October 01, 2024

काश एक बार फिर आते गांधी !

 


गांधी जयंती, 2 अक्टूबर/ Gandhi Jayanti, 2 October

अपूर्व राय/ APURVA RAI

हे बापू, तुमने जिस भारत को अग्रेज़ी साम्राज्य से आज़ाद कराया था उसके 75 साल बीत चुके हैं. आज तुम्हारा जन्मदिन है. आज़ाद भारत में तुम्हें आज के दिन स्मरण करने से बड़ी बात और क्या हो सकती है. सोचता हूं अगर तुम न प्रकट हुए होते तो क्या आज का दिन हम देख पाते? अगर तुमने मोर्चा न संभाला होता तो क्या भारत को वो नया दौर हासिल होता जिसकी हम रोज़ाना चाय पर चर्चा करते हैं? यह बात दीगर है कि आज़ाद भारत के नए दौर में तुम्हारी चर्चा कम होने लगी है और तुम्हारा महत्व कम करने का प्रयास चल रहा है. बल्कि यह कहूं कि आलोचना और निंदा अधिक होने लगी है तो ग़लत न होगा.

सब वक्त का खेल है. अगर तुमको आज महात्मा कहे जाने पर आपत्ति है तो उनकी भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है जो आज़ादी के बाद राजनीति के मैदान पर आए, अपनी पारी खेली और चले गए. कुछ ने बुलंदियां छुईं और कछ छूने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन न तो वो याद आते हैं और न ये याद आएंगे. सच्चाई कड़वी होती है, पर सच्चाई यही है. 

हे गांधी, न तो तुमने योग और ध्यान लगाया, न हिमालय पर गए, न गुफा में रहे और न ही संन्यासी का लिबास धारण किया पर फिर भी महात्मा कहलाए. हां, यह ज़रूर कह सकता हूं तुमने चिंतन ज़रूर किया होगा, और बहुत गहराई से किया होगा, तभी तो तुम्हारी हर बात में और तुम्हारे हर कार्य में एक सोच दिखती है, एक धारा दिखती है. कितना मुश्किल रहा होगा संसार में रहकर, सांसारिक क्रम और सांसारिकता निभाते हुए महात्मा का दर्जा हासिल करना. आज एक नया दौर है जिसे दिखावे का दौर की संज्ञा भी देना अनुचित नहीं होगा. दिखावे के इसी दौर में महात्मा बनने की भी कोशिशें जारी हैं. पर पीतल कभी सोना बना हैं बापू? तुमने राम नाम का जाप किया, राम की तरह संसार में रहते हुए अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया और राम के समान अथाह शक्ति का परिचय दिया और उसका उपयोग जन-कल्याण में किया. राम तुम्हारे मन में बसे थे, राम तुम्हारे तन में दिखते थे और तुम्हारी ख्याति भी राम के समान रही है. राम ने सच्चाई के मार्ग पर चलते हुए संसार को लोभ, माया, अन्याय और बुराई से मुक्ति दिलाई थी और तुमने भी राम के दिखाए मार्ग पर चलते हुए भारत को शोषण और गुलामी से मुक्त कराया. संघर्ष राम ने भी किया और संघर्ष तुमने भी किया. सफलता राम को भी मिली और सफलता तुमको भी मिली. पूरे जग में राम की उपासना हुई और तुम्हारे दिखलाए मार्ग को भी संसार की सराहना मिली. उपहास और निंदा का दौर राम के जीवन में भी आया और तुम्हारे जीवन में भी. लेकिन न तो राम अपने मार्ग से डिगे और न ही तुम. राम हर प्राणी के रोम-रोम में बसते हैं और तुम भी भारत के कण-कण में बसते हो. संसार में रहकर, घर-परिवार बसाकर भी तुमने जिस तरह के त्याग और तपस्या का परिचय दिया, वह असाधारण है. तुम्हारा तेज, तुम्हारी सच्चाई, तुम्हारा त्याग ही तुम्हे महात्मा बनाता है. अब कहने वाले चाए जो कह लें!

कौन हैं गांधी, क्या हैं गांधी

कुछ तो बात होगी गांधी में जो उन्हे साधारण से असाधारण बनाती है. कुछ तो बात होगी कि उनकी निंदा करने वाले उनके लिए अपशब्द बोलकर भी उनके जैसा प्रताप और नेतृत्व नहीं दिखा पा रहे. कुछ तो बात होगी गांधी में कि उनके जैसी काबिलियत कोई दर्शा भर नहीं पा रहा. कोई तो बात होगी गांधी में जिसकी एक आवाज़ पर देशभर के लोगों ने विदेशी वस्त्रों को जलाकर खाक कर दिया, अंग्रेज़ों की नौकरी छोड़ दी बिना परवाह किए कि घर में बच्चों के लिए अगले दिन दूध के पैसे कहां से आएंगे, कोई तो बात होगी गांधी में कि जिन अंग्रोंज़ों का बहिष्कार किया उन्हीं अंग्रोज़ों ने अपनी संसद के बाहर उनकी प्रतिमा लगवा दी, कोई तो बात होगी कि गांधी एक धोती में भी दुनिया को प्यारे लगते थे जबकि आज साज-सज्जा और वस्त्र नेतृत्व की पहचान बन गए हैं.   

गांधी ने महज़ सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, सर्वोदय, स्वराज और स्वदेशी की बात ही नहीं की उन्हें अपने निजी जीवन में उतारा भी. गांधी जैसे भी रहे हों उनके दो चेहरे नहीं थे. गांधी ने जो कहा और जो सिखाया उसे निजी जीवन में उतारा भी. गांधी ने स्वदेशी की बात कहने से कहीं पहले ही अंग्रेज़ी मिल में बना सूट-बूट त्याग दिया और एक धोती को अपना वस्त्र बना लिया. खादी की बात करने वाले गांधी खुद चरखे पर अपना सूत कातते थे और उसी को धारण करते थे. गांघी ने विरोध के लिए अनशन किये पर दूसरों से ऐसा करने को नहीं कहा. नमक पर टैक्स हटाने की बात की तो गांधी खुद सत्याग्रह पर निकल पड़े और जनता उनके पीछे-पीछे. गांधी की एक आवाज़ पर जन-जन ने मन से अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ असहयोग आंदोलन छेड़ दिया. ऐसा आज हो सकता है क्या? आज़ाद भारत में कोई भी ऐसा स्थान न बना पाया जो गांधी ने चंद सालों में बना लिया.  



