अपूर्व राय
जो लोग भारत में
रहते हैं वो यहां की एक खूबी से बखूबी वाकिफ हैं... यहां राजनीति का शोर बहुत है
और सबको बहुत प्रिय भी है. एक तो ये है कि हमारे यहां चुनाव बहुत होते हैं और
दूसरा ये कि अगर चुनाव खत्म भी हो जाएं तो किसी दूसरी जगह के चुनाव की तैयारी में
नेता लोग जुट जाते हैं. मतलब ये कि चुनाव से इस देश में किसी को फुर्सत नहीं है---
नेता चुनावी दंगल में व्यस्त है और जनता नेताओं के दंगल में.
जब हर साल चुनाव होते ही रहते हैं तो और चुनावों में व्यस्तता भी नेताओं की होती है तो काम और काम की निगरानी का वक्त किसको मिल पाता है. शायद किसी को नहीं. सच तो ये है कि जिसे काम को भुनाना है उसके पास समय नहीं है और जो काम से जुड़ा है उसका उस कार्य में कोई स्वार्थ नहीं है. कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं होगा कि एक तो काम होता नहीं लेकिन उसकी चर्चा बखूबी होती है. नेता काम कर नहीं पाते लेकिन फिर भी कहने से नहीं चूकते काम बोलता है. नेता विकास दिखा नहीं पाते लेकिन फिर भी विकास की सीढ़ियां गिनाने से नहीं चूकते.
जब हर साल चुनाव होते ही रहते हैं तो और चुनावों में व्यस्तता भी नेताओं की होती है तो काम और काम की निगरानी का वक्त किसको मिल पाता है. शायद किसी को नहीं. सच तो ये है कि जिसे काम को भुनाना है उसके पास समय नहीं है और जो काम से जुड़ा है उसका उस कार्य में कोई स्वार्थ नहीं है. कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं होगा कि एक तो काम होता नहीं लेकिन उसकी चर्चा बखूबी होती है. नेता काम कर नहीं पाते लेकिन फिर भी कहने से नहीं चूकते काम बोलता है. नेता विकास दिखा नहीं पाते लेकिन फिर भी विकास की सीढ़ियां गिनाने से नहीं चूकते.
वाह रे भारत का प्रजातंत्र. भारत के प्रजातंत्र में प्रजा परेशान है और तंत्र हैरान. ज़रा वक्त निकाल कर फुर्सत से सोचियेगा.
हाल ही में देश के
पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव संपन्न हुए लेकिन जिस राज्य की चर्चा सबसे
ज़्यादा रही वो है उत्तर प्रदेश. राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर देश के
प्रधानमंत्री तक सबने पूरी ताकत झंक दी राज्य के विधानसभा चुनावों में. हर बड़ी
पार्टी और बड़े नेता ने यूपी के चुनावों में ड्यूटी बजाई. और अब जबकि चुनाव हो गए
हैं नेता लोग वादे पूरा करने के वादे कर रहे हैं.
अब नज़रें दिल्ली पर
उत्तर प्रदेश किस
दिशा में जाएगा इस बात की चर्चा तो होती ही रहेगी फिलहाल फोकस में दिल्ली है. कारण
है दिल्ली नगरपालिका का चुनाव जो 23 अप्रैल को होना है. कुलमिलाकर एक बार फिर से
चुनावी माहौल तैयार है. नेताओं और पार्टियों ने भी बार फिर से कमर कस ली है. कोई
ऐसी पार्टी नहीं जिसे नगरपालिका चुनाव नहीं लड़ना और कोई ऐसा नेता नहीं जिसकी नज़र
यहां नहीं है. कभी- कभी समझ में नहीं आता कि आखिर दिल्ली नगरपालिका
का चुनाव इतना महत्वपूर्ण क्यों; आखिर नगरपालिकाएं तो देश में ढेरों हैं जिनके
बारे में हममें से शायद ही कोई इतनी मुस्तैदी से ख़बर रखता हो.
एक कारण जो नज़र आता है वो ये कि बात दिल्ली की है और चूंकि दिल्ली देश की राजधानी है इसलिए यहां की हर बात स्पेशल है. दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ (DUSU) के चुनाव हों या फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के टीचर्स संघ (DUTA) के, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव भी इसी तरह महत्वपूर्ण हैं. इन सब चुनावों में से कोई भी ऐसा नहीं जहां हमारी पार्टियों और हमारे दिग्गज नेताओं का दखल न हो. इस बार तो MCD चुनाव होने जा रहे हैं तो भला राजनीतिक पार्टियां और नेतागण कैसे पीछॆ रह सकते हैं.
