July 29, 2022

प्रेमचंद की शख़्सियत



अपूर्व राय/ Apurva Rai

एक बार फिर 31 जुलाई आ गई है और इस साल उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की 142वीं जयंती मनाई जा रही है. जयंती का मौका है तो गोष्ठियां हो रही हैं, समारोह हो रहे हैं, उनकी रचनाओं का मंचन हो रहा है और कहीं कथागोई हो रही है.

एक ऐसे समय में जब शिक्षा का विस्तार न के बराबर था, स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई हज़ारों में एक को प्राप्त होती थी प्रेमचंद ने शिक्षा भी हासिल की और कलम का ऐसा जादू दिखाया कि दुनियावाले स्तब्ध रह गए. कायस्थ परिवार में जन्में प्रेमचंद को अगर कलम का जादूगर भी कहा जाए तो ग़लत न होगा.

मुंशी अजायबराय श्रीवास्तव और आनन्दी देवी के पुत्र धनपतराय श्रीवास्तव का जन्म 31 जुलाई, 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के समीप लमही ग्राम में हुआ था. यही धनपतराय आगे चलकर मुंशी प्रेमचंद के नाम से विश्वविख्यात हुए और उनका लेखन हर-दिल-अज़ीज़ बन गया, आज भी है और आने वाले लंबे दौर तक बना रहेगा.  आज भी कोई ऐसा शख़्स नहीं होगा जो यह कह दे कि उसने प्रेमचंद को नहीं पढ़ा है. बेशक खरीद कर न पढ़ा हो, दो-चार उपन्यास न पढ़े हों, अनेकों कहानियां न पढ़ी हों पर कुछ-न-कुछ तो स्कूली सिलेबस में ज़रूर पढ़ा है. यह बात दीगर है कि स्कूल के सिलेबस में पढ़कर पूरे में से पूरे नंबर ले आए किन्तु बाद में कभी अलग से और ज़्यादा पढ़ने की इच्छा न हुई हो. स्कूल की मजबूरी ही सही पर प्रेमचंद की कहानियों ने हम सबके दिलों को छुआ ज़रूर है. और ऐसा छुआ है कि तमाम उम्र उसे भुला पाना नामुमकिन है. यही वो बात है जो प्रेमचंद के प्रेमचंद बनाती है.

जब बात स्कूल की, सिलेबस की और शिक्षा की चल पड़ी है तो प्रेमचंद की शिक्षा का ज़िक्र करना भी ग़लत न होगा. उन्होंके उस ज़ाने में स्कूल और कॉलेज से डिग्री हासिल जब यह हर किसी की सोच तक से परे थी. उन्होंने 1898 में मैट्रिक (हाई स्कूल) पास किया और एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए. इसके बाद 1910 में उन्होंने अंग्रेज़ी, दर्शन (फिलॉसोफी), फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया. 1919 में उन्होंने बी.ए. की डिग्री हासिल की और शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हो गए.  यहां ग़ौर करने वाली बात यह है कि प्रेमचंद के मैट्रिक और इंटर करने के बीच में एक लंबा फासला है. इस फासले की वजह यह है कि उस ज़माने में इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए गणित अनिवार्य था जो उन्हें कतई पसंद न था. लिहाज़ा उन्होंने तब तक इंतज़ार किया जब तक गणित की अनिवार्यता खत्म न हो गई. इसके बाद उन्हें कौन रोक सकता था.

