September 22, 2019

मोदी 2.0: दूसरी पारी, पहला शतक





अपूर्व राय

शतक का एक अलग ही मज़ा है और हम सब इससे वाकिफ भी हैं. याद कीजिये बचपन के वो दिन जब एक से सौ तक की गिनती रटाई गई थी. धीरे-धीरे जब बड़े हुए तो क्रिकेट के खेल में शतक का महत्व समझ आने लगा. कहीं घूमने गए तो सौ साल पुराने दरख्त के दीदार किये या फिर कई सौ साल पुराने पीर बाबा की मज़ार पर फूल चढ़ाए और सर झुकाकर सजदा किया या फिर किसी पहुंचे हुए संत-महात्मा के दर्शन को जब पहुंचे तो बताया गया कि महात्मा जी की उम्र सौ साल से ऊपर है पर वो ऐसे दिखते नहीं, और इतना जानते ही मन में श्रद्धा कई गुना और बढ़ गई. अख़बार में देश-दुनिया की ख़बरें पढ़ते हुए जब किसी बुज़ुर्ग की सौवीं वर्षगांठ के मनाए जाने पर नज़र पड़ी तो मन व्याकुल हो उठा और बाकी सब कुछ छोड़कर पहले वही ख़बर पढ़ी और वो तस्वीर देखी. अब हम में से हर कोई तो साल की उम्र हासिल कर नहीं पाता लेकिन अपने हर जन्मदिन पर शतायु होने का आशीर्वाद हर किसी से हर साल ज़रूर मिला जाता है. और तो और घर में कोई छोटा-मोटा आयोजन किया तो पत्तल और चम्मचें सैकड़े के हिसाब से ही खरीद कर लाए. चाट खाने के लिए गोल-गप्पे या फिर कहें तो बताशे भी सैकड़े के हिसाब से लाए और खाने के बाद मेहमानों के लिए पान के पत्ते भी सैकड़े में मिले.  

वाह, कभी सोचा न था कितनी अहमियत है सौ की हमारी ज़िंदगी में!

सौ का दम
अब जब सौ का आंकड़ा ज़िंदगी के हर पहलू में छाया है तो ध्यान देश चलाने वाली सरकार के पहले सौ दिनों पर जाना भी लाज़मी है.

आखिर हम सबने ने मिलकर बड़े जतन से चुनाव में हिस्सा लिया था और सरकार चुनी थी इस उम्मीद से कि सरकार अपने वादों पर अमल करेगी, उन सपनों को साकार करेगी जो उसने चुनाव से पहले दिखाए थे और ऐसी नीतियां बनाएगी जिनसे हमारा जीवन सहज होगा, परेशानियां कम होंगी, रहन-स्तर का ऊपर उठेगा और देश की छवि भी चमकेगी. वैसे तो सरकार पांच साल कि लिये चुनी जाती है और ऐसे में पहले सौ दिनों में किसी करिश्मे की उम्मीद करना ठीक मगर आगाज़ बता देता है कि आने वाले दिनों में देश का मिजाज़ कैसा रहेगा.

मोदी की दूसरी पारी का आगाज़ भी बुलंद रहा, कुछ-कुछ मोदी के जैसा. मई 2019 में सरकार बनी और सौ दिन बीतते-बीतते कुछ ऐसी तस्वीर सामने आ गई कि सभी सन्न रह गए. सरकार को लोगों का समर्थन मिला लेकिन, जैसा हम सब समझ सकते हैं, उसे विरोध का भी सामना करना; आखिर वो जम्हूरियत ही कैसी जहां विरोध के स्वर न गूंजें.