गांधी क्या थे? एक साधारण से दिखने वाले इंसान! एक धोती में लिपटी इकहरी काया! हाथ में एक साधारण सी लाठी और एक ऐनक जिसकी कोई बड़ी ब्रांड नहीं थी पर फिर भी वह बापू की पहचान बन गई. किसी ने पूछा आजतक कि गांधी का चश्मा कितने का था, किस कंपनी का था? नहीं. गांधी की शख्सियत ही इस लाठी और ऐनक की ब्रांड बन गई. आज भी कोई गोल फ्रेम का चश्मा खरीदता है तो गांधी फ्रेम ही कहता है. कोरे कागज़ पर एक लंबा सा डंडा और एक गोल फ्रेम के चश्मे की ड्राइंग बना दीजिये, कुछ लिखने की ज़रूरत नहीं, लोग खुद बतला देंगे बात गांधी की हो रही है.    

सबसे ताज्जुब की बात तो यही है कि ऐसी साधारण सी काया और ऐसे अति साधारण सामान रखने वाले इंसान का व्यक्तित्व इतना असाधारण था कि एक बार कह दिया तो क्या हिंदू, और क्या मुसलमान, सब एकजुट होकर खड़े हो गए. अगर उनके अंदर ऐसी प्रतिभा नहीं होती तो यह निश्चित है कि 1947 में आज़ादी नहीं मिली होती. गांधी वो थे जिसने देश की आज़ादी का सपना देखा, उसे आज़ाद कराने की रूपरेखा बनाई और लोगों को दिशा दी. सिर्फ इतना ही नहीं कि वो दिशा दिखाकर सैर पर निकल गए, वो खुद भी उसी रास्ते पर चले. एक बड़ी बात जो गांधी से सीखने की है वो ये कि अगर किसी को कोई बात बतलाओ तो स्वयं भी उस मार्ग पर चलने का दम रखो. और ऐसा तभी मुमकिन है जब आपके मन की बात में गहराई हो, विचार उत्तम हों और सत्य के मार्ग पर चलने की ताकत हो.

सत्य के साथ प्रयोग (experiments with truth) ही गांधी को गांधी बनाते हैं, वरना वह भी हमारे-आपके जैसे ही थे. इन प्रयोगों में उन्हें जो अच्छा लगा उन्होंने अपना लिया, और नहीं लगा उसे त्याग दिया. यह बात कहने और सुनने में जितनी सरल लगती है असल में है नहीं. गांधी ने कहा, यदि आप दुनिया बदलना चाहते हो तो अपने आप से शुरुआत करो. यह इसलिये ज़रूरी है क्योंकि मनुष्य के रूप में हमारी सबसे बड़ी क्षमता दुनिया को बदलना नहीं, बल्कि खुद को बदलना है.और गांधी ने भी कुछ ऐसा ही कर दिखाया.

गांधी ने कहा अच्छाई धीरे-धीरे अपना असर दिखाती है—goodness travels at a snail’s pace”. गांधी आगे कहते हैं, mere goodness is not of much use. It must be joined with knowledge, courage and conviction. One must cultivate the fine discriminating quality which goes with spiritual courage and character.

बहुत कुछ है सीखने को

कोई तो बात होगी गाधी में कि दुनिया की बड़ी से बड़ी हस्ती उनसे प्रभावित हुई और उनका सम्मान किया. बात चाहे दलाई लामा की हो, चाहे डेस्मंड टूटू, मार्टिन लूथर किंग या फिर नेलसन मंडेला की, पूरा विश्व गांधी से प्रभावित था. मार्टिन लूथर किंग ने कहा, If humanity is to progress, Gandhi is inescapable. He lived, thought, acted and inspired by the vision of humanity evolving toward a world of peace and harmony.जवाहर लाल नेहरू ने भी कहा,  Gandhi was a powerful current of fresh air… like a beam of light.

अंग्रोज़ों ने भी माना लोहा  

लंदन में पार्लियामेंट स्कवायर में महात्मा गांधी की कांसे की मूर्ति लगाई गई है. गांधी को इससे बड़ा सम्मान क्या होगा कि जिस ब्रिटिश साम्राज्य से वो टकरा गए उसी ब्रिटिश सरकार ने उनके सम्मान में प्रतिमा लगाने का फैसला किया. इस मूर्ति को शिल्पकार फिलिप जैक्सन ने बनाया है जिसका अनावरण साल 2015 में हुआ था.

मूर्ति लगवाने की घोषणा ब्रिटेन के राजकोष के चांसलर जॉर्ज ओसबोर्न ने 2014 में भरत यात्रा के दौरान की थी. ओसबोर्न ने कहा, a statue of Mahatma Gandhi would be placed in Parliament  Square, Westminster. I hope this new memorial will be a lasting and fitting tribute to his memory in Britain, and a permanent monument to our friendship with India.

और चल गई नफरत की गोली

भारत आज़ाद हो चुका था और गांधी का सपना भी पूरा हो चुका था. एक तरफ जहां सारी दुनिया में गांधी की प्रशंसा हो रही थी, उनके विचारों का लोहा माना जा रहा था और उन्हें महात्मा का दर्जा दिया जा रहा था वहीं उनका विरोध भी हो रहा था, उनके प्रति नफरत सर उठा रही थी.