प्रेमचंद की लेखनी ही नहीं उनकी शिक्षा के प्रति लगन भी आज के छात्र-छात्राओं के लिए प्रेरणास्रोत है.  आज के दौर में कौन भला इंतज़ार की बात सोच सकता है. लेकिन प्रेमचंद के अंदर आगे पढ़ने की ऐसी ललक थी कि उन्होंने उस बाधा के हटने का लंबा इंतज़ार किया जो उनको आगे पढ़ने से रोक रही थी. जैसे ही बाधा हटी, रास्ता साफ हुआ और वो आगे बढ़ निकले. जिस इंसान में सही मायने में लगन होती है वो ऐसा ही होता है शायद. आज के आधुनिकता के दौर में इंतज़ार, सब्र जैसे गुण शायद विलुप्त हो गए हैं. आज का छात्र अव्वल रहना चाहता है लेकिन ऊंचे नंबरों के सहारे न कि सच्चे ज्ञान के ज़रिये. अब नंबर कैसे लाए जाएं, क्या पढ़कर लाए जाएं, कहां से पढ़कर लाए जाएं जैसी बातें अधिक महत्वपूर्ण हो गई हैं. आपकी निष्ठा नंबरों की इस दौड़ में कहीं खो गई है. आज तक कितने लोगों ने पूछा प्रेमचंद के नंबर कितने आते थे. उन्होंने अपने गांव, शहर या ज़िले में टॉप नहीं किया था. उनके डिग्री हासिल करने की ख़बर अखबारों में नहीं छपी थी. प्रेमचंद इसलिए नहीं जाने जाते कि उन्होंने कोई बड़ी परीक्षा उत्तीर्ण की थी. ऐसा भी नहीं है कि यह सब उस ज़माने में नहीं था. ज़रूर था, लेकिन प्रेमचंद का मकसद दौड़ लगाना नहीं था. सौ में सौ लाने वाले आज के छात्र प्रेमचंद की कहानी की बात तो करते हैं लेकिन सिलेबस में पढ़ी कहानी के अलावे दो कहानियां या उपन्यास भी नहीं गिना सकते, पढ़ने और समझने की बात तो दूर रही. उनकी लगन की तरफ इन बच्चों का ध्यान जाता ही नहीं. काश प्रेमचंद आज के छात्रों के लिए मेहनत और लगन की मिसाल बनते और कुछ बेहतर कर दिखाते बजाय उस दौड़ का हिस्सा बनने के जिसका कोई अंत नहीं और शायद कोई फलसफा भी नहीं. अपनी काबिलियत में इजाफा करना ही शिक्षा का असली मकसद होता है और डिग्रियां उसका ज़रिया. मेरे ख़्याल से.

पारिवारिक संघर्ष

प्रेमचंद अभी छोटे ही थे कि उनकी माता का देहांत हो गया और उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया. अजायबराय की दूसरी पत्नी ने भी एक पुत्र महताब राय को जन्म दिया. प्रेमचंद को परिवार में एक छोटे भाई का सुख प्राप्त हुआ. अभी परिवार चल ही रहा था कि कुछ वर्षों पश्चात अजायबराय चल बसे. परिवार के लिए कठिन समय आ गया. विमाता के बाद प्रेमचंद ही घर के ज्येष्ठ पुत्र थे और ज़िम्मेदारियां उनके कंधों पर आ पड़ीं. ऐसे कठिन समय में भी उन्होने अजब समझदारी, साहस और  परिपक्वता का परिचय दिया. कई लोग प्रेमचंद की विमाता की चर्चा ज़रूर करते हैं पर किसी ने भी कभी पारिवारिक वैमनस्य, कटुता या इख़्तिलाफ की बात नहीं की. और अगर की तो यह सरासर ग़लत होगा. 

कम ही लोग जानते हैं प्रेमचंद और उनके अनुज महताब राय, जिन्हें वो छोटक कहकर पुकारते थे, के रिश्तों के बारे में. दोनों भाइयों में उम्र का बड़ा फासला था लेकिन फासले भी कभी नज़दीकियां पैदा कर देते हैं. बड़े होने के नाते उनका प्रेम छोटे भाई पर सदा बना रहा. महताब खुद मेधावी थे और उस ज़माने में प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी की शिक्षा कलकत्ते से हासिल की थी. बड़े होने के ही नाते प्रेमचंद को अपने अनुज का आदर और सम्मान ताउम्र मिलता रहा जिसके वो हक़दार थे. जीते जी ही क्यों मरणोपरांत भी छोटक ने वो किया जो भाई प्रेम की मिसाल है और सदा रहेगी. प्रेमचंद की मृत्यु के पश्चात भारत सरकार की तरफ से तत्कालीन राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद ने लमही गांव में स्मारक बनाने की इच्छा ज़ाहिर की. समस्या तब उत्पन्न हुई जब कुर्मियों के बहुल्य वाले गांव में किसी ने भी एक कायस्थ के लिए ज़मीन देने से इंकार कर दिया. महामहिम की मुलाकात महताब से हुई. ऐसे समय में छोटे भाई ने वो फैसला लिया जो आज के ज़माने में कोई सोचने मात्र से सिहर जाता. महताब ने अपना घर, जो प्रेमचंद निवास से सटा हुआ था और अंदर-ही-अंदर जुड़ा भी था, सरकार को पेश कर दिया. इतना ही नहीं छोटे भाई ने सके बदले एक रुपया भी मुआवज़े के तौर पर स्वीकार नहीं किया. वो कर भी नहीं सकते थे क्योंकि परिवार की प्रतिष्ठा और बड़े भाई के प्रेम से बड़ा और क्या हो सकता है !