मोदी सरकार के जिन फैसलों ने खलबली मचा दी उनमें से कुछ पर एक नज़र:

1) अनुच्छेद 370 और 35 A: अपने कार्यकाल के पहले सौ दिनों में मोदी सरकार का सबसे चौंकाने वाला और सबसे विवादित फैसला अनुच्छेद 370 और 35 A का हटाना कहा जा सकता है. कुछ सालों से इसे खत्म करने की मांग भी हो रही थी पर मामला इतना विवादित था कि किसी भी सरकार ने इस दिशा में ध्यान देने की ज़ुर्रत तक नहीं की. साल 2019 के चुनाव में बीजेपी भारी बहुमत के साथ आई और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विवादित अनुच्छेद को खत्म कर डाला. लोग स्तब्ध रह गए. बहुतों ने बहुत विरोध किया लेकिन उससे कहीं ज़्यादा लोग समर्थन में आगे आ गए. अब जम्मू-कश्मीर और लद्दाख देश के अन्य राज्यों की तरह ही भारत का समान हिस्सा बन गए हैं. दोनों ही राज्यों को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिल गया है.

2) तीन तलाक: मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार का एक दूसरा फैला मुसलमान महिलाओं को तीन तलाक जैसी कुरीति से मुक्ति दिलाना है. मोदी तीन तलाक खत्म करने पर अड़े थे और दूसरी पारी के पहले सौ दिनों में ही इसे खत्म कर डाला. एक बार फिर विरोध हुआ लेकिन पूरे देश की मुसलमन महिलाओं ने खुलकर इसका ख़ैरमकदम किया.   

3) बैंकों का महाविलय: बीजेपी की सरकार के पहले सौ दिनों में लिया जाने वाले एक और बड़ा फैसला देश के 10 बड़े बैंकों का आपस में विलय करना है. इस तरह अब देश में सरकारी बैंकों की संख्या 18 से घटकर 12 रह गई है.

4) नया मोटर कानून: हमारे देश में सड़क दुर्घटनाओं से हर साल तकरीबन डेढ़ लाख लोग अपनी जान गंवा देते हैं. इस तरह की दुर्घटनाएं वाहन चालकों की लापरवाही, सड़क नियमों की अंधाधुंध अनदेखी, सड़क पर मनमर्ज़ी और खिलवाड़ के कारण होती हैं. सरकार ने 1 सितंबर से नया मोटर अधिनियम लागू कर दिया जिसके कारण सड़क नियमों को हल्के में लेना अब महंगा पड़ेगा. इस नियम का भी बहुत लोगों ने विरोध किया क्योंकि पकड़े जाने पर जुर्माने की राशि पहले के मुकाबले बहुत ज़्यादा हो गई है और यही बात लोगों को खल रही है.

दरअसल न तो कोई जुर्माना देना चाहता है और न ही यातायात नियमों का पालन करना चाहता है. हमारे यहां एक अजीब सी बात है कि हर किसी को सड़क पर आते ही चलने की हड़बड़ी होने लगती है, कोई सड़क पर रुकना नहीं चाहता, किसी को लाल बत्ती पसंद नहीं आती, कोई सही दिशा में गाड़ी चलाना नहीं चाहता और कोई सुरक्षा के उपाय भी नहीं करना चाहता. बस एक ही चाहत है कि फुर्र से निकल जाएं और इससे किसी की जान जाए तो जाए. और ऐसा करते हुए यदि पकड़ लिए गए तो पुलिस वाले को हल्का-फुल्का जुर्माना देकर बरी हो जाएंगे. अभी तक ऐसा ही चल रहा था और यही मनमर्ज़ी हमारी सड़कों पर जानलेवा साबित हो रही थी.
लेकिन अभी मोदी सख्त हैं. 

सड़कों पर ग़लती करने वालों को भारी-भरकम चालान देने पड़ रहे हैं. हर रोज़ चालान, दे दनादन चालान. लोग भयभीत भी हो गए हैं. हालांकि पुलिस का रवैया ऐसा होना चाहिए कि सिर्फ चालान काटने के लिए सड़क पर न खड़ी हो और लोगों को डराने के लिए चालान न काटे. मकसद लोगों को सही रास्ते पर लाना होना चाहिए और पुलिस के दिल की नरमी भी सड़कों पर दिखनी चाहिए.