जब हम कोई काम करने चलते हैं तो उसके दो पहलू होते हैं, एक जो कार्य को सिद्ध करता है और आपके उद्देश्य को पूरा करता है, और दूसरा कि आपका काम सबको समझ नहीं आता. ऐसे में विरोध के स्वर जन्म लेते लगते हैं. विरोध को जब व्यापक समर्थन नहीं मिलता तो कुछ लोग हिंसा का मार्ग पकड़ लेते हैं और एक दूसरी राह पर निकल पड़ते हैं.  

ऐसी ही राह पर निकले एक भटके हुए इंसान ने पिस्तौल थाम ली और दिल्ली आ गया जहां गांधी ठहरे हुए थे. अपनी पहचान छुपाते हुए वह गांधी की संध्या सभा में पहुंचा और तीन गोलियां उनके सीने पर उतार दीं. गांधी वहीं गिर पड़े और हे राम कहते हुए उनके स्वर सदा के लिए शांत हो गए. दुनिया को सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले उस दुर्बल इंसान की ताकत देखिये कि मृत्यु को प्राप्त होकर भी वह कमज़ोर नहीं था. वह ज़मीन पर लेटा था और उसको मारने वाला एक गुनहगार की तरह खड़ा था. हाथ में पिस्तौल थामे वह झूठ के सहारे अंदर आया था और धोखे से गोली दागी थी. लेकिन गांधी सच्चे थे, अब बोल नहीं सकते थे. उनकी ताकत देखिए कि अब दुनिया उनके लिये बोल रही थी, हर कोई उनकी बात कर रहा था, लोग उनके प्रिय भजन गा रहे थे. उधर वह शख्स एक साधारण व्यक्ति से अपराधी बन चुका था. हाथ में पकड़ी पिस्तौल किसी काम न आई और उसे बचा भी न सकी. आज साबित हो गया कि पिस्तौल किसी को निष्प्राण कर सकती है, उसकी महिमा को समाप्त नहीं कर सकती. सच की ताकत दुनिया देख रही थी. एक शांत, निर्जीव व्यक्ति ने संसार को एक बार फिर से हिला दिया था. 30 जनवरी, 1948 की वो शाम थी जब सत्य की एक बार फिर से जीत हुई थी और पिस्तौल की हार. 

पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा, the light has gone out of our lives and there is darkness everywhere”.  नेहरू ने ही बाद में गांधी को श्रद्धांजलि देते हुए संसद में कहा, It is shame to me as an Indian that an Indian should have raised his hand against him. It is shame to me as a Hindu that a Hindu should have done this deed and done it to the greatest Indian of the day and greatest Hindu of the age”.

अब गांधी शांत थे, लोकिन संसार उनके गुणगान कर रहा था. संसार का कोई बड़ा व्यक्ति नहीं जिसने गांधी को याद न किया हो, उनकी सराहना न की हो और उनसे कुछ सबक न सीखा हो. उधर वह शख्स अब अब सलाखों के पीछे था, एकदम बेकार था और उसकी पिस्तौल किसी काम की न थी. आज संसार के सम्मुख दो लोग थे— एक मरकर भी अमर हो गया, और दूसरा जीते जी भी मर गया.

अब एक नया दौर है

भारत आज़ाद हो गया, गांधी भी चले गए. अब आज़ादी का नया दौर है. आज भारत आधुनिकता के परिवेश में अपनी जगह बना रहा है, तकनीक की राह पकड़ रहा है और नई ऊंचाइयों को छूने के प्रयास कर रहा है. देश 1947 के बाद से बहुत आगे निकल चुका है. आज बात होती है बड़े-बड़े उद्योगों की, निवेश की, बड़ी ट्रिलियन डॉलर जैसी अर्थव्यवस्था की, चांद तक पहुंचने की और नए-नए कीर्तिमान बनाने की चाहे वो खेल हों या शिक्षा का क्षेत्र या फिर कृषि और अनुसंधान.

भारत आज नई बुलंदियों की तरफ अग्रसर है और अपनी कोशिशों में कामयाब  भी हुआ है. आज़ादी के वक्त का भारत कितना बदल गया है. आज भारत में लंबी-चौड़ी सड़कें हैं जिन पर फर्राटा भरती अनगिनत कारें हैं, ऊंची-ऊंची इमारतें हैं, कंप्यूटर हैं, इंटरनेट है, आधुनिक दफ्तर हैं जहां दुनिया भर का बिज़नेस होता है. अब शेयर मार्केट की बातें हो रही हैं, नई तकनीक का विकास हो रहा है, लोग हवाई जहाज़ में सफर कर रहे हैं, फैशन और सिनेमा अब लोगों का मनोरंजन करता है, रहन-सहन के साथ-साथ खाने-पीने के तौर-तरीके भी बदल गए हैं; अब दाल-रोटी या हलवा-पूड़ी कौन खाता है! नए भारत में चाउमीन खाया जाता है, अंग्रेज़ों का बर्गर खाया जाता है या पिज़्ज़ा खाया जाता है. सबसे महत्वपूर्ण बदलाव तो परिधान में आया है और आज भारतीय पोषाक की जगह वेस्टर्न ड्रेर्स और जींस ने ले ली है. बदलाव का दौर जारी है जहां हर कोई भाग रहा है.

आधुनिकता की राह पर चलते हुए जब भारत में इतने बजदलाव देखने को मिले तो भला राजनिति कैसे अलग रह सकती है. देश की बागडोर बहुतों ने संभाली. यह कहना भी सरासर ग़लत होगा कि किसी ने कुछ नहीं किया. अगर ऐसा ही होता तो आज का भारत वैसा नहीं होता जैसा हम देख रहे हैं, जहां हम रह रहे हैं. बदलाव आया तो नेतृत्व में, क्योंकि अब बात होती है सत्ता की, करने से ज़्यादा काम करवाने की ताकत की. और जब सत्ता की होड़ लगती है तो बात नेतृत्व की नहीं नेता बनने की होने लगती है. बापू, तुम्हारे समय के भारत में और आज के भारत में यही फर्क है. तुमने कभी सत्ता का लोभ नहीं किया, कभी स्वार्थ का भाव नहीं रखा और न कभी अपने नाम की छाप छोड़ने की लालसा रखी.

