अपूर्व राय
दिल में उमंग और जिस्म में नई जान लिए अब से ठीक एक दशक पूर्व हमने 20वीं शताब्दी में कदम रखा. बड़े- बड़े सपने देखे, बड़ी- बड़ी बहस की— कैसा होगा नई शती का नया भारत. इन सब के बीच अचानक ऐसा लगने लगा मानो भारत ही दुनिया का ध्रुव तारा है— सबसे चमकदार और सबसे अलग.
21वीं शताब्दी में प्रवेश करते हुए सबने सपना देखा एक बेमिसाल हिंदुस्तान का जो शक्तिशाली, प्रभावशाली और प्रगतिशील होगा. बच्चा- बच्चा भारत को उस आधुनिक राष्ट्र की तरह देख रहा था जो सुंदर होगा, जहां हर कोई सुखी होगा, जहां संपन्नता होगी और जहा कुशासन और कुरीतियों का अंत होगा.
ख़ैर, समय बीतता गया और देश आगे बढ़ता गया ठीक उस कार की तरह जो कच्ची सड़क पर फर्राटा भरती है. आगे बढ़ते हुए पता ही नहीं चलता कि पीछे धूल और गर्द का असहनीय गुबार छूटता जा रहा है.
पिछले एक दशक में हमारी प्रगति भी कुछ इसी तरह की रही है. बातें करने और गिनती गिनाने को तो बहुत है. अगर तरक्की की लंबी लिस्ट जानना चाहते हैं तो चुनाव का इंतज़ार कीजिये. सत्ता सुख भोग रहे नुमाइंदे इस काम को बखूबी कर देंगे. तरक्की और उपलब्धियों पर किसे खुशी नहीं होती. अगर ये अपने देश से जुड़ी हों तो फिर बात ही कुछ और है.
हमारी तरक्की भी उसी कार की तरह है जो अपने पीछे धूल का गुबार छोड़ती जा रही है. हम आगे बढ़ने की खुशी पर तो खूब नाच- गा रहे हैं पर किसे फिक्र है पीछे उठ रही धूल की जो दमघुटाऊ माहौल पैदा कर रही है. भारत में फैला भ्रष्टाचार भी देश की प्रगति में उसी धूल के समान है जो देश के वातारण में ज़हर घोल रहा है. सच्चाई तो ये है कि कच्ची सड़क पर भागती कार की तरफ ध्यान कम जाता है, पीछे से उठती धूल चर्चा और चिंता का विषय ज़रूर बन जाती है.
21वीं शती में पहुंचे भारत ने जो कुछ पाया उसे चरम पर पहुंचे भ्रष्टाचार ने मिट्टी में मिला कर रख दिया. देश का सब किया-धरा भ्रष्टाचार की आग में जलकर राख हो गया.
नई शताब्दी के एक दशक बाद सुर्खियों में देश की तरक्की नहीं है, उपब्धियां नहीं हैं, चुनौतियां नहीं हैं. सुर्खियों में हैं तो अशोभनीय विषय, जैसे—जमाखोरी और इसके कारण परेशान करती महंगाई, काला धन, बेईमानी, घूसखोरी, भ्रष्टाचार और कुशासन. 21वीं शताब्दी का भारत ऐसा होगा इसकी दूर- दूर तक किसी ने कल्पना नहीं की थी. लेकिन यही सच्चाई है. ताज्जुब की बात तो ये है कि भ्रष्ट लोग आज पनप रहे हैं, संपन्न हैं और दबंगई के साथ जी रहे हैं.
जिस किसी ने भी भ्रष्टाचार को रोकने का प्रयास किया या फिर इस काम में जुटे लोगों को उजागर करने का प्रयास किया उसे दबंगों ने यमलोक भेज दिया गया. इसका नवीनतम उदाहरण हैं महाराष्ट्र के यशवंत सोनवने जिन्हें माफिया सरगनाओं ने ज़िदा फूंक डाला. सोनवने को मारा सो मारा, इससे बड़ी दुखद बात पर गौर किया किसी ने— घटना को बीते अधिक दिन नहीं बीते हैं और उनका नाम हर तरफ से नदारद हो गया है. कलयुग में ईमानदारी का शायद यही हश्र होता है. लगभग सभी छोटी- बड़ी पार्टियों ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया और जनसभाएं कीं लेकिन इनमें से किसी ने भी ईमान को मुद्दा बनाकर जनसभा नहीं की. एक भी नामी- गिरामी नेता यशवंत सोनवने के घर नहीं गया होगा. मतलब साफ है, सबको सत्ता प्यारी है और उसे पाने के हर प्रयास वो करते हैं. भले ही आम आदमी की संवेदनाओं को क्यों न कुरेदना पड़े.
भारत में डेमोक्रेसी छह दशक पुरानी है. इतने सालों में यहां प्रजातंत्र मज़बूत तो हो नहीं सका, उलटे उसकी ज़ड़ों में भ्रष्टाचार जैसा दीमक ज़रूर लग गया. हंसी तो तब आती है जब भ्रष्ट लोग खुद ही भ्रष्टाचार पर बहस करते हैं और उससे हो रही दिक्कतों को गिनाते हैं. रोना तब आता है जब सोनवने जैसा कोई ईमानदार अफसर इसे थामने का सच्चा प्रयास करता है, लेकिन ज़िंदा जला दिया जाता है.
पिछले 60 सालों में हम महान ज़रूर बने हैं. हम और महान बन सकते थे अगर हमारी नैतिकता इतनी न गिरी होती. आज़ादी के बाद से हमने बहुत कुछ पाया, ऊंचाइयों को छुआ है, लेकिन हमारा चरित्र अभूतपूर्व रूप से गिरा है. गलत करते हैं लेकिन गलत कामों पर सिर नहीं झुकता. आज देश का झंडा ज़रूर ऊंचा है, लेकिन गर्दन झुक गई है.
भ्रष्टाचार पर चर्चा करना एक फैशन सा बन गया है. हम अपनी जागरूकता को जताते ज़रूर हैं, लेकिन हकीकत में हर भारतवासी सो रहा है और भ्रष्टाचार, जमाखोरी से निपटने के सपने देख रहा है. जागे तो मिस्र के लोग हैं जो अपनी बात को लेकर सड़कों पर उतर आए हैं और सारी दुनिया को हिला कर रख दिया है. अब इंतज़ार है भारत के भी मिस्र बनने का.
No comments:
Post a Comment