5) प्लास्टिक के खिलाफ अभियान: प्लास्टिक का धड़ल्ले से इस्तेमाल आखिरकार घातक साबित होने लगा है. मोदी सरकार ने पहले सौ दिनों में ही इस बात के साफ संकेत दि दिए हैं कि बस, अब और नहीं. प्रधानमंत्री ने स्वाधीनता दिवस के मौके पर लाल किले से अपने भाषण में साफ-साफ ऐलान कर दिया था कि उनकी सरकार प्लास्टिक के खिलाफ जंग छेड़ रही है. 


यह पहली बार नहीं है कि मोदी ने जनता के स्वास्थ्य और वातावरण के प्रति फिक्र की हो. पिछले कार्यकाल में ही स्वच्छता अभियान शुरु करना और देशभर में शौचालय बनवाना पूरे देश में एक नई क्रांति ले आया जिसकी आज हर कोई सराहना करता है.
इन सबके अलावा भी मोदी सरकार ने कुछ अन्य कार्यों की शुरुआत भी सत्ता में आने के पहले सौ दिनों में ही कर दी है जनमें किसानों के लिए विभिन्न कार्यक्रम, सबके लिए सस्ते आवास आदि शामिल हैं.

लंबी है डगर...
जब भी कोई पार्टी चुनाव जीतकर सरकार बनाती है तो जनता को उससे ढेरों उम्मीदें बंध जाती हैं. उम्मीदों की इन्हीं सीढ़ियों पर चढ़ते हुए सरकार लोगों को इस बात का अहसास दिलाती है कि उनका वोट ज़ाया नहीं गया और साथ ही अपनी ज़ड़ें भी मज़बूत करती है. कुछ ऐसा ही भारतीय जनता पार्टी के साथ भी हुआ जब 2019 के चुनाव में वह एक ऐतिहासिक जीत के साथ दोबारा सत्ता में आई. भाजपा की बड़ी जीत के पीछे लोगों की उम्मीदों का पहाड़ है और इस पहाड़ पर विजय पाना सरकार का कर्त्तव्य.

पहले सौ दिनों में मोदी के नेतृत्व ने भले ही मज़बूत संकेत दिए हों पर मेरे ख्याल से अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है और देश की उन्नति और लोगों के कल्याण के लिए अभी भी तमाम ऐसे मुद्दे हैं जिन पर सरकार को ध्यान देना होगा.

कुछ मुद्दे जो अहमियत रखते हैं उन पर संक्षिप्त चर्चा.

1) जनसंख्या विस्फोट: भारत की बढ़ती जनसंख्या सचमुच चिंता का विषय बन गई है और कोई भी सरकार अब इसे हल्को में नहीं ले सकती. कितना ही विकास कर लें हम अगर जनसंख्या इसी तरह बढ़ती रही तो नतीजा वही होगा जैसे ढाक के तीन पात.

2) एक देश, एक चुनाव: मोदी ने संसद और विधानसभ के चुनावों को एक साथ कराने का मुद्दा साल 2014 के चुनावों में ही उठाया था. बात गलत नहीं थी पर दूसरे नेताओं और पार्टियों का साथ न मिलने के कारण सब कुछ धरा रह गया.

दरअसल हमारे यहां हरदम चुनाव होते रहते हैं. कुछ राज्यों में इस साल चुनाव तो कुछ राज्यों में अगले साल. संसद का चुनाव खत्म हुआ तो कहीं न कहीं पूरे पांच साल तक चुनाव होता रहा और इसी तरह पांच साल बीत गए. लो, अब फिर से अगला आम चुनाव आ गया. क्या पीएम, क्या सीएम, क्या मंत्री और क्या नेता-- हर कोई चुनाव में ही जुटा रहा. पार्टियां एक राज्य में वादे करके आईं और फिर नए वादे करने किसी और राज्य का रुख कर बैठीं. कोई दफ्तर में ठीक से जमकर बैठा ही नहीं, किसी ने किये गए वादों पर दोबारा नज़र दौड़ाई ही नहीं और किसी ने मनन किया ही नहीं कि विकास कैसे हो या फिर आवाम के रहन-सहन का स्तर कैसे उठाया जाए. बस सभी सत्ता की होड़ में दौड़ते रहे.