अच्छा है आज गांधी नहीं हैं क्योंकि अगर होते तो शायद अपने आंसू रोक न पाते. आज़ाद भारत के नेता वैसे नहीं रहे. कहने को तो सभी दावा करते हैं कि उनके पास जो है बहुत सीमित है. पर क्या सचमुच ऐसा ही है? देख-सुन के तो ऐसा कहा नहीं जा सकता. आज का नेता स्वार्थी है, वो अपनी सुविधाओं के प्रति जागरूक है और उसने लच्छेदार बातें करने की कला सीख ली है, वो जानता है समाज को बांट कर रखोगे तो ही कामयाब रहोगे और कामयाब रहे तो निजी जीवन में कभी कष्ट नहीं आएंगे.


बापू, तुम्हारी ज़रूरतें सीमित थीं और जीवन सरल. आज ज़रूरतें असीमित हैं, और जीवन जटिल. गांधी की सादगी से जुड़े एक किस्से का ज़िक्र करना यहां प्रासंगिक लगता है. दूसरी गोल मेज़ वार्ता में भाग लेने गांधी जी 19 अगस्त, 1931 को बॉम्बे से लंदन के लिये राजपुताना जहाज़ से रवाना हुए. फ्रांस के मार्सेय शहर से दो ब्रिटिश जासूस जहाज़ में सवार हो गए. कस्टम के अधिकारी ने गांधी जी से उनके सामान की तलाशी लेने की बात कही. गांधी ने अपना सामान उनकी तरफ करते हुए कहा, I am a poor beggar. All that I have in my luggage is— six spinning wheels, porringers from the jail, one container of goat milk, six loin- clothes and a towel and my honour— which may not be of much value!” 

अब माहौल वैसा नहीं रहा. आज का नेता त्याग, तपस्या और काबिलियत से कोसों दूर है, वो सत्य और सत्याग्रह की राह से परे चलता है और अपना नाम थोप देना ही उसकी मंशा बन गया है. आज सत्ता की राजनीति है और सत्ता का संघर्ष है, पदवी की चाहत है. अगर सत्ता न हो तो कोई राजनीति में कदम तक नहीं रखेगा. आज कोई नेता इसलिये राजनिति में नहीं आता कि वह समाज से गरीबी दूर करेगा, वो पहले अपनी गरीबी दूर करता है. आज का नेता सर्वोदय से पहले स्वयं का उदय चाहता है. आज के नेता में सादगी नहीं आडंबर भरा हुआ है. आज का नेता राम के नाम में भी बिज़नेस ढूंढता है, रामराज की बातें करता है पर राज खुद का ही चाहता है, राम के तप, तपस्या और त्याग के आदर्श को तो वो जानता भी नहीं. सच कहें तो नए भारत का नेता राम की बातें मात्र ही करता है, राम को क्या समझेगा और क्या समझाएगा. यह तो सिर्फ बापू ही कर सकते थे और उन्होंने कर दिखाया भी.

बापू, आज का नेता इतना स्वार्थी हो गया है कि आज़ादी के संघर्ष की कहानी भी भूल गया है. अब यह बतलाने की कोशिश होती है कि भारत की आज़ादी में तुम्हारी कोई विशेष भूमिका नहीं थी. आज तुम्हें भुलाने की तमाम कोशिशें चल रही हैं. बस यही फर्क है उस नेतृत्व में जो तुमने दिया और नए भारत के नेता में जिसे हम सब देख रहे हैं, सुन रहे हैं, जान रहे हैं और समझ भी रहे हैं. तुमने कभी किसी को मिटाने की हल्की सी भी कोशिश नहीं की, तुमने तो बस अपना योगदान दिया उस काम के लिए जिसे तुमने ठान लिया था. कौन समझाए आसान नहीं था तुम्हारा सफर जिस दिन ट्रेन के डिब्बे से एक अंग्रेज़ ने तुम्हें बाहर फेंक दिया और बाद में तुमने उसी अंग्रेज़ी साम्राज्य को देश से ही बाहर फेंक दिया. 


आज भारत बहुत तरक्की कर गया है लेकिन कहीं नेतृत्व की कमी रह गई है. कहीं सम्मान की कमी खलती है, कहीं प्यार की चाहत रह जाती है, कहीं तपस्या का भाव ढूंढना पड़ता है, कहीं त्याग को तलाशना पड़ता है और कहीं आपसी मेलजोल बैठाने की बात करनी पड़ती है.

बापू, आज नेत़त्व की होड़ नहीं है, आज राज-काज की चाहत है, सत्ता का लोभ है, बातों में दोहरापन है, भाषणों में हल्कापन है, व्यक्त्तित्व में सच्चाई की कमी है और काबिलियत तो हवा हो गई. आधुनिक होना और तरक्की करना बुरा नहीं है पर इस दौड़ में अपने मूल्यों का त्याग परेशान करता है. आज के समाज में धोखाधड़ी, स्वार्थ, जमाखोरी, मुनाफाखोरी, रुपयों का लोभ, भ्रष्टाचार, अपराध, असुरक्षा, असमानता, फरेब, हिंसा, असमानता, अकेलापन, आत्मीयता का हनन, धर्म के नाम पर पैदा हो रही खटास जैसी समस्याएं पूरे समाज को अपने आगोश में ले रही हैं. तेज़ी से विकास करते भारत में भौतिक सुख आपकी पहचान बन गए हैं जिनके कारण आज आपके अपने सगे भी आपके नहीं हैं. लोग आपका प्रोफाइल देखकर आपसे जुड़ते हैं, आपका वैभव और स्टेटस बड़ी बात हो गया है और अगर आप किसी के काम नहीं आ सकते तो भला किसके पास टाइम है आपके लिये! तुमने समाज को एकजुट किया, ऊंच-नीच का भेदभाव खत्म किया लेकिन आज़ाद भारत के नेताओं ने समाज को कई हिस्सों में बांट दिया चाहे वह धर्म हो, चाहे जाति का फर्क हो या फिर अमीर-गरीब के बीच की दूरी हो. नए दौर में फायदा देखा जाता है लेकिन बात समानता की होती है.    

