बहुत पुरानी कहावत है कि किसी भी चीज़ की अति बुरी होती है. ऐसा ही कुछ भ्रष्टाचार के साथ भी हुआ है. घूसखोरी, हेरा-फेरी इस कदर बढ़ गई कि दुर्बल दिखने वाले किन्तु इरादों के पक्के एक वृद्ध व्यक्ति (मैं अन्ना हज़ारे की बात कर रहा हूं) की एक पुकार पर पूरा देश एकजुट हो गया. लोग न सिर्फ सड़कों पर उतर आए बल्कि उन्होंने अपने रोष का खुलेआम जमकर इज़हार भी किया.
इक्कीसवीं शती के भारत में ऐसा भी नज़ारा देखने को मिलेगा किसी ने ख्वाब में भी न सोचा होगा. लेकिन समय बदल गया है और ख्वाब हकीकत में बदल रहे हैं.
हमें अन्ना जी के जज़्बे और उनकी हिम्मत को सलाम करना चाहिए. उन्होंने देश में जागरूकता और एकता की ऐसी मिसाल रख दी कि देखने वाले देखते ही रह गए.
सच पूछिये तो भ्रष्टाचार नासूर बनकर लोगों का जीना मुश्किल कर रहा है. जो 'कमाने' की स्थिति में है वह निडरता से कमाए जा रहा है और जो रिश्वत दे रहा है उसके पास कोई दूसरा चारा नहीं है और वह निरीह सा जी रहा है. वाकई इसे ही कलयुग कहते हैं-- 'चोर' करे ऐश और ईमानदार करे मजूरी.
भ्रष्टाचार, घूसखोरी और हेरा-फेरी के सबसे ज़्यादा मामले सरकारी दफ्तरों में मिल जाएंगे. सरकारी काम हो, सरकारी धन हो, सरकारी कर्मचारी हों और हेरा-फेरी न हो! ऐसा हो ही नहीं सकता.
सरकारी कर्मचारी आपको रुपए की ताकत का अहसास पग-पग पर कराते रहते हैं. आपका मकान बन रहा है-- नक्शा बनवाना, पास करवाना, बिजली-पानी के कनेक्शन से लेकर कई छोटे-बड़े काम हैं जो बिना 'लेन-देन' के संभव नहीं. गाड़ी का लाइसेंस, पासपोर्ट, रेल के सफर में टीटी से गोटी बैठाना, सेल्स टैक्स और इनकम टैक्स अधिकारियों से 'डीलिंग', पुलिस से पाला, टेलीफोन और बिजली विभाग में काम करवाना, पुल या सड़क का निर्माण कार्य, सरकारी विभागों में टेंडर से लेकर खरीद फरोख्त (परचेज़)-- न जाने कितने विभाग और कार्य हैं जहां सिर्फ दो ही चीज़ें काम आती हैं, एक पैरवी और दूसरी रिश्वत.
'ऊपर की कमाई' कर रहे हज़ारों-लाखों कर्मचारी भ्रष्ट हैं लेकिन आपको कितने ऐसे मिले हैं जिन्होंने इस सच्चाई को स्वीकारा. शिकायत सभी को है, लेकिन मजाल है कि किसी ने कहा हो कि उसके पास 'ऊपर' की भी आमदनी है. आश्चर्य है! मतलब ये कि बेईमानी भी करते जाएये और दंभ भरिये ईमानदारी का.
ऐसा नहीं है कि तमाम सरकारी विभागों और कार्यालयों में ही रुपया बोलता है. ज़रा लोगों के घरों पर भी बारीक नज़र डालिए, पता चल जाएगा रुपया दफ्तरों में ही नहीं घरों में भी बोलता है. सरकारी ज़मीन या मकान तो नियम से एक ही खरीदा जा सकता है, लेकिन प्राइवेट बिल्डरों के डिज़ाइनर फ्लैट चाहे जितने खरीदिये और चाहे जहां, कोई रोकटोक नहीं. यही वजह है कि 'ऊपर की कमाई' इन डिज़ाइनर घरों की खरीद में खूब खर्च होती है और यह निवेश भी साबित होती है. शायद यही वजह है कि महंगे डिज़ाइनर फ्लैटों की न ही तो मांग कम हो रही है और न ही कीमत. नतीजा ये कि ईमानदार आदमी के लिए सैलरी से रुपया बचाकर या फिर बैंक से कर्ज़ लेकर अपने लिए एक आशियाना बनाना एक सपना ही रह गया है.
'नंबर दो की कमाई' खर्च होती है होटलों में महंगा खाना खाने पर, महंगे और बड़ी ब्रांड के कपड़ों पर, हीरे और सोने के गहनों पर, पेट्रोल पर, हवाई यात्राओं पर, विदेश की सैर पर और बच्चों के पॉकेट मनी पर.
बेचारे रिश्वतखोर, कितना खर्च करें.