दरअसल चुनाव ही वो वक्त होता है जब नेताओं और पार्टियों का आम जनता के साथ सीधा संपर्क बनता है. यह वो वक्त होता है जब नेता काम का अहसान दिखा सकते हैं भल ही काम किया हो या न किया हो, यही वो वक्त होता है जब नेता हसीन सपने दिखा सकते हैं भले ही सपने बाद में टूट क्यों न जाएं. ये बात दीगर है कि सपने पूरे ही कब होते हैं!
हम सब जानते हैं कि किसी भी शहर का विकास, वहां की जन-सुविधाओं की ज़िम्मेदारी वहां की नगरपालिका की होती है. नगरपालिका ही जन कल्याण कार्यों के साथ-साथ किसी शहर के रख-रखाव और उत्थान के लिए कार्य करती है. अगर कोई शहर आपको अच्छा लगता है तो निश्चय ही वहां की नगरपालिका काम करती है. लेकिन विडंबना ये है कि इन विकास कार्यों का सारा श्रेय मंत्री से लेकर बड़े-बड़े नेता तक ले लेते हैं और नगरपालिका या फिर उसके चुने हुए काउंसिलर की कोई चर्चा भी नहीं करता. शायद यही वो सबसे बड़ी वजह है कि हर बड़ी पार्टी और हर बड़ा नेता नगरपालिका चुनाव में खास रुचि लेता है क्योंकि वो इसका फायदा सीधे तौर पर उठा सकता है. उधर चुने हुए काउंसिलर को फायदा ये है कि वो सीधे बड़े नेताओं की दृष्टि में आ जाता है और उसे आने वाले समय में विधायक, सांसद और मंत्रीपद जैसा सुनहरा भविष्य दिखने लगता है.
फिलहाल बात दिल्ली की जो देश की राजधानी है, देश का आइना है, देश की धड़कन है और देश का दिल है, कोई भी पार्टी या नेता देश का दिल कैसे तोड़ सकता है लिहाज़ा नगरपालिका चुनाव में सभी मुस्तैदी से जुट गए है. दिल्ली में देश के हर कोने सा आए लोग रहते हैं लिहाज़ा हर पार्टी नगरपालिका चुनाव में सक्रिय है और अपने लोगों का वोट हासिल करने का दावा कर रही है. दिल्ली में हर जाति-धर्म के लोग निवास करते हैं लिहाज़ा हर पार्टी उनका समर्थन पाने का दावा करती है. दिल्ली में लोग व्यापार या नौकरी की तलाश में आते हैं लिहाज़ा हर पार्टी उनके सपनों को पूरा करने के लिए सहयोग करने को तैयार खड़ी दिखती है. कुल बात ये कि दिल्ली में हर तरह का मसाला है और चुनाव के वक्त हर पार्टी मसाला मारके मैदान में खड़ी है.
चूंकि दिल्ली देश की शान है इसलिए यहां मौजूद सहूलियतें और सुविधाएं हर किसी के लिए महत्वपूर्ण हैं और इसी तरह यहां की समस्याएं हर किसी की अपनी समस्याएं हैं. हमारे देश में लोक कल्याण कार्यों को संपन्न करने के लिए जनता अपने-अपने प्रतिनिधि चुनती है जो नौकरशाहों की मदद से काम को अंजाम देते हैं. नगरपालिका जन-कल्याण योजनाओं को मूर्त रूप देने का पहला पायदान है इसलिए इसकी भूमिका सबसे अहम हो जाती है. एक नगरपालिका के दायरे में आने वाले कार्यक्षेत्र कुछ इस प्रकार है-- अस्पताल, जल आपूर्ति, सीवर, सड़कों, सड़क निर्माण पर उनका रख-रखाव, शहर के बाज़ार, अग्निशमन, ओवरब्रिज, पार्क, शिक्षा, रोड लाइटें, कूड़ा प्रबंधन और जन्म-मृत्यु का रिकॉर्ड.
