ऐसे सियार जिनके आगे शेर भी हो जाते हैं ढेर. अब कोई इससे अछूता हो तो निराला ही कहलाएगा. एक फिल्मी गाने की पैरोडी एकदम सटीक बैठती है, हम हैं चमचे सत्ता के, हमसे कुछ न बोलिए. जो भी सत्ता में आया हम उसी के हो लिए.. हम उसी के हो लिये.

सत्ता के कई सियार हमने अपने इर्द-गिर्द देखे हैं. कुछ ऐसे भी हैं जिनको देखा तो नहीं पर नज़दीक से महसूस किया. और कुछ ऐसे भी हैं जिनके बारे में अखबारों में पढ़ा, टीवी पर न्यूज़ में देखा और ट्रेन के सफर में लोगों को चर्चा करते हुए भी सुना.

आपके शहर में भी हैं और देश में भी

बात उन बड़े-बड़े अफसरों की जिनकी एक अलग दुनिया है. ये वो लोग हैं जो हमारे-आपके बारे में ही सोचते हैं, काम करते हैं और बेहतरी के नए-नए तरीके ढूंढते रहते हैं. बड़ी ज़िम्ममेदारी होती है इनके कंधों पर. और इन ज़िम्दारियों को निभाने के लिए खूब पावर भी मिलती है. खर्चे के लिए बजट भी मिलता है. कष्ट तो तब होता है जब जनता को समझने वाले जनता के बीच ही नहीं दिखते. थोड़ा भी अच्छा किया कि तारीफ के पुल बांध देते हैं लोग... वाह ज़िले को चमका दिया. वैसे चमकाने वाले कम ही सुनाई पड़ते हैं. 

यह अफसरी पाना आसान नहीं. बहुत मेहनत, लगन, निष्ठा और प्रतिभा के साथ-साथ किस्मत का भी साथ चाहिये. पढ़ाई के दिनों में पावर पोजिशन हासिल करने की चाहत में चुटिया बांधकर टेस्ट निकालते हैं. अब एक बार अफसर बन गए सो बन गए. जब तैयारी चल रही थी तब समाज-सेवा और देश के लिए कुछ कर दिखाने का भाव हिलोरें मार रहा था. सेलेक्शन होने के बाद सब फुर्र ! अब रुतबा है, पोजिशन है, सत्ता यानि पावर है और सुख-सुविधा है. पैसा भी है पर इसकी बात करना ठीक नहीं. कहीं पर आपको साहब कहा जाता है, कहीं हुज़ूर तो कहीं मालिक. कुर्सी मिली तो सत्ता भी हाथ आ गई और जी हुज़ूरी करने वालों का भी तांतां लग गया. सबकी बात करना उचित नहीं होगा पर कुछ अफसरों ने पूरी जमात को ही बदनाम करके रख दिया. नेताओं के साथ सांठ-गांठ, पावर का फायदा, रुपयों की हेराफेरी, सुविधाओं का भरपूर लाभ और न जाने क्या-क्या, कैसे-कैसे. जब ख़बर सुर्खियों में छपी तो पता चला कि हमारे ही शहर का कल्याण करने वाले जी भरके अपना ही कल्याण कर रहे थे. बहुतों के बारे में पढ़ा होगा अख़बारों में. यही हैं सत्ता के सियार और अजब है सत्ता की दुनिया. कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है कैसे इतना बदल गई इनकी सोच? क्यों भुला दिया तैयारी के दिनों के वसूलों को? और सबसे बड़ी बात कि कितना कमाना चाहते थे? अगर तिजोरी ही भरनी थी और अपनों को ही फायदा करवाना थो तो फिर यही रास्ता क्यो चुना? कुछ और भी तो सोच सकते थे


शहर के अफसरों से छुट्टी मिले तो आपका राज्य और राष्ट्र चलाने वालों की तरफ भी देख लीजिये. ये लोग नेता कहलाते हैं और टॉप पोजिशन, टॉपमोस्ट पावर पर ही यकीन रखते हैं. इससे नीचे कुछ मंज़ूर नहीं. सबसे ऊंची कुर्सी, सबसे ताकतवर पोजिशन, वीआईपी स्टेटस और जलवा इनकी पहचान है. जब सड़क पर चलते हैं तो इनकी गाड़ी की रफ्तार आपको इनका परिचय दे देगी, किसी समारोह में पहुंचे तो इनकी तारीफ के पुल बांध दिये जाएंगे, कोई जाने या न जाने पर चरण स्पर्श सब करते दिखेंगे, इनकी सीट जनता की सीट से अलग होगी, खाना जनता के खाने से अलग होगा. यही हैं सत्ता के सियार. पोजिशन बनाने के लिए साम-धाम-दंड-भेद कुछ भी अपना सकते हैं. जनता के सबसे बड़े शुभचिंतक, पर असलियत में अपनी चिंता सबसे ज़्यादा. 

बहुतों का जीवन ही इसी में बीत गया. उनकी ज़िंदगी नेतागिरी में बीती सो बीती बच्चों को भी सी दुनिया का रास्ता दिखा दिया. शायद सफलता के दूसरे रास्ते कठिन थे और कड़ी मेहनत और प्रतिभा मांगते थे. बेचारे लाडले कहां से करते ये सब. इन्होंने तो सत्ता का लुत्फ बिना सत्ता प्राप्त किये उठाया है.

