March 20, 2017

खो गई है गौरेया की चहचहाहट !


सुबह-सुबह अपनी मधुर चहक से नींद तोड़ देने वाली चिड़िया अब कहां है !


अपूर्व राय

अभी बहुत साल नहीं बीते हैं जब सुबह की नींद चिड़ियों की चीं-चीं, चूं-चूं से खुलती थी. शहरों में मुर्गे तो होते नहीं जो सवेरे की बांग सुनने को मिले लेकिन उनकी कमी चिड़ियां ही पूरी कर देती थीं. और अब तो ये आवाज़ भी ख़ामोश सी हो गई है. कारण है कि चिड़ियां अब शहरों से कहीं चली गईं हैं; हम से रूठ कर गईं हैं या फिर हमने ही उन्हें भगा दिया है यह कह पाना ज़रा मुश्किल लगता है पर मेरे ख्याल से वजहें दोनों ही हैं. नौबत तो ये गई है कि आज हमें उनकी याद में लेख लिखने पड़ रहे हैं और बच्चों को तस्वीरों में दिखाना पड़ रहा है कि ऐसी होती थी घर में फुदकने वाली गौरेया

संकट में पड़ी इन चिड़ियों की याद में अब हम हर साल 20 मार्च को गौरैया दिवस भी मनाने लगे हैं. रोचकतावश बता दूं कि पहला विश्व गौरेया दिवस (World Sparrow Day) 20 मार्च, 2010 को मनाया गया था.

कुछ सालों पहले तक हमारे घरों में फुदकने और चहचहाने वाली चिरैया की कीमत शायद हम तब नहीं समझते थे. वो रोज़ हमारे घरों के रोशनदानों पर आकर बैठती थी, घरों की मुंडेर पर उछलती-खेलती थी और बिना किसी रोक-टोक के हमारे कमरों में तेज़ी से घुस आती थी और फिर भाग जाती थी. लेकिन अब अनेकों सालों से घरों में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ है. हमारे घर वहीं हैं, घर-परिवार के लोग भी वही है, पूरा सामान भी वैसे ही भरा है; जो हमारे बीच नहीं है वो है इक चिड़ि
हर साल 20 मार्च को World Sparrow Day मनाने का उद्देश्य लोगों में चिड़ियों के लिए संवेदना उत्पन्न करना है.
हमारे घर, आंगन और परिवार के बीच से गौरेया चली गई है और अब तो उसकी कमी खलने भी लगी है. सवेरा आज भी होता है लेकिन अब गौरेया चहचहाती नहीं, हमारी खिड़कियों और रोशनदानों पर दस्तक नहीं देती. गौरेयों की संख्या में लगभग दो दशकों में धीरे-धीरे कमी आती गई और आज ये लुप्तप्राय सी हो चली हैं. हमारे घरों के बहुत से बच्चे बड़े हो गए पर उन्होंने चराई पाखी (गौरेया) को न ठीक से देखा और उनकी चहचहाहट तो जानी ही नहीं. हममें से वो खुशकिस्मत जिन्होंने इसके साथ दिन बिताए हैं वो अक्सर अब बातें भर कर लेते हैं कि एक थी गौरेया.

इन चहचहाती नन्हीं सी चिड़ियों की प्रजाति आज एक मुश्किल दौर से गुज़र रही है. हालत ये है कि गौरेया को संकटग्रस्त प्रजाति की रेड सूची में शामिल किया गया है. दिल्ली सरकार ने तो इसे साल 2012 में राज्यपक्षी तक का दर्ज़ा दे डाला.

शहरों से ही नहीं, गांव और बगीचों से भी गौरेया गायब हो रही है. ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ भारत में ही गौरेया की संख्या में गिरावट आई है बल्कि पूरे विश्व में इनकी संख्या तेज़ी से घटी है. ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड, चेक गणराज्य, बेल्जियम, इटली और फिनलैंड के शहरी इलाकों में भी गौरेया की संख्या घटी है.