कम है मतप्रतिशत
कार्यों को बेहतर ढंग से किया जा सके इसके लिए दिल्ली नगरपालिका तीन भागों में
बंटी हुई है-- उत्तर दिल्ली नगर महापालिका (North Delhi Municipal
Corporation), दक्षिण दिल्ली नगर महापालिका (South Delhi Municipal
Corporation) और पूर्वी दिल्ली नगर महापालिका (East Delhi Municipal
Corporation). इस महीने की 23 तारीख को होने वाले
नगर महापालिका चुनावों में दिल्ली के 272 वार्डों में करीब 1.30 करोड़ मतदाता वोट
डालेंगे. उत्तर और दक्षिण दिल्ली महापालिका के लिए 104 वार्ड हैं जबकि पूर्वी
दिल्ली के लिए 64 वार्ड बनाए गए हैं.
इतिहास बताता है कि दिल्ली का वोटर विधान सभा चुनावों के मुकाबले नगर महापालिका चुनावों में कम सक्रिय रहा है. चूंकि नगर महापालिका के लिए चुने गए काउंसिलर ही लोक कल्याण योजनाओं को पूरा करने के कार्य में सीधे जुड़े होते हैं इसलिए उम्मीद की जाती है कि अधिक से अधिक लोग मतदान में भाग लेकर अपना सही प्रतिनिधि चुनेंगे.
आंकड़ों पर नज़र डालने से पता चलता है कि पिछले नगर महापालिका चुनावों में 55
फीसदी लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था जिसे दिल्ली राज्य चुनाव आयोग ने 'अच्छा' कहा था क्योंकि
साल 1997 के मतदान के बाद से यह पहला सबसे शानदार मतप्रतिशत था. सन 1997 में 41
प्रतिशत लोगों ने मतदान किया था जो 2002 में बढ़कर 51 फीसदी हो गया था. हालांकि
2007 में यह प्रतिशत एक बार फिर गिरकर 42 फीसदी से कुछ ऊपर दर्ज किया गया. उधर
2015 में संपन्न हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में 67 फीसदी से अधिक लोगों ने
मताधिकार का प्रयोग किया और 2014 लोक सभा चुनावों में 65 फीसदी से अधिक लोगों मतदान
किया.
कुछ जानकारों का कहना है नगर महापालिका चुनावों से लोग इसलिये दूर रहते हैं क्योंकि शायद वो इसका महत्व ठीक से नहीं पहचानते. दूसरे शब्दों में जागरूकता की कमी फीके मत प्रतिशत का एक बड़ा कारण है.
दिल्ली की बात चल रही है तो दिल्ली की ही बात करेंगे. देश की राजधानी में अगर
बड़ी-बड़ी समस्याओं के बारे में पूछा जाए तो शहर में गंदगी की समस्या, साफ हवा की
समस्या, नालों और नालियों की साफ-सफाई की समस्या, सड़कों के निर्माण की समस्या,
सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर और दवाई की समस्या, सरकारी स्कूलों में शिक्षा और
शिक्षण की समस्या, सड़कों पर ट्रैफिक की समस्या, ट्रैफिक लाइट की समस्या आदि आदि.
गिनाते जाएये समस्याओं की फेहरिस्त शायद ही कभी पूरी होगी. लेकिन अंत में समस्याओं
की ज़िम्मेदारी लेने की समस्या जो सब पर भारी पड़ती है. इसका एक कारण ये है कि
शायद लोग शहर की समस्याओं के लिए राज्य सरकार को दोषी मानते हैं जबकि वास्तविकता
ये है कि इन सब कार्यों के लिए नगर महापालिका ज़िम्मेदार होती है और इन कार्यों के
निरीक्षण के लिए चुने हुए काउंसिलर. यह भी एक कड़वा सच है कि नगर महापालिका के
काउंसिलर कभी भी सक्रिय होकर सामने नहीं आते और चुन लिए जाने के बाद जनता की
समस्याओं पर कम और अपने राजनीतिक करियर पर अधिक ध्यान देने लगते हैं.
राजनीति भी होती है
किसी भी शहर में लोक कल्याण कार्यों को तब तक पूरा नहीं किया जा सकता जब तक
राज्य सरकार सहयोग न करे. अगर चुने हुए पार्षद एक पार्टी से हैं और राज्य सरकार
दूसरी पार्टी से तो समस्याओं को निपटाना और विकास कार्यों को पूरा करना टेढ़ी खीर
साबित होता है. काउंसिलर अपने वार्ड (चुनावी क्षेत्र) के कार्य करने के लिए फंड और
अन्य सुविधाएं मांगते हैं पर अगर सरकार सहयोग न करे तो ऐसा संभव नहीं हो पाता.