अगर सभी चुनाव एक साथ हो जाते तो पूरे पांच सालों तक न ही तो चुनावी बिगुल बजते, न ही बार-बार चुनावी वादे होंते, न ही बार-बार रैलियां निकलतीं, न ही एक-दूसरे पर छींटाकशी होती और न ही मंत्री लोग अपना दफ्तर छोड़कर दौरा करते रहते. ज़रा सोचिये, अगर ऐसा हो जाए तो खर्च कितना कम हो जाएगा. एक बार चुनाव हो गए उसके बाद समय आ गया एकाग्रता के साथ बैठकर काम कर दिखाने का. अब पूरे पांच साल तक सभी सरकारों को काम करने का एकमुश्त वक्त मिलेगा और जनता भी उनके काम-काज की बारीकियों का हिसाब-किताब बेहतरी से रख पाएगी-- मेरे ख़्याल से. 

3) पशु-रहित हों शहर: कितना अजीब लगता है जब एक तरफ सरकार स्मार्ट सिटी और विकास की बात होती है और दूसरी तरफ शहरों की सड़कों के बीचों-बीच गाय बैठी दिखाई दे जाती है, गलियों में कुत्ते दौड़ाते हैं और कुछ गंदगी वाले इलाकों में सूअर घूमते नज़र आते हैं. अब ऐसे में स्वच्छता अभियान क्या खाक असर दिखाएगा!

कितने ही विदेशी मेहमान भारत आते हैं और शहरों में इस तरह के नजारे देखकर न केवल अचंभित होते हैं बल्कि इसकी तस्वीरें भी खींचकर ले जाते हैं. कितनी शर्म आती है जब दूसरे मुल्कों में हमारे शहरों की ऐसी तस्वीरें छपती हैं. काश सरकार इस बात पर ध्यान देती जिससे देश की छवि कुछ सुधर जाती.

4) किसानों की समस्या: जब से देश आज़ाद हुआ तब से ही किसानों की समस्या सभी के लिए सोच का विषय बनी हुई है. राजनीतिक पार्टियों ने इसे खूब चुनावी मुद्दा बनाया, वोट बटोरे लेकिन किसी ने भी किया कुछ नहीं. किसान वैसे के वैसे ही ग़रीब हैं, कर्ज़ के तले दबे हैं, उनमें अज्ञानता है, और अगर जागरूकता है भी तो वह किसी काम की नहीं क्योंकि उनकी मजबूरियां कहीं बड़ी हैं, वो लाचार हैं, साधनहीन हैं, बेज़ुबान हैं और हालात के मारे हैं. और यह सब तब जबकि भारत कृषि प्रधान देश है. 