आज दो अक्टूबर (02 October), गांधी जयंती, के मौके पर जब तुन्हारा स्मरण करता हूं बापू तो तुम्हारी कमी महसूस करता हूं. सोचता हूं काश आज के बदलते भारत में तुम एक बार फिर से अवतरित हो जाते और भटके हुए कदमों को एक नई दिशा दे पाते. 

मेरे ख़्याल से.




Some facts about Gandhi

·       Born October 2, 1869, in Porbandar, Gujarat as Mohandas Karamchand Gandhi.

·       Married to Kasturba Kapadia (later Gandhi) at 13 in 1883.

·       They had four sons. Kasturba passed away in 1944.

·       Primary education in Rajkot. Goes to London to earn a degree in Law in 1888 from Inner Temple. Becomes a lawyer in 1891 at the age of 22.

·       Moves to South Africa in 1893 to contest a lawsuit of an Indian merchant. Lives in SA for another 21 years.

·       Returns to India in 1915 at the age of 45.

·       Assumes leadership of the Indian National Congress in 1921. Led several nationwide peaceful movements against the British Raj. 

·       Major movements: Champaran Satyagrah, Non-cooperation Movement, Dandi March (Salt Movement), Civil Disobedience Movement, Quit India Movement.

·       India gained Independence in August 1947. Gandhi’s efforts are recognised and appreciated throughout the world.

·       Assassinated in Delhi on January 30, 1948, by a Hindu fanatic Nathu Ram Godse who pumps three bullets into his chest.

·       Gandhi is given the status of the Father of the Nation in post-colonial India. During his lifetime he was addressed as Bapu, meaning father.

·       Gandhi’s birth anniversary on 2nd October is celebrated as Gandhi Jayanti and is a national holiday. Worldwide this day is celebrated as International Day of Non-violence.

·       Gandhi’s beliefs: Social reforms, rights of women, upliftment of the poor, the eradication of poverty, cleanliness & hygiene.

·       Pillars of Gandhian thought: Non-violence, Truth, Swadeshi, Satyagraha, non-stealing, self-control, non-possession.

·       Gandhi was a prolific writer. Wrote many articles, edited several newspapers like Young India, Indian Opinion and Navjivan. He wrote his autobiography, “The Story of My Experiments with Truth”.  

·      Gandhi practiced Hinduism and firmly believed in the teachings of Lord Rama.

·      Gandhi’s ashram, known as Sabarmati Ashram, in Porbandar, Gujarat, is visited by lakhs of people every year.

·      Ben Kingsley portrayed Mahatma Gandhi in the 1982 film “Gandhi” which won the Academy Award for Best Picture.




May 09, 2024

सत्ता में सियार !



व्यंग्य


अपूर्व राय
/  APURVA RAI

कई बार अख़बार में पढ़ा कि फलाना अफसर के घर से करोड़ों रूपए, गहना-जेवर, दूसरे महंगे सामान बरामद हुए. इतना ही नहीं अलग-अलग जगहों पर कई-कई मकान होने का भी पता चला (वैसे ब्लैक मनी से अनेकों मकान खरीदने का चलन सबसे ज़्यादा है). यह भी हम सब पढ़ते रहते हैं कि किसी नेता के पास भी करोड़ों की जायदाद है भले ही कागज़ कुछ और कहते हों. एक दिन एकांत में बैठकर सोच रहा था कि आखिर माजरा क्या है. अंत में एक बात समझ में आई कि सारा खेल सत्ता, यानि, पावर का है. 

कुछ ऐसे भी कहा जा सकता है कि जहां सत्ता हाथ में आई, गड़बड़ हुई. किसी सरकारी दफ्तर में काम पड़ जाए तो अफसर क्या, क्लर्क तक अपनी ताकत जता ही देता है. इसका तजुर्बा हम सभी को है किसी न किसी रूप में. सत्ता यानि पावर अपना रंग दिखाती ही है चाहे वो सरकारी दफ्तर हो या कॉरपोरेट. पावर किसी करेंट से कम नहीं. वो झटका देती है, दिखती है और महसूस भी होती है-- कभी किसी को तंग करके, कभी ऊपर की कमाई से और कभी किसी अपने पर कृपादृष्टि के ज़रिये. (कुछ अपने तो जगजाहिर होते हैं, और कुछ यह दर्जा प्राप्त कर लेते हैं अपनी अजब कला से.) गजब तो तब हो जाता है जब कमाई भी होती है, दूसरे को तंग भी किया जाता है और अपनों पर मेहरबानी की बरसात भी की जाती है. मतलब तीनों काम एक साथ. है न गजब की मल्टीटास्किंग ! (मोदी जी खामखां स्किल इंडिया का नारा देते रहते हैं. ऐसा वंडरफुल स्किल तो अपने यहां पहले से ही मौजूद है.) यह सब करने के बावजूद तुर्रा ये कि हम मेहनती हैं और कल्याण की भावना रखते हैं. मुझे तो कई बार सुनने को मिला, ‘believe me, I am your well-wisher’. पता नहीं कैसे हितैषी थे !