आज लमही में जो प्रेमचंद का स्मारक हम सब देखते हैं वह एक ज़माने में महताब राय का घर हुआ करता था. घर देने के बाद महताब राय अपनी पत्नी, नौ बच्चों और माता के साथ वाराणसी शहर में किराए के एक घर में रहने लगे. किस्मत की बात देखिये कि वह दोबारा अपना घर नहीं बना पाए और शहर के जगतगंज इलाके के उस किराए के घर में ही उनका निधन हुआ. इसे ईश्वर का वरदान ही कहेंगे कि महताब राय कि सभी संतानों ने उच्च शिक्षा हासिल की और जीवन में अपने माता-पिता का नाम रोशन करने के साथ ही परिवार की प्रतिष्ठा को चार-चांद लगाए. जिन नौ संतानों के पिता ने अपना घर भाई के स्मारक के लिए सरकार के हवाले कर दिया और सारी उम्र किराए के घर में गुज़ार दी उन सभी संतानों में से कोई ऐसा नहीं रहा जिसने अपना घर न बनवाया हो. ऐसा तभी मुमकिन है जब ईश्वर की कृपा हो, पिता प्रतापी हो और संताने मेहनतकश. मैं उनके तीसरे पुत्र विनय कुमार राय का पुत्र हूं. मेरे पिता का जन्म भी लमही गांव में हुआ, प्रारंभिक शिक्षा सारनाथ और वाराणसी के मशहूर क्वींस कॉलेज और उच्च शिक्षा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से हुई. यह भी इत्तेफाक की बात है कि जब विनय बीएचयू में पढ़ रहे थे तब भारत के राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन उसके वाइस चांसलर थे और उनके गुरू भी. कई जगहों पर काम करते हुए वो दिल्ली आ बसे और वहीं नोएडा में अपने आवास का निर्माण कर जीवन के आखिरी पल बिताए.

उधर ऐसा नहीं था कि प्रेमचंद ने बहुत रुपया कमाया. वो खुद आजीवन आर्थिक संघर्ष करते रहे और यह बात सर्वविदित है कि उनका निधन अच्छा इलाज न मिलने के कारण हुआ. अगर उन्हें किसी अच्छे शहर के बड़े डॉक्टर का इलाज मिल जाता तो शायद वो कुछ वर्ष और साहित्य की सेवा कर पाते और वो सब काम पूरा कर पाते जिन्हें वो अधूरा छोड़ गए.  प्रेमचंद का जब निधन हुआ तो उनके पास भी बैंक बैलेंस नाम की कोई चीज़ नहीं थी. लेकिन इसे उनका प्रताप और प्रभु का आशीर्वाद ही कहेंगे  कि उनकी तीन संतानों ने अपने पिता का नाम खूब रोशन किया. उनके दोनों पुत्र श्रीपत राय और अमृत राय योग्य पिता की योग्य संतान कहलाए और हिंदी साहित्य की वो ख़िदमत की जो फ़कीद-उल-मिसाल है.

महज़ प्रेमचंद का जीवन ही संघर्षमय नहीं रहा बल्कि पूरा परिवार ही इससे जूझता रहा. सफलताएं मिलीं पर इसमें एक पीढ़ी चली गई. आज जब हम प्रेमचंद की बात करते हैं, उनके लेखन की बात करते हैं, उनके संघर्षों की बात करते हैं तो ऐसे में हम उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते.