कितने ताज्जबु की बात है कि देश की इतनी बड़ी आबादी का पेट मुट्ठी भर ग़रीब किसान अपनी मेहनत से पैदा की गई उपज से भरते हैं. शहरों में बैठे हुए लोग लज़ीज़ भोजन की बात करते हैं और उनकी इस फरमाइश को पूरा करते हैं मजबूरियों से जकड़े किसान. शहरों के शानदार घरों और रेस्तरां में बैठे लोग पेटभर स्वादिष्ट खाना खा सकें इसके लिए किसान कई बार खुद भूखा रहता है, हर दिन मेहनत करता है, कष्ट उठाता है, आधी नींद सोता है और कर्ज़ तक लेता है. घर की पक्की छत उसे नहीं मालूम, घर के साजो-सामान उसने कभी देखे नहीं, लज़ीज़ खाना उसे नहीं मालूम, मनोरंजन उसने कभी जाना नहीं, घर की आधुनिकता का उसे इल्म तक नहीं, बैंक बैलेंस बनाने का ख्याल तक नहीं आता और आवाज़ उठाने का स्वर तो उसके पास है हीं नहीं. किसान ने अपने जीवन में बस एक ही चीज़ जानी है-- समझौता. हमारे किसान समझौता करते हैं ज़िंदगी से, अपनी सुविधाओं से, अपनी बीमारियों से, अपनी शिक्षा से, मौज-मस्ती से, अपने रहन-सहन से और अपने परिवार के अरमानों से. किसान की पत्नी न तो कभी किसी बात की फरमाइश करती है और न ही कभी नखरे दिखाती है. वो तो उलटे घर में कटौती करती है और सादगी से रहकर जीवन चलाती है क्योंकि उसे मालूम है कि उसका पति एक किसान है. किसान के बच्चे कभी सपने नहीं देखते, कभी खेलने नहीं जाते और फैशन, आधुनिकता, तकनीक आदि चीज़ें तो उनके लिए एक स्वप्न मात्र हैं. 

कितने ताज्जुब की बात है कि आज का किसान भी उतना ही मजबूर है जितना 60 साल पहले था. पीढ़ी-दर-पीढ़ी जो एक ही चीज़ उसे विरासत में मिलती चली आ रही है उसका नाम है-- मजबूरी और समझौता. वो कभी मज़बूत हो ही नहीं पाया और कुछ किसान तो इतने कमज़ोर हो गए कि अपनी जान तक देना बेहतर समझा. अफसोस होता है जानकर कि हालात से मुकाबला न कर पाने के कारण अपनी जान देने वाले किसानों की संख्या निरंतर पढ़ती जा रही है. भारत में पैसे वालों की भी कमी नहीं है लेकिन कभी किसी रईस का दिल नहीं पसीजा!   

फिर कौन लगाए खेत में पैसा: मोदी सरकार के सामने ये एक बड़ी चुनौती है कि किस तरह ऐसा परिवेश बनाए कि किसान को खेती के लिए कर्ज़ न लेना पड़े, बीज और खाद के लिए रुपए की चिंता न करनी पड़े, तैयार फसल बेचने के लिए बिचौलियों और गोदाम मालिकों के आगे मजबूर न होना पड़े. उसके जीवन में संघर्ष भले ही हो लेकिन मजबूरियां न हों और कोई उनका शोषण करके अपना मुनाफा दोगुना-चौगुना न कर सके. 
काश कि सरकार ऐसा कर पाती कि किसान के खेत में पैसा वो लगाते जिनके पास धन है, दौलत है, जो बैंक से कर्ज़ ले सकते हैं, जो फसल को बेहतर बनाने की उत्तम तकनीक ला सकते हैं और जो खड़ी फसल के अच्छे दाम दे सकते हों. किसान को बस एक फिक्र हो-- फसल उपजाने की. ऐसा इसलिये भी ज़रूरी है क्योंकि अच्छी फसल का असली आनंद तो पैसे वाले ही उठाते हैं, किसान तो महज़ बचा-खुछा ही खाता है लेकिन उगाता सब कुछ है. 

किसान भी मन ही मन सोचता होगा काश कोई ऐसा आगे आता जो उसे हर साल कर्ज़ से माफी न दिलाए बल्कि उसकी खेती का खर्च संभाल ले. बाकी तो वो खुद सक्षम है. अगर ऐसा संभव हो जाता तो किसान कर्ज़ लेने के लिए बैंक नहीं जाता बल्कि बचत खाते में रुपया जमा कराने जाता. 

5) साल 1947 से पहले का भारत: सत्ता की कमान संभालते ही मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 और 35- A हटाकर साफ कर दिया कि कश्मीर भी देश के अन्य राज्यों के समान भारत का अभिन्न अंग है. इसके बाद से सरकार कई बार इस बात का साफ इशारा कर चुकी है कि पाक अधिकृत कश्मीर यानि PoK भी भारत का ही हिस्सा है और हम उसे वापस लेकर ही रहेंगे. 