टीम में रखें हीरे 

इन सबसे ऊपर की एक बात और. वह ये कि ऐसी कौम बहुत मेधावी होती है ऐसी ज़रूरी नहीं. उनकी सारी ऊर्जा, दिमाग और काबिलियत बस यह गणित बैठाने में लगती है कि कैसे अपना खुद का फायदा हो जाए और नाम, सम्मान के साथ-साथ यश का सेहरा भी बंध जाए. इस गणित का एक सीक्रेट है— टीम में चंद काबिल लोगों को शामिल कर लो और फिर चांदी ही चांदी. वैसे अब यह सीक्रेट कम और मैनेजमेंट का अभेद फॉर्मूला अधिक माना जाता है. अमूमन हर संस्था में ऐसे चंद लोग मिल ही जाते हैं. बेचारों की किस्मत देखिये... दिन-रात खटते रहते हैं, नया-नया काम करते हैं, नई सोच, नई दिशा दिखाते हैं पर फिर भी कभी यश और धन के पात्र नहीं बन पाते. अपने संस्थान का महत्वपूर्ण हिस्सा ज़रूर रहते हैं पर पूछे तभी जाते हैं जब काम पड़ता है. वरना तो रोज़मर्रा की दिनचर्या है, अपना-अपना काम है. और हां, ये चमचों की श्रेणी में नहीं आते. ये बॉस की मीरा कहीं से नहीं होते, इनका अलग ही क्लास है. 


हम सभी ने अपने-अपने जीवन में ऐसा देखा है और महसूस भी किया है. कभी आप इसके भुक्तभोगी हुए होंगे या फिर आपने रिश्तेदारों, मित्रों, पड़ोसियों से ऐसे तमाम किस्से सुने होंगे. और कुछ नहीं तो आपके बच्चों को ऐसा तजुर्बा ज़रूर हुआ होगा जिसकी चर्चा उन्होंने आपसे की होगी और आपने बच्चों की एडजस्टमेंट और खड़ूंस बॉस की बुराई का ढिंढोरा पूरे जग में पीटा होगा. कुल मिलाकर ये कि हममे से कोई इससे अछूता नहीं. 

मेरा स्वयं का भी तजुर्बा कुछ अलग नहीं है. बहुतों को टॉप पर आते देखा. पहला काम मीटिंग बुलाई और सबकी तारीफ कर दी. अब चंद लोगों को ज़िम्मेदारी की भूमिका क्या दे दी कि आपका
सीना फूल गया. आप महसूस करने लगे कि वाह टॉप बॉस की नज़रों में आप ही आप हैं. अब क्या आपने दिन दूनी- रात चौगुनी मेहनत करनी शुरू कर दी. अच्छे नतीजे मिलने लगे. दोबारा मीटिंग बुलाई गई आपकी भूरी-भूरी प्रशंसा हुई. इस मीटिंग में तीन-चौथाई लोग तो आपसे जल-कुढ़ गए और आपके पक्के दुश्मन बन गए. लेकिन आपको क्या फर्क पड़ता है, आपका स्थान तो बॉस की नज़रों में बहुत ऊंचा है. अब खेल देखिये... अच्छे नतीजों का सेहरा बॉस के सर बंधा पर आपको क्या मिला. तारीफ के दो शब्द
! कुर्सी किसकी बची ? उनकी. तरक्की के लिए सबसे ऊपर नाम किसका गया ? उनका. सुविधाएं किसकी बढ़ीं ? उनकी. अब आप कहां? वहीं, जहां थे. जस के तस. 

हम सबके निजी जीवन में सत्ता का ऐसा खेल किसी के लिये फायदेमंद और किसी की नींद उड़ाने का काम करता है. और सत्ता में बैठा व्यक्ति मेधावी हो न हो, होशियार ज़रूर है. पूरी मलाई उसके पास. किसी ख़ास की बात क्या करें, उदाहरण तो हम सबके पास हैं. कोई नई बात नहीं है... सदियों से चली आ रही है. 

उसने पुकारा और हम चले आए

मुद्दा यह है कि आखिर यह विचार मेरे ख़्याल में आया क्यों

हुआ यूं कि बीते दिनों के एक साहब से अचानक मुलाकात हो गई. अकेले ही मॉल में कुछ खरीददारी करने आए थे. दूर से देख लिया और पुकारा. मेरे संस्कार मुझे इजाज़त नहीं देते कि कोई पुकारे तो अनसुना कर दूं. मैं उनकी तरफ बढ़ गया, हालांकि मुझे ऐसा करना नहीं चाहिये था. एक समय था जब अपनी पावर बनाए रखने के लिए वो कुर्सी से चिपक गए थे. हमसरीखों को नहीं दिखेगा पर कुर्सी और पावर को बचाए रखना आसान नहीं. कौन-कौन से पापड़ नहीं बेलने पड़ते, क्या-क्या वादे नहीं करने पड़ते और कितनी एड़ियां रगड़नी पड़ती हैं. पांव में छाले भी पड़ ही जाते होंगे, पर, शुक्र है वो दिखते नहीं. लोगों ने तो और भी बहुत कुछ बतलाया पर सब सुनी-सुनाई थी इसलिये यहां कुछ नहीं कहूंगा. पर आप सब समझदार हैं. इशारा भर ही काफी है. आखिर कुर्सी का महत्व भी इसीलिये है कि वो आपको पावर देती है. मैं जिन साहब की आवाज़ सुनकर रुका और उनके पास चला गया वो इसका जीवंत उदाहरण थे. 

वो मेरी तारीफ के पुल बांधते नही थकते थे, पर मलाई उन्हें ही मिलती थी. कहीं का दौरा हो तो वो जाएंगे, वीआईपी मीटिंग में वो ही जाएंगे, निर्देश जारी वो करेंगे और हम पालन करेंगे, सबसे ज़्यादा पावर उनके पास होगी, मोटा पैकेट उन्हें ही मिलेगा, गाड़ी-घोड़ा, घर-बार और चाटुकार भी उनके. हम बस छोटी-मोटी रेवड़ी में ही खुश रहे. उम्मीदों की लहरें हमारे अंदर भी जोर मारने लगी थीं. संत नहीं हैं हम, ख्वाहिशें हमारी भी हैं. सोचते थे कि खुद ही हमें भी एक-दो पायदान ऊपर उठा देंगे. आखिर काम की ज़िम्मेदारी तो हमारे ही सर थी न इसलिये रिवार्ड्स का ख़्याल भी आता था. पर कभी कहा नहीं. पता नहीं कौन सी बात थी जो हमें कुछ मांगने और कहने से रोकती थी. अब हुआ उलट. कुछ चाटुकार पोजिशन पा गए और हम काम ही करते रह गए. इस तरह के लोग हम जगह मिल जाएंगे जो दिन-रात काम करेंगे पूरी ज़िम्दारी के साथ, नया-नया आइडिया देंगे, छुट्टी भी कम से कम लेंगे वगैरह, वगैरह. 