सत्ता और सफलता का शॉर्टकट आपसे बेहतर कौन जानता है. गोटी बैठाना भी आपसे बेहतर कोई नहीं जानता. तो फिर क्या है, सत्ता का दामन थामे रहो, फायदा पहले दिन से मिलेगा और एक दिन कुर्सी भी मिल जाएगी. एक बार कुर्सी मिलने भर की देर है, ऐसा चिपकेंगे कि उतारे नहीं उतरेंगे. कुर्सी पर बैठे नहीं कि बन गए Yes Minister. पावर का असली मज़ा तो यही वर्ग उठाता है. क्या अफसर, क्या कोई दूसरा. सारी दुनिया आपके पीछे. भले ही कुर्सी कुछ वर्षों के लिए मिलती है पर आनंद जीवन भर का दे जाती है. मिनिस्टर के जलवे क्या कहने. कोई रोकटोक नहीं. कहते हैं न ‘Power corrupts and absolute power corrupts absolutely’. कितना सटीक बैठता है सत्ता के इन सियारों पर.

पोल तो तब खुलती है जब कोई फंस जाता है और मामला उछल जाता है. अखबार में सुर्खियां आपकी मेहनत की कहानी बयान करती हैं तो पता चलता है आप कितने यशस्वी थे. कितने ही पावरफुल मिनिस्टर आए और गए. कभी कोई जनता के बीच नहीं दिखा, न सत्ता के रहते और न सत्ता छिनने के बाद. आप किसी ऐसे मेहनती मिनिस्टर को जानते हों जिसका निवास आपके आस-पड़ोस में हो ता ज़रूर बतलाइयेगा. धन्य जाएंगे हम. आपको कभी कुछ ऐसा याद पड़ता है कि आप किसी रेस्टोरेंट में खाना खाने गए हों और कोई मिनिस्टर सामने वाली टेबल पर बैठा हो ? या फिर कभी मोहल्ले की टेयरी शॉप पर कोई विधायक तैला लेकर दूध लेने आया हो ?

इनकी तो छोड़िये इनके सुपुत्रों के कारनामों के किस्से भी कम नहीं हैं. आप भी दो-चार जरूर जानते होंगे. नहीं जानते होंगे तो ऐसे सुपुत्रों के बारे में चर्चा ज़रूर सुनी होगी या फिर कहीं पढ़ा होगा. मतलब ये कि बाप के पास सत्ता और मद में पुत्र. देखिये सत्ता का कमाल, महसूस कीजिये सत्ता के सियारों का जलवा !


काम करने वाले जीतें हैं शान से

मेरे ख़्याल में बार-बार यही आता है कि भला आप और हम सत्ता के पागलपन का रस चखने से कैसे चूक गए. मेहनत करने में हमने कौन सी कमी की. काम ऐसा करते रहे कि इन सियारों को हम पर फक्र रहता था. आखिर कौन सी बात थी कि हम और आप सत्ता के पास होकर भी मलाई खाने से रह गए. कोई कमी थी क्या? शायद थी. हम काम जानते थे, यशस्वी थे, एक स्तंभ की तरह डटे थे, योग्यता थी जिसका फायदा उठाना उसूलों में शुमार नहीं था, शेर की तरह 56 इंच का सीना लिए फिरते थे, निडर थे, मन में ख्वाहिशें ज़रूर थीं पर लोभ नहीं था, अपने आसपास लोग पसंद थे पर चाटुकार नहीं.

मशहूर साहित्यकार हरिशंकर पारसाई का कहना गलत नहीं है कि सियारों की बारात में शेर ढोल बजाते हैं”.

मैंने शेरों की जमात में खड़ा रहना पसंद किया. जीवन में ख़्वाहिशें ज़रूर पालीं पर सियार कभी नहीं बनना चाहा. पारसाई जी ने जो कुछ  कहा वो यथार्थ है, सच्चाई है. पर यह भी सच्चाई है कि मुझ जैसे शेर न हों तो सियारों की बारात भी नहीं सजेगी.

मैंने और मुझसरीखे ढेरों लोगों ने शेर की ज़िंदगी बिताई है. सियार कोई था तो वो कोई और था. दोनों में दोस्ती नहीं हो सकती. यही वजह है सियार अपनी जगह हैं जो मुंह चुराए घूमते हैं, कोई नया काम मिलते ही बगलें झांकने लगते हैं और तलाशने लगते हैं ऐसे लोग जो उनका मान बनाए रखें. उधर शेर सीना ठोंक कर घूमते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है उनकी जगह कोई नहीं ले सकता. मैं शेर था इसीलिए मॉल में पुराने सियार के पुकारने पर मिलने चला गया. मैं जानता था उसे मेरी ज़रूरत आज भी है, मुझे उसकी नहीं. मुझे पहचानना उसकी मजबूरी थी, उसे मैं पहचानूं यह ज़रूरी नहीं. मेरे ख़्याल से !

सुनिये एक खूबसूरत और ज़बरदस्त नग़मा हिंदी फिल्म इज़्ज़्त’ (1968) से:






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