 

आज भी हमारे यहां ऐसे परिवार हैं जो 1947 के बंटवारे के समय अपनों को और अपना बहुत कुछ पाकिस्तान में छोड़ आए. राजनीति की तल्खियों को छोड़ दें दोनों तरफ की आवाम आज भी एक-दूसरे को चाहती है. वाघा बॉर्डर जाकर लगता है इतना पास होते हुए भी लाहौर क्यूं दूर हो गया. कई बार मन में आता है काश ये बंटवारे की दीवार न होती और सीमाओं पर बंदूकों की जगह अमन और मोहब्बत के दीप जल रहे होते. हम सबने स्कूल की किताबों में हिन्दू घाटी सभ्यता के बारे में पढ़ा है लेकिन आज हम चाहकर भी उसके अवशेष नहीं देख सकते. 

जब बंटवारे की बात होती है तो ऐसा नहीं है कि ख़्याल सिर्फ पाकिस्तान का ही आता है. उधर पूर्वी बंगाल भी हमसे अलग हुआ था और आज बांग्लादेश बनकर सीने को कचोटता रहता है. ढाका भले ही जुदा हो गया हो पर ढाकाई साड़ियां आज भी शान से पहनी जाती हैं. बंगाल जाइये तो लोग बताएंगे कि पुरखों के घर दूर हो गए, उनके कितने अपने उस पार हैं, वो अपनों से मिलने को कितना बेकरार रहते हैं.

काश कि मोदी सरकार 1947 के पहले का भारत लौटाने का सपना भी दिखाती-- अविभाजित भारत, भरा-पूरा हिंदुस्तान. ऐसे मौके पर हम जर्मनी को कैसे भुला सकते हैं जब बर्लिन वॉल तोड़ दी गई और पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी एक हो गए.

काश कि पाकिस्तान भारत का अभिन्न हिस्सा बन पाता और बंग्लादेश एक बार फिर से पूर्वी बंगाल बनकर देश का गौरव बढ़ाता. पाकिस्तान का मामला पेचीदा हो गया है पर मिलन की शुरुआत पूरब दिशा से हो जाए तो इसमें बुराई ही क्या है, मेरे ख़्याल से.

6) काला धन और भ्रष्टाचार: आज़ादी के बाद से सत्ता संभालने वाली जितनी भी सरकारें आईं सबने भ्रष्टाचार और काला धन पर नकेल कसने की बात कही पर सच मानिये कुछ असरदार काम हुआ नहीं. यही वजह है कि काले धन का काला सांप आज घर-घर जा बैठा है और समाज में विष घोल रहा है.

भ्रष्टाचार से जुड़े कई मामले समय-समय पर सामने आए ज़रूर पर ये किसी का भी दुस्साहस कम करने में नाकाम रहे. काला धन समाज में घूमता रहा और पैसा देकर काम निकलवाना एक दस्तूर सा बन गया; आख़िर बेईमानी का काम निहायत ईमानदारी से जो होता है और हर बेईमान को धंधे में ईमान बहुत पसंद है. 

जब से मोदी प्रधानमंत्री बने उन्होंने काले धन और भ्रष्टाचार का अंत करने का ठोस आश्वासन दिया जिस पर जनता ने यकीन भी किया. मोदी का एक जुमला बहुच चर्चा में है, "न खाऊंगा, न खाने दूंगा"

दूसरी सरकारों की तरह बीजेपी की सरकार ने भी कुछ बड़े मामले उजागर किए और कुछ लोगों को पकड़ा. पर क्या इससे आम आदमी का जीवन सुगम हो पाया? मेरे ख़्याल से नहीं. समाज के मुट्ठी भर लोग ही भ्रष्ट नहीं हैं और काला धन कुछ चुनिंदा लोगों के पास ही नहीं है, ये तो वो कीड़ा है जिसे ठीक से खंगाला जाए तो हर नगर-नगर और गली-गली में मिल जाएगा.