थोड़ा हटकर है लेकिन यह कहना अनुचित भी नहीं कि प्रेमचंद के पुत्र श्रीपत और महताब राय के पुत्र और  मेरे पिता विनय कुमार राय दोनों ही दिल्ली में आ बसे थे. दोनों भाइयों में उम्र का बड़ा फासला था; श्रीपत मेरे पिता से काफी बड़े थे. तीन दशकों से अधिक दोनों का साथ रहा और मेरी स्मृति में कोई महीना ऐसा नहीं गुज़रा जब दोनों एक-दो बार आपस में न मिलते रहे हों, दोनों के बीच लिहाज़, आदर, फिक्र और स्नेह में कभी कोई कमी आई हो या फिर दोनों ने साथ बैठकर घंटों एकांत में गप्प न की हो. आज जबकि दो सगे भाई एक-दूसरे से नहीं मिलते ऐसे में भ्राता प्रेम की मधुर यादें और तमाम बातें मेरे दिमाग में ताज़ा-तरीन हैं.

आज संपूर्ण प्रेमचंद परिवार खुशहाल और यशस्वी परिवार है और यही बात सीखने की है. आज के नए दौर में जब बात डिग्री ख़त्म होने से पहले नौकरी मिलने और सालाना पैकेज की होती है तो कुछ अजीब सा लगता है. आज जब लोग अपना ही ख़र्च उठाने में दिक्कत महसूस करते हैं तो कुछ अजीब सा लगता है. आज जब लोग माता-पिता की ज़िम्मेदारी, भाई-बहन के खर्च को बोझ कहने लगते हैं तो कुछ अजीब सा लगता है. ज़रूरत महज़ प्रेमचंद की किताबों को पढ़ने की नहीं है बल्कि उस शख्सियत के जीवन को भी पढ़ने की है जो हमें बहुत कुछ प्रेरणा और शिक्षा दे जाता है. मेरे ख़्याल से.

जीवन की सादगी

पिछले कुछ समय से प्रेमचंद की एक तस्वीर बहुत चर्चा में है जिसमें वो अपनी पत्नी शिवरानी देवी के साथ एक कुर्सी पर बैठे हुए हैं. तस्वीर को चर्चा में आने की वजह प्रेमचंद के फटे जूते हैं जिसमें से शायद उनके पैर की उंगलियां बाहर आ रही हैं. यह तस्वीर मुझे भी कई जगहों से प्राप्त हुई. अब समझ में नहीं आ रहा कि क्या कहूं. मैंने किसी को जवाब तो नहीं दिया पर मन में सोचा ज़रूर कि लोग सोशल मीडिया के ज़रिये तस्वीर एक-दूसरे को भेजकर आखिर कहना क्या चाहते हैं. अजीब से लगता है जब फटे जूते पहनने वाले प्रेमचंद की तस्वीर शेयर करने के बाद खुद महंगे जूते पहनकर बाज़ार में निकल जाते हैं. 

मैंने इस तस्वीर में प्रेमचंद के जूतों के अलावे और भी बहुत कुछ देखा. इस तस्वीर को दोबारा देखिए और आप पाएंगे कि जिस कुर्सी पर वो महान कथाकार बैठा है क्या आप वैसी कुर्सी पर बैठना पसंद करेंगे? बैठना तो दूर शायद आप ऐसी कुर्सी अपने घर पर रखना भी पसंद न करें. इतना ही नहीं, आप उनके और उनकी पत्नी के वस्त्रों को भी देखिए. एकदम साधारण सूती धोती-कुर्ता है दोनों की देह पर. आज के दौर में इतने साधारण वस्त्र कौन धारण करता है. ज़माना तो ऐसा आ गया है कि काम जैसा भी हो वस्त्र बेहतरीन होने चाहिएं. आप उस कमरे को भी देखिए जिसमें दोनों बैठे हैं. निहायत साधारण चार दीवारें हैं, और पीछे का दरवाज़ा ऐसा कि कोई पसंद भी न करे. आज हम शानदार कमरों में बैठते हैं, महंगे पर्दे लगवाते हैं, महंगा फर्नीचर रखते हैं, महंगी कालीन डलवाते हैं, एयरकंडिशनर के बिना गर्मी में बेचैन हो जाते हैं और न जाने क्या-क्या. पर इन सबके बावजूद हममें से कितने लोग जीवन में एक काम भी ऐसा कर जाते हैं जो दूसरों के लिए मिसाल बने? अजीब सा लगता है !