इस बात पर और भी ताज्जुब होता है कि रिश्वत लेने वाले और हेरा-फेरी करने वाले ज़्यादातर लोग पढ़े-लिखे हैं. कहते हैं शिक्षा से मूल्यों में सुधार होता है पर जो उदाहरण देखने को मिलते हैं वो एकदम इसके विपरीत हैं. वाह री शिक्षा प्रणाली-- लोगों को डिग्रियां तो खूब मिलीं, पर शिक्षा धरी रह गई.
यह भी अचरज की बात है कि लगभग सभी लोग सरकारी नौकरी पाते वक्त समाज और देश सेवा का हवाला देते हैं. लेकिन बाद में क्या होता है हम सभी जानते हैं-- खूब समाज और देश सेवा हो रही है.
सरकारी पुलों में 30-40 सालों में ही दरारें दिख जाती हैं, लेकिन ठेकेदारों और इंजीनियरों के घरों की दीवारें जीवन भर नहीं हिलतीं. सड़कों पर हर साल-दो साल में गड्ढे पड़ जाते हैं, लेकिन ठेकेदारों के घरों की फर्श सालों-साल चमकती रहती है. वन विभाग हर मॉनसून में लाखों रुपयों के पौधे लगवाता है जो कुछ महीनों में सूख भी जाते हैं लेकिन अधिकारियों के घरों के गमले सदा हरे-भरे रहते हैं.
इस सबमें दोष हमारी प्रणाली का भी है. अफसोस इतना है कि प्रणाली की खामियों का सबसे ज़्यादा फायदा भी वही उठा रहे हैं जिन्होंने इसे बनाया है.
वैसे तो भ्रष्टाचार, अनाचार और दुराचार सदा से ही हर देश और समाज का हिस्सा रहे हैं. कुछ पश्चिमी देशों में उन जगहों पर रिश्वत और घूस नहीं ली जाती जहां आम आदमी से जुड़े काम होते हैं. लेकिन हमारे देश में उलटा है. पब्लिक डीलिंग से जुड़े विभागों में जमकर रिश्वत चलती है क्योंकि यहीं पर कमाई की गुंजाइश सबसे ज़्यादा होती है. लोगों का काम फंसेगा तो पैसा देंगे ही. जन सुविधाओं से जुड़े विभाग ही तो 'आमदनी' का सबसे बढ़िया ज़रिया होते हैं, हमारे यहां के लोग इसे बखूबी जानते हैं.
भ्रष्टाचार बढ़ाने में उदारीकरण और बाज़ारवाद ने आग में घी का काम किया है. बाज़ार में एक से बढ़कर एक सामान आ गया है जिससे नई-नई ज़रूरतें भी पैदा हो गई हैं. जब ज़रूरतें पैदा हो गई हैं तो उन्हें पूरा करने के लिए पैसा पैदा करना भी ज़रूरी है. सो, प्रणाली में खामियां ढूंढी गईं और लोगों की ज़रूरतों का फायदा उठाया गया.
जब पैसा आने लगा और ज़रूरतें पूरी होने लगीं तो अरमान बढ़ने लगे. अब अरमानों पर कहां लगाम लगती है, वह तो होते ही हैं उड़ने के लिए. तो अब उड़ाने के लिए रुपया 'कमाया' जाने लगा.
मजमून साफ है कि बढ़ते अरमानों ने भ्रष्टाचार, हेरा-फेरी, सफेद झूठ और चरित्रहीनता को जन्म दिया है.
सच पूछिये तो सरकार की साख गिराने में सरकार से जुड़े लोग ही सिर्फ ज़िम्मेदार हैं-- अब चाहे वो मंत्री हों या फिर अधिकारी. दोषी सभी हैं. कुछ अपवादों को नकारा नहीं जा सकता लेकिन हम सभी जानते हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पिसता ही है.
September 01, 2011
सबसे बड़ा रुपैया, भइया!
Born in Allahabad, brought up in Delhi I served media for over 27 years. Managing Editor, Centre for Media Solutions (CMS). Write Blogs-- 'Second Opinion' (English) and 'मेरे ख़्याल से' (Hindi-- Mere Khayal Se) expressing concern on issues I feel strongly about.
Started career from English daily 'Patriot'. Switched to TV and worked for ANI and Sahara Samay news channel. Shifted to online news and became one of the founders of samaylive.com & saharasamay.com.
Privileged to have an enlightened family background. My father (Lt.) Vinaya Kr Rai was a prof of psychology. He has several books and numerous write-ups to his credit. My grandfather Mahtab Rai, General Manager with 'AAJ' newspaper, Varanasi, was younger brother of Munshi Premchand, legendary Hindi writer/ novelist.
My mother Smt Pushpa Rai is from Lucknow. She is the youngest sister of (lt.) Sumitra Kumari Sinha- renowned Hindi poetess who served AIR, Lucknow and earned fame as Batasha Bua.
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