हमारे-आपके आसपास कई भ्रष्ट लोग सीना तानकर ठाठ से रहते हैं लेकिन सरकार की निगाहों से कोसों दूर हैं. ऐसे लोग भी हैं जो 'खूब कमाते' हैं पर कोई उन पर सवाल उठाने वाला नहीं है. सच मानिये तो यही लोग असल में बड़े गुनहगार हैं क्योंकि यही आम आदमी के जीवन में असमानता का ज़हर घोलते हैं, हर रोज़. बच्चे स्कूल जाते हैं पर 'ऐसे लोगों' के बच्चों के रंग-ढंग अलग ही होते हैं. लेकिन फिर भी हम उन्हें स्वीकारते हैं और अपने बच्चों से कहते हैं, 'बेटा, उनसे दूर ही रहना'.


यही वो छोटे-मोटे भ्रष्ट लोग हैं जो काले धन का निवेश मकान खरीदने में करते हैं-- एक, दो, तीन और न जाने कितने, कहां-कहां और न जाने किनके-किनके नाम. नगर-नगर, गली-गली रहनेवाले इन छोटे-मोटे भ्रष्ट लोगों ने मकान को ही निवेश की वस्तु बना दिया है. ताज्जुब तो तब होगा जब ये लोग रोटी और कपड़ा को भी निवेश का सामान बना देंगे. हमने तो आज तक यही जाना था कि रोटी, कपड़ा और मकान ज़रूरत की चीज़ें हैं. लगता है ज़माना बदल गया है, मेरे ख़्याल से.

यही वो छोटे-मोटे भ्रष्ट लोग हैं जो बेरोकटोक कारें खरीदते हैं और अपने रिश्तेदारों, जानने वालों और पास-पड़ोस में बड़े-छोटे का भाव पैदा करते हैं. जानते हैं क्यों? क्योंकि वो आपके मुकाबले श्रेष्ठ होने का दिखावा करना चाहते हैं. और ऐसा केवल रुपयों के बलबूते ही हो सकता है.

यही वो छोटे-मोटे भ्रष्ट लोग हैं जो ट्रेनों में बेहिसाब सफर करते हैं, हवाई जहाज़ से घूमते हैं, कार चलाने में बेहिसाब पेट्रोल खर्च करते हैं, बड़े-बड़े रेस्तरां में महंगा खाना खाते हैं, महंगे कपड़े खरीदते हैं, घर में महंगा सामान रखते हैं, हर तीज-त्योहार पर गहने और ज़ेवर खरीदते हैं. यही वो लोग हैं दीपावली जैसे त्यौहारों पर महंगे-महंगे गिफ्ट बंटते हैं, ख़ासतौर पर उन सरकारी अफसरों को जिके ज़रिये 'कमाई 'होती है. अब सोचिये इतना सब खर्च कैसे होता है? सही सोचा आपने-- नकदी में. अब कोई मोदी जी से पूछे 'कैशलेस सोसायटी' कैसे बनाएंगे?

हर महीने लाखों में कमाया और खर्च किया. जो बचा वो घर की तिजोरी में या चावल के डिब्बों में छिपा दिया. बस, हो गया जीवन सफल. कौन पूछ रहा है? मोदी सरकार तो बड़ी मछलियां पकड़ रही है और उसी में उलझी रह जाएगी. नगर-नगर और गली-गली कौन जाएगा. शायद कोई नहीं, कभी नहीं-- मेरे ख़्याल से.