दुनिया में सबने प्रेमचंद के फटे जूते तो देखे पर कितनों ने उनके चेहरे को ग़ौर से देखा. अब देखिये और महसूस कीजिये उनके चेहरे पर झलकता सुकून, ललाट पर छाई प्रतिभा और होठों पर न रुकने वाली मुस्कान. इतना ही नहीं उनके माथे पर कहीं शिकन या तनी हुई भवें दिखाई पड़ती हैं? कतई नहीं. मुफलिसी और सादगी में भी कितना खुश है वो इंसान. लेखनी के अलावा यही वो ख़ुसूसियत है जो प्रेमचंद को असाधारण होने का दर्जा प्रदान करती है.

महसूस तो यही होता है कि प्रेमचंद की सादगी का पाठ पढ़ने में लोगों से कहीं चूक हो गई. सादगी दिखावे की चीज़ नहीं है और न ही दूसरों को नसीहत देने की. सादगी वो भी नहीं कि आप निभाने की उम्मीद तो किसी और से रखें और खुद दिखावे की दौड़ में शामिल हों. सादगी एक जीवन का दर्शन है, एक दिनचर्या है जो वही अपना सकता है जो मेहनत, सब्र, त्याग और ज़िम्मेदारी निभाने में यकीन रखता है. प्रेमचंद का जीवन सादगी, संस्कार और परंपरा की एक बेहतरीन मिसाल है. काश आज की पीढ़ी भी इससे सबक ले पाती. मेरे ख़्याल से. 

मैं इसे अपनी खुशकिस्मती मानता हूं कि मेरा जन्म ऐसी महान शख़्सियत के कुन्बे में हुआ. यह भी मेरी खुशनसीबी है कि मेरे पूर्वज न सिर्फ मेहनतकश और काबिल थे बल्कि संस्कारों के भी धनी थे. मुझे इस बात पर फक्र है कि मैंने विरासत में ऐसे गुण पाए हैं जो मुझे आडंबर से जुदा रखते हैं, सादगी में यकीन दिलाते हैं, आदर, सम्मान और त्याग की भावनाओं की कद्र करना सिखाते हैं. तो आप अगली मर्तबा जब भी प्रेमचंद की तस्वीर देखें तो उनके जूतों को ही न देखें, आप उनके चेहरे को भी देखें जहां आप तसल्ली का भाव पाएंगे, उनके ललाट को देखें जहां तेज़ दमकता होगा, उनके माथे को देखें जहां शिकन नदारद मिलेगी और उनके होठों को देखें जो हर हाल में मुस्कुराते रहने का पैगाम देते हैं. 

ऐसी महान शख़्सियत को मेरी श्रद्धांजलि.

 


4 comments:

  1. बहुत ही खूबसूरत लिखा है 🌻

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  2. बहुत बढ़िया लिखा है. प्रेमचंद के बारे में बहुत कुछ नया मालूम हुआ. वैसे चाहिए तो एक लेख प्रेमचंद की मौजूदा पीढ़ी के बारे में लिखिए कि उसमें कौन कितना साहित्य से जुड़ा है या क्या कर रहा है. परिवार का कोई शख्स लम्ही में रहता भी है या फिर सभी शहर की ओर कूच कर गए हैं. इस लेख के लिए बधाई.

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    1. जी ज़रूर. वैसे अब चंद ही लोग साहित्य के क्षेत्र से जुड़े हैं. फिर भी प्रयास करूंगा परिवार के कुछ ऐसे लोगोे के बारे में बताने का जिनकी रुचि साहित्य अथवा लेखन आदि में है. आं, समही में अब कोई नहीं रहता. यहां तक कि वाराणसी में भी दो-चार लोग ही बचे हैं.

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