बदल गया रहन-सहन
गौरेया की घटती संख्या की एक वजह हमारी जीवनशैली में बड़ा बदलाव है. याद आते हैं वो दिन जब घरों की छतों पर या फिर आंगन में गेहुं धोकर सुखाया जाता था. गेहूं छत पर फैलाई नहीं कि गौरेया का आना शुरू. अब घर का एक प्राणी चिड़िया हांकने का काम करता था-- हर थोड़ी-थोड़ी देर पर जाना और हुश-हुश करना. पर अब ऐसा नहीं होता क्योंकि आज गेहूं नहीं, आटे की बोरी धर में आती है. अब जब गेहूं खरीदा ही नहीं जाता तो काहे का धोना-सुखाना, कैसी चिड़िया और कहां का हुश-हुश.

इतना ही नहीं घरों के नक्शे भी बदल गए हैं. अब झरोखे नहीं बनते और ऊंचे रोशनदान नहीं होते. अब तो सीधी दीवारों में शीशे लगवाए जाते हैं; उनमें भला कहां आने लगी गौरेया.

शहरों में अब फ्लैटों का प्रचलन हो गया है और तमाम बिल्डरों ने ऊंची-ऊंची इमारतें खड़ी कर दी हैं. बिल्डर लाख दावा करते रहें कि सोसायटी का एक बड़ा हिस्सा आपकी सेहत के खातिर कुदरत की खिदमत में छोड़ा गया है पर सच्चाई यही है कि बिल्डरों की हरियाली भी शायद इन चिड़ियों तक को रास नहीं रही. फ्लैट खरीदने जाइये तो आपको दो कमरे का घर कम सोसायटी का क्रिकेट स्टेडियम, गोल्फ का मैदान और स्विमिंग पूल ज़्यादा दिखाया जाता है. अब इन सबका जीव-जंतुओं से क्या नाता? कुछ हद तक बात ठीक भी है क्योंकि बिल्डर ने घर मनुष्यों के लिए बनाया है जिनसे उसे मुनाफा होगा; भला पक्षियों और दूसरे जीवों से उसे क्या मिलेगा

हरियाली के तरीके भी बदले
शहरों में जगह की कमी है, पैसों और दिखावे का बोलबाला है. हममें से बहुत से लोग घरों में गमले लगाते हैं और पर्यावरण के रख-रखाव में अपना सहयोग देने का दावा करते हैं. बात दावा करने तक रहे तो ही ठीक है क्योंकि हमारे गमले हिरयाली के लिए कम स्टेटस सिंबल के लिए ज़्यादा लगाए जाते हैं. आप हैसियत वाले हैं तो आपके गमले इसका संकेत साफ दे देंगे, किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं. पशु-पक्षियों के लिए आपकी फिक्र का इज़हार ड्राइंग रूम में लगी पेंटिंग या फिर कुछ महंगी पुस्तकों से हो जाएगा. लेकिऩ अफसोस इस बात का है इतनी चिंताओं के बावजूद आपकी हैसियत इन ग़रीब पंछियों को ही आश्रय दे पाई है और ही उन्हें आपके आस-पास बुला पाने में सक्षम हो सकी है.

बेहतर होता कि हम पहले इस बात का पता करते कि कौन से पेड़ किस तरह के पक्षियों को आकर्षित करते हैं या फिर किन पौधों को लगाने से किस तरह के कीट और जंतु उन पर आएंगे. पेड़ और पौधे कोई भी हों हरियाली तो बिखेरेंगे ही साथ ही प्रदूषण भी दूर करेंगे. पर बेहतर होगा कि हम ऐसे पौधे और पेड़ चुने जो इन दोनों के साथ-साथ जीव-जंतुओं और पशु-पक्षियों को भी आकर्षित करें या उन्हें बसेरा दे सकें.

गौरेया सामाजिक प्राणी है और वहीं रहना पसंद करती है जहां इंसानों की बस्ती हो. अब अगर इंसान ही खुदगर्ज़ हो जाए तो बेचारी चकली (गौरेया) भाग नहीं जाएगी तो क्या करेगी
गौरेया को बचाने के लिए घरों में उनके लिए पानी और कुछ खाने के लिये रखा जा सकता है.