7) किसका हो विकास: मोदी ने विकास के नारे को बुलंद किया. ये मोदी ही थे जिन्होंने स्मार्ट शहर बनाने की बात कही, बुलेट ट्रेन चलाने का सपना देखा, अंतरिक्ष में आविष्कारों को नई दिशा दी, हर आदमी तक इंटरनेट पहुंचाने का सफल प्रयास किया, हर शहर में मेट्रो ट्रेन चलवाई. नतीजा ये कि हम सब खुश. लगने लगा जीवन का स्तर एक पायदान ऊपर चला गया. लेकिन क्या विकास इसी को कहते हैं? मेरे ख़्याल से नहीं.

विकास की बात जब कभी सोचता हूं तो दिल में बात आती है नदियों की जो कभी उफान पर होती हैं तो कभी एकदम ऐसी सूख जाती हैं कि तलहटी की दरारें तक दिखाई पड़ने लगती हैं. विकास की बात सोचता हूं तो ख़्याल आता है उन जंगलों का जो लगातार कम होते जा रहे हैं, पेड़ सूख रहे हैं, फल और सब्ज़ियां कम होती जा रही हैं. विकास की बात सोचता हूं तो ध्यान उन बड़े-बड़े उद्योगों की तरफ जाता है जो रोज़गार पैदा करते हैं. विकास की बात छेड़ता हूं तो मन में खेत-खलिहानों की ख़याल आता है जहां पैदावार और कई गुना बढ़ाई जा सकती है, रोज़गार दिया जा सकता है-- पर ऐसा हो नहीं रहा है.


विकास की बात करता हूं तो उन लाखों बेज़ुबान पशु-पक्षियों की तस्वीर मन में खिंच जाती है जो बेचारे अपनी व्यथा कह नहीं सकते पर सरकार से उम्मीदें ज़रूर रखते हैं. आखिर इन बेज़ुबानों का आशियाना हमने छीना है और ये हमारी नीतियों का शिकार हुए हैं. इस पर भी हम कहते हैं गौरेया न जाने कहां गुम हो गई? लेकिन फिर भी देखिये इनकी महानता.. ये हमें सेवा देने से पीछे नहीं हटे हैं, हमेशा हमारे साथ खड़े हैं. नहीं भूलना चाहिए देश का गौरव भी हमारे पशु-पक्षियों से हैं.

काश कि मोदी सरकार इन बेज़ुबानों के लिए भी कुछ अच्छी नीतियां बनाती, उनके रहने की व्यवस्था करती और उनके भोजन-पानी का इंतज़ाम करती.

उम्मीदें अभी बाकी हैं
भले ही बीजेपी सरकार ने दूसरी पारी के पहले सौ दिन पूरे कर लिए हैं और दुनिया मोदी की पीठ थपथपा रही है लेकिन हमारी उम्मीदें कम नहीं हैं. सरकार को भी समझना होगा काम कम नहीं है और उसके पास वक्त ज़्यादा नहीं है.

आखिर पांच साल होते ही कितने हैं, दिल से काम करने बैठो तो हर रोज़ जब सूरज ढलता है तो काम का एक दिन घट जाता है. ज़िम्मेदारियों से लदी मोदी सरकार के सामने समस्याएं बड़ी है, लक्ष्य बड़े है, चुनौतियां बहुत हैं लेकिन वक्त कम हैं.
देश का हर एक जीव चाहे वो बालक हो, चाहे स्कूल-कॉलेज का छात्र हो, चाहे रोज़गार तलाशता युवा हो, चाहे घर-दफ्तर संभालती महिलाएं हों, चाहे बुज़ुर्ग हों या फिर विलुप्त होते पेड़ों की शाखों में घोंसला बनाने के लिए उड़ान भरते पंछी-- हर किसी की आंखों में एक सपना है. उधर बड़ी हसरतों से चुनी गई सरकार है जिसे इन सपनों को एक-एक करके पूरा करना है.

अभी तो महज़ सौ दिन पूरे हुए हैं, बताईये वक्त कहां है! 
मेरे ख़्याल से.

NOTE:
To read another article in English on Modi copy/ paste following Link:


http://apurvaopinion.blogspot.com/2017/05/modis-3-years-time-to-rejoice-or-review.html

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