पर आज मॉल में मिलना, उनका अकेलापन और मुझसे दिल खोलकर बातें करना एक अलग ही कहानी कह रहा था. एक समय में सत्ता के मद में झूमने वाले शख्स का सारा नशा आज उतर चुका था. पहली बार उनकी बातों में निस्वार्थ भाव देखा और कहीं अफसोस भी महसूस किया. कुछ बातें कही नहीं जातीं और कुछ बातों का ज़िक्र भी नहीं किया जाता. लेकिन न जाने कैसे वो बातें हो भी जाती हैं जो दिलों के अंदर रहती हैं और ज़ुबान तक पहुंच नहीं पातीं.

सत्ता के मद, कुर्सी की अटूट ख्वाहिश, चमचों की चाश्नी भरी दुनिया का अनुभव हम सभी को है. अंग्रेजी में इसे ही कहते हैं first-hand experience. ऐसे ही पावरफुल, खुदगर्ज़, चालाक और जगभलाई के नाम पर खुद की भलाई सोचने वाली कौम की ही तुलना सियार से की गई है. ऐसे सियार जिनके आगे शेर भी हो जाते हैं ढेर. अब कोई इससे अछूता हो तो निराला ही कहलाएगा. एक फिल्मी गाने की पैरोडी एकदम सटीक बैठती है, हम हैं चमचे सत्ता के, हमसे कुछ न बोलिए. जो भी सत्ता में आया हम उसी के हो लिए.. हम उसी के हो लिये.

सत्ता के कई सियार हमने अपने इर्द-गिर्द देखे हैं. कुछ ऐसे भी हैं जिनको देखा तो नहीं पर नज़दीक से महसूस किया. और कुछ ऐसे भी हैं जिनके बारे में अखबारों में पढ़ा, टीवी पर न्यूज़ में देखा और ट्रेन के सफर में लोगों को चर्चा करते हुए भी सुना.

आपके शहर में भी हैं और देश में भी

बात उन बड़े-बड़े अफसरों की जिनकी एक अलग दुनिया है. ये वो लोग हैं जो हमारे-आपके बारे में ही सोचते हैं, काम करते हैं और बेहतरी के नए-नए तरीके ढूंढते रहते हैं. बड़ी ज़िम्ममेदारी होती है इनके कंधों पर. और इन ज़िम्दारियों को निभाने के लिए खूब पावर भी मिलती है. खर्चे के लिए बजट भी मिलता है. कष्ट तो तब होता है जब जनता को समझने वाले जनता के बीच ही नहीं दिखते. थोड़ा भी अच्छा किया कि तारीफ के पुल बांध देते हैं लोग... वाह ज़िले को चमका दिया. वैसे चमकाने वाले कम ही सुनाई पड़ते हैं. 

यह अफसरी पाना आसान नहीं. बहुत मेहनत, लगन, निष्ठा और प्रतिभा के साथ-साथ किस्मत का भी साथ चाहिये. पढ़ाई के दिनों में पावर पोजिशन हासिल करने की चाहत में चुटिया बांधकर टेस्ट निकालते हैं. अब एक बार अफसर बन गए सो बन गए. जब तैयारी चल रही थी तब समाज-सेवा और देश के लिए कुछ कर दिखाने का भाव हिलोरें मार रहा था. सेलेक्शन होने के बाद सब फुर्र ! अब रुतबा है, पोजिशन है, सत्ता यानि पावर है और सुख-सुविधा है. पैसा भी है पर इसकी बात करना ठीक नहीं. कहीं पर आपको साहब कहा जाता है, कहीं हुज़ूर तो कहीं मालिक. कुर्सी मिली तो सत्ता भी हाथ आ गई और जी हुज़ूरी करने वालों का भी तांतां लग गया. सबकी बात करना उचित नहीं होगा पर कुछ अफसरों ने पूरी जमात को ही बदनाम करके रख दिया. नेताओं के साथ सांठ-गांठ, पावर का फायदा, रुपयों की हेराफेरी, सुविधाओं का भरपूर लाभ और न जाने क्या-क्या, कैसे-कैसे. जब ख़बर सुर्खियों में छपी तो पता चला कि हमारे ही शहर का कल्याण करने वाले जी भरके अपना ही कल्याण कर रहे थे. बहुतों के बारे में पढ़ा होगा अख़बारों में. यही हैं सत्ता के सियार और अजब है सत्ता की दुनिया. कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है कैसे इतना बदल गई इनकी सोच? क्यों भुला दिया तैयारी के दिनों के वसूलों को? और सबसे बड़ी बात कि कितना कमाना चाहते थे? अगर तिजोरी ही भरनी थी और अपनों को ही फायदा करवाना थो तो फिर यही रास्ता क्यो चुना? कुछ और भी तो सोच सकते थे


शहर के अफसरों से छुट्टी मिले तो आपका राज्य और राष्ट्र चलाने वालों की तरफ भी देख लीजिये. ये लोग नेता कहलाते हैं और टॉप पोजिशन, टॉपमोस्ट पावर पर ही यकीन रखते हैं. इससे नीचे कुछ मंज़ूर नहीं. सबसे ऊंची कुर्सी, सबसे ताकतवर पोजिशन, वीआईपी स्टेटस और जलवा इनकी पहचान है. जब सड़क पर चलते हैं तो इनकी गाड़ी की रफ्तार आपको इनका परिचय दे देगी, किसी समारोह में पहुंचे तो इनकी तारीफ के पुल बांध दिये जाएंगे, कोई जाने या न जाने पर चरण स्पर्श सब करते दिखेंगे, इनकी सीट जनता की सीट से अलग होगी, खाना जनता के खाने से अलग होगा. यही हैं सत्ता के सियार. पोजिशन बनाने के लिए साम-धाम-दंड-भेद कुछ भी अपना सकते हैं. जनता के सबसे बड़े शुभचिंतक, पर असलियत में अपनी चिंता सबसे ज़्यादा. 