नतीजा ये कि विकास कार्य धरे के धरे रह जाते हैं और एक दूसरे को दोष देने की गंदी
राजनीति शुरू हो जाती है. दिल्ली नगर महापालिका में बीजेपी सत्ता में है और पिछले
चुनावों से इस साल के चुनावों के बीच कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की सरकार के साथ
रही है. शिकायत वही राजनीतिक है कि सरकार से सहयोग नहीं मिलता इसलिए काम नहीं कर
पाते. अंत में जनता ही जूझती और झुंझलाती है.
इस बार भी दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है लेकिन फिर भी बीजेपी पूरा ज़ोर लगाए हुए है क्योंकि केंद्र में वह सत्ता में है जिसका फायदी वो अपने काउंसिलरों को दे सकेगी.
बड़ी राशि होती है खर्च
साल 2012-13 में दिल्ली की तीनों महापालिकाओं का मिला-जुला बजट छह हज़ार करोड़
से अधिक था जो इस वित्तीय वर्ष में बढ़कर 15 हज़ार करोड़ से अधिक हो गया. काउंसिलर
हर कार्य के पीछे रुपए का हवाला तो देते
हैं पर इस बात का हिसाब कोई नहीं जानता कि निर्धारित धनराशि खर्च हुई भी या नहीं
और अगर हुई तो कहां और किस तरह. आंकड़े बताते हैं कि पिछले वर्ष तीनों महापालिकाओं
ने 13 हज़ार करोड़ से अधिक की धनराशि खर्च की. यहां पर यह कहना अनुचित नहीं होगा
कि जब सत्ता और धन दोनों ही साथ-साथ हों तो ईमानदारी कैसे बरती जाए? ऐसे में अगर
हेराफेरी की गुंजाइश बनती है तो फिर कोई पूरी ताकत से सत्ता क्यों नहीं हासिल करना
चाहेगा? तस्वीर कुछ हद तक साफ हो जाती है कि एक तरफ सत्ता है,
राजनीतिक शक्ति है और दूसरी तरफ पैसा है तो राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए पीछे
रहने की वजह भी तो हो! विकास का नारा देकर और काम की बात कहकर फंड का दुरुपयोग
करना भारतीय राजनीति में कोई नई बात नहीं है.
गिर गया है दिल्ली का स्तर
आज भी दिल्ली हर किसी के दिल की चाहत है. कारण अनेकों हैं. देश के विभिन्न
भागों से आकर लोग दिल्ली में बसे हैं और आलम ये है कि दिल्ली का सीमा क्षेत्र अब
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR- National Capital Region) तक बढ़ गया है. दिल्ली
और एनसीआर को मिला दिया जाए तो दिल्ली इस समय देश का सबसे बड़ा मेट्रोपॉलिटन शहर
है. आंकड़े बताते हैं कि सन 2016 तक दिल्ली की जनसंख्या पौने दो करोड़ (18.6 million) पार कर गई थी. ज़ाहिर
तौर पर जब इतनी बड़ी तादाद में लोग दिल्ली में रहेंगे या काम करेंगे तो उनकी
ज़रूरतें भी होंगी जिनके लिए सुविधाओं का बंदोबस्त भी करना होगा.
ऐसे में दिल्ली नगर महापालिका का चुनाव ख़ास हो जाता है. पर इसके साथ-साथ चुने गए काउंसिलरों की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही भी बढ़ जाती है. उम्मीद की जानी चाहिए कि साल 2017 के नगर महापालिका चुनाव में पार्टियां पैसा कम और ज़िम्मेदारी की भावना का परिचय देकर राजनीति को एक नई परिभाषा देंगी.
मेरे ख़्याल से !
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NOTE
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2) हवा ही है ज़हरीली (2019)
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3) Monsoon and Delhi Roads (2017)
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4) Delhi Fights Pollution: Odds Come
Again (2016)
https://apurvaopinion.blogspot.com/2016/04/delhi-fights-pollution-odds-come-again.html
5) Delhi Pollution: Fighting Odds to
make Things Even (2016)
https://apurvaopinion.blogspot.com/2016/01/delhi-pollution-fighting-odds-to-make.html
6) Delhi Pollution- Check 'Green
Agenda' of Builders (2015)
https://apurvaopinion.blogspot.com/2015/07/delhi-pollution-time-to-check-green.html
7) Delhi Pollution: Mindless Driving
Major Concern (2015)
https://apurvaopinion.blogspot.com/2015/07/mindless-driving-polluting-delhi.html
8) मैं और मेरी दिल्ली (2011)
http://apurvarai.blogspot.com/2011/11/blog-post.html