छोटा-छोटा सहयोग दें 
भले ही शहरों का रहन-सहन बदल गया हो, छतों पर दो कमरे किराए के लिए और बन गए हों, आंगन कमरे में तब्दील हो गए हों, बरामदे भी चारों तरफ से बंद हो गए हों, खुली जगहों पर अब कारें खड़ी होती हों और पार्कों का स्थान भी कम हो गया हो पर फिर भी कुछ करने की गुंजाइश तो बचती ही है. कहते हैं न जहां चाह, वहां राह. बस ज़रूरत है थोड़ी सी सोच, मेहनत के साथ-साथ इच्छा शक्ति की.

पार्क भले ही कुछ छोटे हो गए हों पर हैं. अच्छा होता कि हम सरकार पर निर्भर होने की बजाय खुद से एक फल या फूल वाला पेड़ वहां लगा आते और रोज़ एक बोतल पानी उसमें डाल देते. हमरा इतना सा सहयोग शायद गौरेया का चहकना वापस ले आता, गर्मियों में कोयल की कूक सुना देता और हमारे बच्चों को रंग-बिरंगी तितलियां किताबों में नहीं पार्कों में देखने को मिल जाती.

कितना मनमोहक लगता है जब गौरेया एक कोने में जमा पानी के में पंख फड़फड़ाकर नहाती है और पानी उछालती है. इसके अलावा चिड़िया एक कोने में पड़ी मिट्टी में भी लोटपोट करती है जिसे सैंडबाथ कहा जाता है.

काश कि हम फ्लैट खरीदते वक्त बिल्डरों से सवाल कर पाते कि उनकी टाउनशिप में हरियाली के लिए दी गई ग्रीन बेल्ट में किस तरह के पेड़-पौधों का इंतज़ाम है, क्या उनमें
बागीचा नाम की भी कोई चीज़ है, क्या उन्होंने किसी पर्यावरणविद या बर्ड-लवर (पंछी प्रेमी) का सहयोग लिया है?

यूं तो चिड़ियों को लेकर तमाम कविताएं और गीत लिखे गए हैं पर यहां पर मशहूर कविवर हरिवंशराय बच्चन की एक कविता पेश कर रहे हैं.अगर हम सचेत होंगे तो शायद गौरेया को एकदम लुप्त होने से अभी भी बचा पाएंगे. अगर हम प्रयास करेंगे तो आने वाले सालों में शायद दूसरे पंछियों को भी लुप्त होने से बचा पाएंगे. कुदरत ने मनुष्य के अलावा अगर अन्य जीव-जंतुओं को बनाया है तो यकीन मानिये कि वो भी हमारी ज़िंदगी के लिए सिर्फ ज़रूरी हैं बल्कि उसका अभिन्न हिस्सा भी हैं

बेशक तीन कमरों का घर और उसमें मौजूद आधुनिकता का साजो-सामान, एक अदद कार हमारी समृद्धि का प्रतीक हैं लेकिन हम फल और फूल देने वाले वृक्षों के मोहताज हैं और हमारी ज़िंदगी बेज़ुबान पशु-पक्षियों के चारों ओर घूमती है. आज गौरेया रूठ गई, आगे कोई और रूठे इसके लिए हमें ही खड़ा होना पड़ेगा. हम अपने लिए आशियाना ज़रूर बनाएं पर उन्हें भी घोंसला बनाने का मौका दें.

एक बार गौरेया वापस गई तो शायद हमको सुबह का अलार्म लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. इन नन्हीं चिड़ियों को एक डाली से दूसरी डाली पर फुदकते देख कर आपका मूड खुद--खुद खुशनुमा हो जाएगा और डिप्रेशन दूर भागेगा. सचमुच हमारी ज़िंदगी के लिए बहुत ज़रूरी है इन चिड़ियों की ज़िंदगी

मेरे ख्याल से.

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