बहुतों का जीवन ही इसी में बीत गया. उनकी ज़िंदगी नेतागिरी में बीती सो बीती बच्चों को भी सी दुनिया का रास्ता दिखा दिया. शायद सफलता के दूसरे रास्ते कठिन थे और कड़ी मेहनत और प्रतिभा मांगते थे. बेचारे लाडले कहां से करते ये सब. इन्होंने तो सत्ता का लुत्फ बिना सत्ता प्राप्त किये उठाया है.

सत्ता और सफलता का शॉर्टकट आपसे बेहतर कौन जानता है. गोटी बैठाना भी आपसे बेहतर कोई नहीं जानता. तो फिर क्या है, सत्ता का दामन थामे रहो, फायदा पहले दिन से मिलेगा और एक दिन कुर्सी भी मिल जाएगी. एक बार कुर्सी मिलने भर की देर है, ऐसा चिपकेंगे कि उतारे नहीं उतरेंगे. कुर्सी पर बैठे नहीं कि बन गए Yes Minister. पावर का असली मज़ा तो यही वर्ग उठाता है. क्या अफसर, क्या कोई दूसरा. सारी दुनिया आपके पीछे. भले ही कुर्सी कुछ वर्षों के लिए मिलती है पर आनंद जीवन भर का दे जाती है. मिनिस्टर के जलवे क्या कहने. कोई रोकटोक नहीं. कहते हैं न ‘Power corrupts and absolute power corrupts absolutely’. कितना सटीक बैठता है सत्ता के इन सियारों पर.

पोल तो तब खुलती है जब कोई फंस जाता है और मामला उछल जाता है. अखबार में सुर्खियां आपकी मेहनत की कहानी बयान करती हैं तो पता चलता है आप कितने यशस्वी थे. कितने ही पावरफुल मिनिस्टर आए और गए. कभी कोई जनता के बीच नहीं दिखा, न सत्ता के रहते और न सत्ता छिनने के बाद. आप किसी ऐसे मेहनती मिनिस्टर को जानते हों जिसका निवास आपके आस-पड़ोस में हो ता ज़रूर बतलाइयेगा. धन्य जाएंगे हम. आपको कभी कुछ ऐसा याद पड़ता है कि आप किसी रेस्टोरेंट में खाना खाने गए हों और कोई मिनिस्टर सामने वाली टेबल पर बैठा हो ? या फिर कभी मोहल्ले की टेयरी शॉप पर कोई विधायक तैला लेकर दूध लेने आया हो ?

इनकी तो छोड़िये इनके सुपुत्रों के कारनामों के किस्से भी कम नहीं हैं. आप भी दो-चार जरूर जानते होंगे. नहीं जानते होंगे तो ऐसे सुपुत्रों के बारे में चर्चा ज़रूर सुनी होगी या फिर कहीं पढ़ा होगा. मतलब ये कि बाप के पास सत्ता और मद में पुत्र. देखिये सत्ता का कमाल, महसूस कीजिये सत्ता के सियारों का जलवा !


काम करने वाले जीतें हैं शान से

मेरे ख़्याल में बार-बार यही आता है कि भला आप और हम सत्ता के पागलपन का रस चखने से कैसे चूक गए. मेहनत करने में हमने कौन सी कमी की. काम ऐसा करते रहे कि इन सियारों को हम पर फक्र रहता था. आखिर कौन सी बात थी कि हम और आप सत्ता के पास होकर भी मलाई खाने से रह गए. कोई कमी थी क्या? शायद थी. हम काम जानते थे, यशस्वी थे, एक स्तंभ की तरह डटे थे, योग्यता थी जिसका फायदा उठाना उसूलों में शुमार नहीं था, शेर की तरह 56 इंच का सीना लिए फिरते थे, निडर थे, मन में ख्वाहिशें ज़रूर थीं पर लोभ नहीं था, अपने आसपास लोग पसंद थे पर चाटुकार नहीं.

मशहूर साहित्यकार हरिशंकर पारसाई का कहना गलत नहीं है कि सियारों की बारात में शेर ढोल बजाते हैं”.

मैंने शेरों की जमात में खड़ा रहना पसंद किया. जीवन में ख़्वाहिशें ज़रूर पालीं पर सियार कभी नहीं बनना चाहा. पारसाई जी ने जो कुछ  कहा वो यथार्थ है, सच्चाई है. पर यह भी सच्चाई है कि मुझ जैसे शेर न हों तो सियारों की बारात भी नहीं सजेगी.

मैंने और मुझसरीखे ढेरों लोगों ने शेर की ज़िंदगी बिताई है. सियार कोई था तो वो कोई और था. दोनों में दोस्ती नहीं हो सकती. यही वजह है सियार अपनी जगह हैं जो मुंह चुराए घूमते हैं, कोई नया काम मिलते ही बगलें झांकने लगते हैं और तलाशने लगते हैं ऐसे लोग जो उनका मान बनाए रखें. उधर शेर सीना ठोंक कर घूमते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है उनकी जगह कोई नहीं ले सकता. मैं शेर था इसीलिए मॉल में पुराने सियार के पुकारने पर मिलने चला गया. मैं जानता था उसे मेरी ज़रूरत आज भी है, मुझे उसकी नहीं. मुझे पहचानना उसकी मजबूरी थी, उसे मैं पहचानूं यह ज़रूरी नहीं. मेरे ख़्याल से !

सुनिये एक खूबसूरत और ज़बरदस्त नग़मा हिंदी फिल्म इज़्ज़्त’ (1968) से: