November 22, 2011

मैं और मेरी दिल्ली !



अपूर्व राय
कहते हैं मुनष्य योनि श्रेष्ठ होती है और बड़े भाग्य से इसमें जन्म मिलता है. ऐसा हो भी क्यों न–  आख़िर 84 करोड़ योनियों को पार करके हम मनुष्य रूप में धरती पर अवतरित होते हैं.


विकास कुदरत का नियम है. हर बच्चा शैशवकाल से निकल कर शनै: शनै: बड़ा होता है और विकास की सीढ़ियां चढ़ते हुए जीवन को अपनी तरह से बेहतर बनाने के प्रयास में जुट जाता है. एक पंक्ति  में कहा जाए तो यही जीवन का क्रम है.


कुछ ऐसा ही क्रम उस शहर का भी होता है जिसमें हमारा जन्म एक बालक के रूप में होता है, जिस शहर में हम चलना सीखते हैं, खेलते- कूदते हैं, पढ़ते-लिखते हैं और अपने जीवन को एक निश्चित दिशा देते हैं ताकि हम एक कामयाब मनुष्य बन सकें और अपने आसपास के लोगों में यश के भागीदार बन सकें.


मनुष्य और शहर का नाता अधिक समझाने की ज़रूरत नहीं है. जिस तरह एक मानव का विकास  होता है ठीक उसी तरह एक शहर का भी विकास होता है. हर शहर अपनी बाल्यावस्था से होते हुए, विकास की सीढ़ियां चढ़ते हुए अपना एक मुकाम बनाता है. वैसे तो हर शहर विकास की दौड़ दौड़ता है पर इनमें से कुछ इस दौड़ में इतना आगे निकल जाते हैं कि पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान बना लेते हैं. कुछ शहर तो इतने भाग्यशाली होते हैं कि उनके देश की पहचान भी उन्हीं से बन जाती है.


मनुष्य के विकास और शहर के विकास में थोड़ा फर्क़ भी होता. जहां मनुष्य का विकास काफी सीमा तक स्वत: होता है, शहर का विकास मानव बुद्धि और मानव शक्ति के बिना असंभव है.


मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में हुआ. पिता की आजीविका उन्हें दिल्ली शहर तो ले ही आई साथ में मुझे भी शैशवकाल से ही इसी शहर में ला पटका. शायद नियति की यही इच्छा थी. मैने कब दिल्ली शहर में होश संभाला और चलना सीखा कह नहीं सकता. इसके बाद तो मैं, और अब मेरा हो चुका दिल्ली शहर, दोनों ही विकास के क्रम में आगे बढ़ने लगे.


धीरे- धीरे मैं तो दिल्ली की भीड़ में कहीं खो गया लेकिन दिल्ली नहीं हारी और विकास को अपना हमसफर चुन जीवनपथ पर बढ़ती रही, बढ़ती रही. दिल्ली भाग्यशाली है कि भारत की सत्ता को अपने हाथ में ले चुके फिरंगी भी इसके विकास की बात निरंतर सोचते रहे. दिल्ली ही वह खुशकिस्मत शहर है जो इतिहास के हर दौर में विकास पथ पर अग्रसर रहा. शुरुआती दिनों से आज तक न जाने कितने लोगों ने दिल्ली पर शासन किया, इसके विकास को अपने कार्यक्षेत्र की एक उपलब्धि समझा और इस पर फक्र किया.


दिल्ली के विकास में भले ही मेरी भूमिका नगण्य हो फिर भी मैं कम किस्मत वाला नहीं हूं क्योंकि मैंने दिल्ली को विकास पथ पर चलते देखा है. यह बात दीगर है कि यह सब यूं ही नहीं आया और बहुत कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना भी पड़ा.


मुझे याद है दिल्ली अपने गोल-चक्करों के लिए जानी जाती थी लेकिन विकास की राह में ये रफू-चक्कर हो गए. दिल्ली जानी जाती थी अपनी चौड़ी और लंबी सड़कों के लिए. ये आज भी हैं पर अब ये सड़कें कम, भूल-भुलैया ज़्यादा हैं. दिल्ली जानी जाती थी अपने शानदार बंगलों के लिए पर अब आधुनिकिकरण का ज़माना है और इनकी जगह गगन-चुंबी इमारतें खड़ी हो गई हैं. कोई ताज्जुब नहीं कि आने वाले समय में दिल्लीवासी सूर्योदय और सूर्यास्त सिर्फ फिल्मों में देखा करेंगे.


दिल्ली जानी जाती थी अपने बाज़ारों के लिए. कनॉट प्लेस लाटसाहबों का बाज़ार कहलाता था पर आधुनिकीकरण के युग में अब अपनी पहचान गंवा बैठा है. कुछ यही हाल यहां के प्रसिद्ध थोक बाज़ारों का भी है. वो मशहूर थे और आज भी हैं, मगर अफसोस, विकास अभी यहां से कोसों दूर है. अपने पिता की उंगली थामकर चांदनी चौक और उसकी गलियों को मैंने जिस हाल में देखा था, लगभग उसी हाल में मेरे बेटे ने मेरी उंगली थाम कर चांदनी चौक को देखा. अगर यही आलम रहा तो कोई ताज्जुब नहीं मेरा बेटा भी अपने पुत्र को ठीक वैसा ही चांदनी चौक दिखाएगा. ऐसा हुआ है यहां का विकास कि पुश्तें बीत गईं पर बदहाली वैसी की वैसी है.


दिल्ली के इन बाज़ारों में, यहां की गलियों में व्यापार तो करोड़ों का होता है पर इनकी बेहतरी के लिए क्या हुआ है यह तो सरकारी अमला ही जानता होगा. बहरहाल सच तो यह है कि इन इलाकों में आधुनिकीकीरण या विकास दिखाई तो ज़रा भी नहीं देता, फाइलों और नेताओं के भाषणों में इनका ज़िक्र अलबत्ता हुआ होगा.


खेलकूद में भी दिल्ली कभी पीछे नहीं रही. यह गौरव की बात है कि दिल्ली में एक नहीं कई-कई स्टेडियम बने हैं जहां अनेकों अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतियोगिताएं और खेल आयोजन हुए हैं. सन 1982 के एशियाड खेल और अक्टूबर 2010 में संपन्न हुए कॉमनवेल्थ गेम्स किसे याद नहीं. दिल्ली के विकास का बहुत बड़ा श्रेय इन खेल आयोजनों को जाता है. यह बात दीगर है कि इन खेलों के आयोजक भी कम खिलाड़ी नहीं थे. इन्होंने दिल्ली का श्रृंगार और विकास कम, अपना और अपनों का भरपूर विकास ज़रूर किया.


पहले की दिल्ली की तुलना में आज की दिल्ली बहुत दूर आ गई है. आज यहां बड़ी-बड़ी इमारते हैं, बड़े- बड़े फ्लाईओवर हैं, बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल हैं, चौड़ी-चौड़ी सड़कें हैं, सड़क के नीचे और सड़क के ऊपर दौड़ने वाली मेट्रो ट्रेन है, ढेर सारी कारें हैं, ढेर सारे दफ्तर, छोटे-बड़े उद्योग हैं और सबको लुभाने वाली चमक-दमक भी है. पहले यह सब कुछ इतने बड़े पैमाने पर न था. एक चीज़ और जो पहले इतने बड़े पैमाने पर नहीं थी वह है अपराध. दिल्ली आगे ज़रूर बढ़ी लेकिन इसके साथ ही आधुनिक होते इस शहर में अपराध भी बढ़े. रंजिश, ईर्ष्या, संवेदनहीनता, छीना-झपटी, छुरेबाजी, चोरी-डकैती, वृद्धों का अपमान, औरतों के साथ छेड़छाड़, बलात्कार, बच्चों की असुरक्षा, तुनकमिजाज़ी, गुस्सा, बेसब्री, बेईमानी, झूठ-फरेब और न जाने क्या-क्या बढ़ा है दिल्ली में. आधुनिकीकरण की दौड़ में इंसानियत, प्रेम और सह्रदयता जैसी छोटी-छोटी बातें न जानें कहां छूट गई हैं.


मेरी दिल्ली विकास पथ पर है. इसके साथ-साथ मेरा भी विकास हुआ है और मैंने नए ज़माने की बहुत सी आधुनिक सुविधाओं के साथ जीना सीखा है. कभी- कभी मुझे गर्व होता है कि जिस शहर में मेरा तीन-चौथाई जीवन गुज़रा है वह दुनिया के किसी दूसरे बड़े शहर से कम नहीं. पर फिर भी अफसोस होता है कि इतना विकास और आधुनिकीकरण दिल्ली को वह मुकाम नहीं दिला पाया है जो न्यूयॉर्क ने अमेरिका को दिलाया, जो लंदन ने इंग्लैंड को दिलाया, जो टोक्यो ने जापान को दिलाया, जो शांघाई ने चीन को दिलाया, जो हांगकांग ने थाईलैंड को दिलाया, जो दुबई ने यूएई को दिलाया.


ऐसे में बहुत दुख और कोफ्त होता है. गुस्सा अपने नेताओं और सरकारी बाबुओं पर आता है जो बड़े- बड़े ओहदे पाने के लिए बड़ी- बड़ी बातें करते हैं, बड़े- बड़े वादे करते हैं, ढेर सारी उपलब्धियां गिनाते हैं, कभी न पूरी होने वाली योजनाएं बनाते हैं और मासूम जनता को हसीन सपने दिखाते हैं. सही मायनों में दिल्ली के अपराधी यही लोग हैं, नहीं तो आज सचमुच मेरी दिल्ली मेरी शान होती.
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NOTE


Also read other my other pieces:
Copy/ Paste the given links to reads these Blogs. 

1) BECOMING KEJRIWAL! (2020)
https://apurvaopinion.blogspot.com/2020/02/becoming-kejriwal.html

2) हवा ही है ज़हरीली (2019)
http://apurvarai.blogspot.com/2019/12/blog-post.html 

3) अब दिल्ली महानगरपाविका चुनाव (2017)
http://apurvarai.blogspot.com/2017/04/blog-post.html

4) Monsoon and Delhi Roads (2017)
https://apurvaopinion.blogspot.com/2017/07/monsoon-and-delhi-roads.html

5) Delhi Fights Pollution: Odds Come Again (2016)
https://apurvaopinion.blogspot.com/2016/04/delhi-fights-pollution-odds-come-again.html

6) Delhi Pollution: Fighting Odds to make Things Even (2016)
https://apurvaopinion.blogspot.com/2016/01/delhi-pollution-fighting-odds-to-make.html

7) Delhi Pollution- Check 'Green Agenda' of Builders (2015)
https://apurvaopinion.blogspot.com/2015/07/delhi-pollution-time-to-check-green.html

8) Delhi Pollution: Mindless Driving Major Concern (2015)
https://apurvaopinion.blogspot.com/2015/07/mindless-driving-polluting-delhi.html


 

September 15, 2011

मेरा दिल रो रहा है!

दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर 7 सितंबर, 2011 के बम धमाके के बाद तैनात जवान.
अपूर्व राय
मेरे परिवार के लोग मुझसे काफी नाराज़ हैं. वजह है कि न तो मैं किसी को सिनेमा ले जा रहा हूं और न ही शॉपिंग के लिए बाज़ार.


पर इसमें नया क्या है. यह तो हर घर में होता है. नाराज़गी और समझौता तो ज़िंदगी के दो पहिए हैं जिन पर सवार होकर हम सफर करते हैं.


पर हमारे सफर में अड़चन यह है कि मैं घर में सबसे ज़्यादा बाहर घूमने और बाज़ार में खाने-पीने का शौक रखता हूं. अब मैं ही परिवार के लोगों को इसके लिए मना कर रहा हूं. यूं कहिए कि मैने अपने शौक को पिंजरे में कैद कर दिया है और इसके साथ ही परिवार के दूसरे लोगों की हसरतें और उम्मीदें भी इसी पिंजरे में कैद हो गई हैं.


घर में जब-जब बाहर जाने की बात उठती है तो हर बार मेरे मुंह से एक ही बात निकलती है कि अगर गए और बम फट गया तो?


पिछले कुछ सालों से देश के किसी न किसी शहर से बम फटने की ख़बरें लगातार आ रही हैं. बम मुंबई में फटता है, सहम जाते हैं दिल्लीवाले.


इसी महीने की शुरुआत में दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर ज़ोरदार बम फटा. इस धमाके से कोई अछूता नहीं रहा. इसकी चपेट में आए कई लोग अपनी जान गंवा बैठे और ढेरों अस्पताल में इलाज करवा रहे हैं. जो लोग दूर घरों में थे उनकी आत्मा मर गई और दिल घायल हो गए.


मैं भी शायद ऐसे ही चंद लोगों में हूं. बार-बार की आतंकी वारदातों ने मेरा दिल छलनी कर दिया है और मेरे उत्साह की हत्या. आज मेरा परिवार कहीं जाना चाहता है तो मैं उन्हें डरा देता हूं और उनके उत्साह के दमन का हर प्रयास करता हूं.


मेरे अंदर यह परिवर्तन पिछले कुछ सालों में ही आया है. इससे पहले मैं खुद को खुशनसीब समझता था कि मेरा जन्म आज़ाद भारत में हुआ है. मैं गर्व महसूस करता था कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है, इसका संविधान दुनिया का सबसे अच्छा संविधान है और यहां नागरिकों को सम्मान का जीवन व्यतीत करने की हर तरह के अधिकार प्राप्त हैं.


लगातार हो रहे धमाकों ने मेरे विचारों की धज्जिया उड़ा कर रख दी हैं. आज मुझे दुख है कि मैं अपने ही देश में डर-डर कर जीने को मजबूर हूं.


मुझे इस बात का इल्म है कि मेरे देश में एक सक्षम सरकार है जिसके पास ताकत और पैसा दोनों हैं. देश में ज़बरदस्त कानून व्यवस्था है, प्रशासक हैं और वह सब कुछ है जो किसी भी देश के नागरिक के जीवन को सुखी और निडर बनाने के लिए काफी है. पर अफसोस सिर्फ इस बात का है कि इन सबका इस्तेमाल न तो ठीक तरह से हुआ और न ही हो रहा है. अगर ऐसा हो रहा होता तो निश्चित ही मेरा परिवार मुझसे नाराज़ न होता और हमारा जीवन का उत्साह पिंजरे में कैद न होता.


इसी व्यथित मन से मैने घर में कह दिया कि अगर कभी विदेश जाने का मौका लगा तो पासपोर्ट फाड़कर फेक दूंगा और कभी वापस नहीं आउंगा. सब सकते में आ गए क्योंकि मैं ही था जो कभी कहता था कि पड़ोसी की फूलों की सेज़ से अपने घर का टाट का बिछौनी बेहतर है. लेकिन क्या करूं अब घर का टाट ही जवाब दे रहा है और इसमें से सड़न-गलन की बू आने लगी है.

बार-बार सोचता हूं कि आखिर दूसरे देशों में ऐसा क्या है कि वहां लोग खुशियों भरी ज़िंदगी बिता रहे हैं, सबके चेहरों पर मुस्कुराहट बिखरी है और हर तरफ खुशहाली दिखलाई दे रही है. उन देशों में भी वही सरकार है, कानून है, प्रशासक और पुलिस हैं. सोचा तो लगा कि शायद उनके पास इन सबके साथ-साथ ईमानदारी और चरित्र भी है.


लगता है हमारे देश में ये दोनों ही कहीं गुम हो गए हैं. सोचता हूं बार-बार होने वाले धमाके कहीं हमारी बेईमानी और चरित्रहीनता का नतीजा तो नहीं हैं?



भारत में चल रही राजनीति की दिशा और दशा ने मुझे सबसे अधिक कष्ट दिया है.


मानता हूं हर समाज में असमाजिक तत्व होते हैं. कानून तोड़े जाते हैं, अपराध होते हैं और धमाके भी होते हैं. पर उनसे निपटने की तैयारी भी होती है और सबक देने के लिए सज़ा. हमारे देश में ही यह सब है पर इन सबके ऊपर है राजनीति.


धमकों के बाद टीवी खोलिए किसी भी न्यूज़ चैनल पर शासक दल के नेता सरकार की सतर्कता का बखान करते दिख जाएंगे, पुलिस और जांच अधिकारी उपलब्धियां गिना रहे होंगे और विपक्ष के नेता इन सबमें खामियां निकाल रहे होंगे. सच मानिये इस बीच एक धमाका और हो जाएगा.


नेताओं की राजनीति और सत्ता लोभ ने मुझ जैसे आम आदमी की ज़िंदगी को दूभर बन दिया है. मेरे जैसे न जाने कितने ही लोग हैं जो अपने ही देश और समाज में एक- दूसरे से डरते हैं, हर अजनबी से बचते हैं और किसी जानने वाले पर भी अविश्वास की भावना रखते हैं.


ऐसे समाज और देश में आज मेरा दिल रो रहा है. मेरी आतुर निगाहें उसको तलाश रही हैं जो मेरे आंसू पोंछ सके, मेरे अंदर बैठे डर को भगा सके, अपनों के प्रति मेरा विश्वास जगा सके और मेरे परिवार की मेरे लिए नाराज़गी दूर कर सके.

September 01, 2011

सबसे बड़ा रुपैया, भइया!

बहुत पुरानी कहावत है कि किसी भी चीज़ की अति बुरी होती है. ऐसा ही कुछ भ्रष्टाचार के साथ भी हुआ है. घूसखोरी, हेरा-फेरी इस कदर बढ़ गई कि दुर्बल दिखने वाले किन्तु इरादों के पक्के एक वृद्ध व्यक्ति (मैं अन्ना हज़ारे की बात कर रहा हूं) की एक पुकार पर पूरा देश एकजुट हो गया. लोग न सिर्फ सड़कों पर उतर आए बल्कि उन्होंने अपने रोष का खुलेआम जमकर इज़हार भी किया.


इक्कीसवीं शती के भारत में ऐसा भी नज़ारा देखने को मिलेगा किसी ने ख्वाब में भी न सोचा होगा. लेकिन समय बदल गया है और ख्वाब हकीकत में बदल रहे हैं.


हमें अन्ना जी के जज़्बे और उनकी हिम्मत को सलाम करना चाहिए. उन्होंने देश में जागरूकता और एकता की ऐसी मिसाल रख दी कि देखने वाले देखते ही रह गए.


सच पूछिये तो भ्रष्टाचार नासूर बनकर लोगों का जीना मुश्किल कर रहा है. जो 'कमाने' की स्थिति में है वह निडरता से कमाए जा रहा है और जो रिश्वत दे रहा है उसके पास कोई दूसरा चारा नहीं है और वह निरीह सा जी रहा है. वाकई इसे ही कलयुग कहते हैं-- 'चोर' करे ऐश और ईमानदार करे मजूरी.


भ्रष्टाचार, घूसखोरी और हेरा-फेरी के सबसे ज़्यादा मामले सरकारी दफ्तरों में मिल जाएंगे. सरकारी काम हो, सरकारी धन हो, सरकारी कर्मचारी हों और हेरा-फेरी न हो! ऐसा हो ही नहीं सकता.


सरकारी कर्मचारी आपको रुपए की ताकत का अहसास पग-पग पर कराते रहते हैं. आपका मकान बन रहा है-- नक्शा बनवाना, पास करवाना, बिजली-पानी के कनेक्शन से लेकर कई छोटे-बड़े काम हैं जो बिना 'लेन-देन' के संभव नहीं. गाड़ी का लाइसेंस, पासपोर्ट, रेल के सफर में टीटी से गोटी बैठाना, सेल्स टैक्स और इनकम टैक्स अधिकारियों से 'डीलिंग', पुलिस से पाला, टेलीफोन और बिजली विभाग में काम करवाना, पुल या सड़क का निर्माण कार्य, सरकारी विभागों में टेंडर से लेकर खरीद फरोख्त (परचेज़)-- न जाने कितने विभाग और कार्य हैं जहां सिर्फ दो ही चीज़ें काम आती हैं, एक पैरवी और दूसरी रिश्वत.


'ऊपर की कमाई' कर रहे हज़ारों-लाखों कर्मचारी भ्रष्ट हैं लेकिन आपको कितने ऐसे मिले हैं जिन्होंने इस सच्चाई को स्वीकारा. शिकायत सभी को है, लेकिन मजाल है कि किसी ने कहा हो कि उसके पास 'ऊपर' की भी आमदनी है. आश्चर्य है! मतलब ये कि बेईमानी भी करते जाएये और दंभ भरिये ईमानदारी का.


ऐसा नहीं है कि तमाम सरकारी विभागों और कार्यालयों में ही रुपया बोलता है. ज़रा लोगों के घरों पर भी बारीक नज़र डालिए, पता चल जाएगा रुपया दफ्तरों में ही नहीं घरों में भी बोलता है. सरकारी ज़मीन या मकान तो नियम से एक ही खरीदा जा सकता है, लेकिन प्राइवेट बिल्डरों के डिज़ाइनर फ्लैट चाहे जितने खरीदिये और चाहे जहां, कोई रोकटोक नहीं. यही वजह है कि 'ऊपर की कमाई' इन डिज़ाइनर घरों की खरीद में खूब खर्च होती है और यह निवेश भी साबित होती है. शायद यही वजह है कि महंगे डिज़ाइनर फ्लैटों की न ही तो मांग कम हो रही है और न ही कीमत. नतीजा ये कि ईमानदार आदमी के लिए सैलरी से रुपया बचाकर या फिर बैंक से कर्ज़ लेकर अपने लिए एक आशियाना बनाना एक सपना ही रह गया है.


'नंबर दो की कमाई' खर्च होती है होटलों में महंगा खाना खाने पर, महंगे और बड़ी ब्रांड के कपड़ों पर, हीरे और सोने के गहनों पर, पेट्रोल पर, हवाई यात्राओं पर, विदेश की सैर पर और बच्चों के पॉकेट मनी पर.


बेचारे रिश्वतखोर, कितना खर्च करें.


इस बात पर और भी ताज्जुब होता है कि रिश्वत लेने वाले और हेरा-फेरी करने वाले ज़्यादातर लोग पढ़े-लिखे हैं. कहते हैं शिक्षा से मूल्यों में सुधार होता है पर जो उदाहरण देखने को मिलते हैं वो एकदम इसके विपरीत हैं. वाह री शिक्षा प्रणाली-- लोगों को डिग्रियां तो खूब मिलीं, पर शिक्षा धरी रह गई.


यह भी अचरज की बात है कि लगभग सभी लोग सरकारी नौकरी पाते वक्त समाज और देश सेवा का हवाला देते हैं. लेकिन बाद में क्या होता है हम सभी जानते हैं-- खूब समाज और देश सेवा हो रही है.


सरकारी पुलों में 30-40 सालों में ही दरारें दिख जाती हैं, लेकिन ठेकेदारों और इंजीनियरों के घरों की दीवारें जीवन भर नहीं हिलतीं. सड़कों पर हर साल-दो साल में गड्ढे पड़ जाते हैं, लेकिन ठेकेदारों के घरों की फर्श सालों-साल चमकती रहती है. वन विभाग हर मॉनसून में लाखों रुपयों के पौधे लगवाता है जो कुछ महीनों में सूख भी जाते हैं लेकिन अधिकारियों के घरों के गमले सदा हरे-भरे रहते हैं.
इस सबमें दोष हमारी प्रणाली का भी है. अफसोस इतना है कि प्रणाली की खामियों का सबसे ज़्यादा फायदा भी वही उठा रहे हैं जिन्होंने इसे बनाया है.


वैसे तो भ्रष्टाचार, अनाचार और दुराचार सदा से ही हर देश और समाज का हिस्सा रहे हैं. कुछ पश्चिमी देशों में उन जगहों पर रिश्वत और घूस नहीं ली जाती जहां आम आदमी से जुड़े काम होते हैं. लेकिन हमारे देश में उलटा है. पब्लिक डीलिंग से जुड़े विभागों में जमकर रिश्वत चलती है क्योंकि यहीं पर कमाई की गुंजाइश सबसे ज़्यादा होती है. लोगों का काम फंसेगा तो पैसा देंगे ही. जन सुविधाओं से जुड़े विभाग ही तो 'आमदनी' का सबसे बढ़िया ज़रिया होते हैं, हमारे यहां के लोग इसे बखूबी जानते हैं.


भ्रष्टाचार बढ़ाने में उदारीकरण और बाज़ारवाद ने आग में घी का काम किया है. बाज़ार में एक से बढ़कर एक सामान आ गया है जिससे नई-नई ज़रूरतें भी पैदा हो गई हैं. जब ज़रूरतें पैदा हो गई हैं तो उन्हें पूरा करने के लिए पैसा पैदा करना भी ज़रूरी है. सो, प्रणाली में खामियां ढूंढी गईं और लोगों की ज़रूरतों का फायदा उठाया गया.


जब पैसा आने लगा और ज़रूरतें पूरी होने लगीं तो अरमान बढ़ने लगे. अब अरमानों पर कहां लगाम लगती है, वह तो होते ही हैं उड़ने के लिए. तो अब उड़ाने के लिए रुपया 'कमाया' जाने लगा.
मजमून साफ है कि बढ़ते अरमानों ने भ्रष्टाचार, हेरा-फेरी, सफेद झूठ और चरित्रहीनता को जन्म दिया है.


सच पूछिये तो सरकार की साख गिराने में सरकार से जुड़े लोग ही सिर्फ ज़िम्मेदार हैं-- अब चाहे वो मंत्री हों या फिर अधिकारी. दोषी सभी हैं. कुछ अपवादों को नकारा नहीं जा सकता लेकिन हम सभी जानते हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पिसता ही है.

June 10, 2011

खो गया ईमान

एक मैं हूं और एक है मेरा चेला. हर ख़बर और हर विषय पर अपनी बेबाक राय देना चेले की ख़ास आदत है. इतना ही नहीं ज़रूरत पड़ने पर बहस करता है और कभी- कभी तो कटबहसी भी. लेकिन उसके सजग और चैतन्य होने की दाद देनी पड़ेगी.
कुछ दिन पहले चेले ने अख़बार में छपी एक ख़बर पढ़ाई. य़ह ख़बर एक ग़रीब और बूढ़े रिक्शेवाले की थी जिसको रुपयों से भरा एक थैला मिलता है. बेचारा रिक्शेवाला ग़रीब था, झोपड़ी में रहता था, खाने का ठिकाना नहीं था लेकिन फिर भी उसका ईमान नहीं डोला और वह उस थैले को ले जाकर थाने में जमा करा आया यह सोचकर कि यह किसी दूसरे की संपत्ति है और पुलिस उसे उसके मालिक तक पुहंचा देगी.
मैंने कहा कि वाकई ख़बर झकझोर देने वाली है और ईमान की एक लाजवाब मिसाल है. लेकिन इसमें कोई ख़ास बात भी नहीं है क्योंकि सालभर में ऐसी चार-छह ख़बरें पढ़ने को मिल ही जाती हैं. हम सब इनको पढ़ते हैं, ग़रीब की प्रशंसा में दो शब्द कहते हैं और फिर वाकये को भुला बैठते हैं.
चेला बोला, यहीं तो मात खा गए गुरु. तुम भी उन लाखों पाठकों की तरह हो जिन्होंने ख़बर पढ़ी और भुला दिया. उसने कहा, लेकिन गुरु, मैंने इस घटना को भुलाया नहीं बल्कि उस पर गहराई से मनन किया. मैंने इस तरह की कई घटनाओं की बारीकियों को देखा और अपना नतीजा निकाला.
मैं कुछ उत्साहित हुआ और चेले से कहा मेरा भी कुछ ज्ञानवर्धन करे.
चेले ने कहा कि ऐसा क्यों होता है कि हर बार रुपयों से भरा बैग किसी ग़रीब को ही मिलता है. वह ग़रीब या तो रिक्शा वाला होता है, ऑटो चलाने वाला होता है, कुली होता है या फिर कोई मज़दूर. ये सभी लोग ग़रीब हैं, दो जून की रोटी के लिए दिन-दिन भर पसीना बहाते हैं, अपने अरमानों को पूरा करने के लिए सारी ज़िदगी गुज़ार देते हैं और शौक पालने का तो उनके जीवन में कोई स्थान ही नहीं है.
चेले ने दूसरी बात यह कही कि ये सभी ग़रीब लोग या तो अशिक्षित हैं या फिर बहुत कम पढ़े-लिखे. इनमें से ज़्यादातर तो अपना नाम तक नहीं लिख पाते होंगे या फिर थोड़ा- बहुत लिख-पढ़ लेते होंगे.
बात ठीक से मेरी समझ में नहीं आई. मैने चेले को फटकारा और कहा कि पहेलियां मत बुझाए और साफ-साफ कहे क्या कहना चाहता है.
चेले ने समझाते हुए कहा कि ग़ौर करने वाली बात ये है कि समाज के जो लोग अशिक्षित हैं या फिर कम पढ़े-लिखे हैं उन्हीं लोगों में धर्म, ईमान और सदाचार का उदाहरण देखने को मिलता है. चेले ने कहा कि देश के किसी भी कोने से ऐसी घटना पढ़ोगे तो यही पाओगे कि ग़रीब को रुपयों से भरा बैग मिला और उसने उसे लौटा दिया. ऐसा करते वक्त न तो उसका मन डोला और न ही उसे अपने माता- पिता या बीवी-बच्चों का ख्याल आया.
चेले ने कहा कि अगर ऐसा ही कोई थैला तुम्हें या मुझे मिलता तो हम उसे लौटाने से पहले दस बार ज़रूर सोचते.
चेले की बात सुनकर मैं अवाक रह गया और कहा इसे कहते हैं गुरु गुड़ ही रह गए और चेला शक्कर हो गए!
इसके बाद चेला तो चला गया पर मन में खलबली पैदा कर गया. मैं सोचने लगा क्या सचमुच ग़रीब और अनपढ़ ज़्यादा ईमानदार होते हैं? मैंने तो अब तक यही जाना था कि हर मां- बाप अपने बच्चों को पढ़ाना-लिखाना चाहता है ताकि आगे चलकर उसकी संतान ऊंची शिक्षा हासिल करे, अच्छी नौकरी पाए और खूब तरक्की करे. बच्चे अच्छी बातें सीखें इसके लिए बचपन से ही पंचतंत्र जैसी कहानियां पढ़ाई गईं, राजा राम का उदाहरण रखा गया और राजा हरिश्चंद्र की मिसाल दी गई. बचपन से ही देशभक्ति के गीत सुनाए गए और परिश्रम के मीठे फल पर निबंध लिखवाए गए. मैं यह सोचने पर मजबूर हो गया कि जिस देश के बच्चों की शिक्षा की नींव इतनी खूबसूरत हो उस देश के बच्चों का चरित्र भला कैसे खराब हो सकता है.
लेकिन कहीं न कहीं कोई चूक तो ज़रूर हुई है. देश में बेईमानी और भ्रष्टाचार अपने चरम पर है और एक से बढ़कर एक चेहरे सामने आ रहे हैं. ये सभी लोग खूब पढ़े- लिखे हैं– ग्रेजुएट से लेकर डॉक्टरेट तक. इतना ही नहीं ये सभी ऊंचे- ऊंचे पदों पर आसीन भी हैं और उन्हें जीवन में किसी तरह की कमी भी नहीं है. लेकिन त्रासदी देखिए कि कोई भी सरकारी विभाग ऐसा नहीं है जहां भ्रष्टाचार न हो. चाहे खेल विभाग लें, उद्योग लें, रेलवे लें, विज्ञान और स्वास्थ्य की बात करें, इनकम टैक्स और शिक्षा विभाग लें या फिर डिफेंस की तरफ ही देखें– कोई भी भ्रष्टाचार के किस्सों से अछूता नहीं है.
हर सरकारी कर्मचारी- क्लर्क से लेकर आईएएस तक, सभी पढ़े- लिखे हैं. इन सबने परीक्षा देकर नौकरी पाई और सभी अच्छा खाते है, अच्छा रहते हैं और अच्छा पहनते हैं. लेकिन फिर इन्हीं में से कई ऐसे हैं जिनके लालच की सीमा नहीं. लोभ उन पर इस तरह हावी हो जाता है कि उन्हें देश और समाज सब भूल जाता है. सरकारी प्रोजेक्ट हो, सरकारी धन हो और सरकारी कर्मचारी हो तो फिर भला हेरा- फेरी क्यों न हो!
शिक्षा ने इन कर्मचारियों को अच्छी नौकरी तो दिला दी लेकिन साथ ही इन्हें चालाक और सयाना भी बना दिया. हाथ में पैसा आया और सत्ता आई तो फिर ईमान डोल गया. पहले एक कार खरीदी फिर घर के हर सदस्य के लिए कारें खरीदीं. पहले एक घर बनवाया फिर होम टाउन से लेकर पहाड़ों तक बेनामी घर खरीद डाला. आखिर मन चंचल है न जाने कब कहां जाकर रहने का दिल कर जाए. खाने- पीने, घूमने-फिरने के तौर तरीके भी बदल गए और आसानी से आ रहा रुपया पानी की तरह खर्च होने लगा. पैसा आए तो खर्च की सीमा थोड़े ही होती है.
लेकिन कहते हैं न जब पानी सर के ऊपर चढ़ जाता है तो फिर परेशानी होने लगती है. यही भ्रष्टाचार के साथ हो रहा है. बेईमानी, हेरा-फेरी और झूठ इतना हावी हो गया है कि पूरे देश में हर तरफ इसके विरोध में आवाज़ गूंज रही है.
भ्रष्टाचार के विरोध में दो ऐसे व्यक्ति सामने आ खड़े हुए हैं जो अपने दायित्व के लिए तो जाने जाते हैं लेकिन अपनी शिक्षा के लिए नहीं. वाह मेरे चेले वाह, तूने तो मेरी आंखें ही खोल दीं. भ्रष्टाचार और पढ़े-लिखों के खिलाफ आवाज़ अब कम पढ़े- लिखे ही तो उठाएंगे. आखिर चरित्र नाम की चीज़ उन्हीं के पास सुरक्षित जो है. शिक्षा ने बहुत से लोगों को बड़ा बनाया, सदाचारी बनाया और चरित्रवान भी बनाया है. पर अब वक्त बदल गया है और ये सब नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गए हैं.
आज जब छोटे- छोटे बच्चों को स्कूल जाते देखता हूं तो मन दुविधा में पड़ जाता है. आखिर क्यों जा रहे हैं ये स्कूल? सोचता हूं अगर पढ़ाई न करते तो शायद बेहतर इंसान बनते. पर मैं ऐसा कभी नहीं चाहूंगा क्योंकि मैं शिक्षा के महत्व को समझता हूं. समाज और देश की तरक्की के लिए शिक्षा बहुत ज़रूरी है. मैं यह भी नहीं चाहूंगा कि शिक्षा पाकर ये बच्चे ऐसे अफसर बनें जो घोटाला करते हैं, हेरा-फेरी करते हैं और स्वार्थी होते हैं.
बेहतर होता कि ये बच्चे स्कूल में शिक्षा प्राप्त करते और उस रिक्शावाले से भी ईमान का पाठ सीखते जिसके रिक्शे में बैठकर वो स्कूल जा रहे हैं.

March 19, 2011

होली के रंग हज़ार


अपूर्व राय
इस साल ऐसी ठंड पड़ी कि हर कोई परेशान हो गया. सबको बेसब्री से इंतज़ार था कब होली आए, मौसम बदले और सर्दी से राहत मिले.

इंतज़ार की घड़ियां अब समाप्त हुईं और फाल्गुन गया है. फिज़ां में रंगों की छटा है, लोगों में मस्ती और अल्हड़पन देखा जा सकता है. बाज़ार निकलिये तो दुकानों पर तरह- तरह की रंगीन पिचकारियां दिखाई दे जाएंगी. लाल, पीले, गुलाबी और हरे रंगों में अबीर- गुलाल वातावरण में मस्ती का संदेश दे रहे हैं. होली के इसी रंग और मस्ती का तो सालभर सबको इंतज़ार रहता है.

होली रंगों का त्यौहार तो है ही, साथ ही यह प्रेम का संदेश और भाईचारे के भाव को भी लेकर आता है. यही वो पर्व है जब हम गिले- शिकवे भुलाकर एक दूसरे को रंग लगाते हैं और प्रेम भाव से एक दूसरे को गले लगाते हैं. प्रेम से मिलना और साथ में खाना- पीना एक ऐसी परंपरा है जो परिवार, मित्रों और समाज को एक- दूसरे के करीब लाती है.

इधर कुछ समय से हमारे आसपास तमाम ऐसी घटनाएं हो रही हैं जिनसे साफ महसूस किया जा सकता है कि भाईचारा अब जाता रहा. इन घटनाओं ने सदियों पुरानी सद्भावना और सहिष्णुता की परंपरा को ठेस पहुंचाई है.


गिरावट की बात जब उठती है तो सबसे पहले भ्रष्टाचार का मुद्दा हमें झकझोर कर रख देता है. लंबा अरसा हो गया हम भ्रष्टाचार की बात कर रहे हैं, लेकिन तो इससे मुक्ति पाने का कोई ठोस कदम उठा पाए और ही किसी भ्रष्ट को ऐसी सज़ा दे पाए कि दूसरे सहम जाएं. भ्रष्टाचार और घोटालों की घटनाओं ने देश की छवि ऐसी खराब की है कि सारा विश्व भारत को घोटालों का देश मानने लगा है.

ऐसा लगता है कि सदाचारी, ईमानदार और मेहनती लोगों की कौम कहीं लुप्त हो गई है. चाहते हुए भी बार- बार कुछ ऐसा होता है कि बेइमान और चरित्रहीन लोगों का नाम उजागर हो जाता है और सच्चे, ईमानदार लोग गुमनामी में खो जाते हैं.
होली का पर्व है, ऐसे में काश कोई लगाता रंग सदाचार के.

सिर्फ भ्रष्टाचार ही हमारी नैतिकता के पतन के लिए ज़िम्मेदार नहीं है, आज हम भेदभाव की बात भी पहले से ज़्यादा करने लगे हैं. शायद लोग भूल गए हैं कि आज़ादी की लड़ाई में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक सारा देश एकजुट था और सबने मिलकर ऐसा आंदोलन खड़ा किया कि अंग्रेज़ भारत को भारतवासियों के हवाले करने को मजबूर हो गए

आज जबकि भारत की कमान भारतीयों के हाथ में है तो जात- पात की बात हो रही है, अलग राज्य बनाने की बात ज़ोर पकड़ रही है और भाषा के नाम पर लोगों के साथ दुर्वयव्हार हो रहा है. कश्मीर में हिंसा, गोरखालैंड की मांग, तेलंगाना का मुद्दा, मराठी के नाम पर दूसरी भाषा बोलने वालों के साथ सौतेला व्यवहार, पिछड़ी जाति के नाम पर वोट और सत्ता हथियाने की राजनीति, जाति के नाम पर नौकरियों में आरक्षण आदि अनेक ऐसे मुद्दे हैं जो एकजुटता और प्रेम की भावना को आहत करते हैं.

कभी सुकून से बैठकर सोचें तो लगता है कि क्या इसी के लिए हमारे पूर्वजों ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी, क्या संविधान बनाने वलों ने इसीलिए समानता और सामाजिक न्याय की बात कही थी?
होली का पर्व है, ऐसे में काश कोई लगाता रंग सौहार्द के.


राधा-कृष्ण का रास और होली हर किसी का, मन मोह लेती है.
रास: होली पर राधा-कृष्ण की रासलीला. Pix- APURVA RAI
किसी भी सभ्य समाज में हिंसा का कोई स्थान नहीं है. सभी यही चाहते हैं कि हर तरफ प्रेम भाव बना रहे और कोई मारपीट करे. लेकिन हकीकत इससे परे है. हिंसा समाज का हिस्सा है, लेकिन तकलीफ तब होती है जब मारपीट, दुराचार और अत्याचार जैसी घटनाएं ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ जाती हैं

कहते हैं रामराज में हर कोई सुखी था और लोग आत्मीयता से रहते थे. मारपीट आदि की घटनाएं यदा-कदा ही सुनाई पड़ती थीं भले ही लोगों के पास उतनी सुविधाएं नहीं थीं जितनी विज्ञान के युग में आज हमारे पास हैं. आज जबकि सुविधाएं बढ़ गई हैं, समाज में हिंसा भी बढ़ गई है. रामराज की बात करना तो आज बेमानी सा लगता है.

देश का कौन सा कोना ऐसा है जहां निर्भय होकर विचरण कर सकते हैं. आज के समाज में पुरुष असुरक्षित हैं और स्त्रियां अपराध का शिकार. छोटी- छोटी बात पर किसी की जान ले लेना, महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाना ऐसी घटनाएं हैं जो तेज़ी से बढ़ती जा रही हैं

स्थिति यहां तक पहुंची है कि आज उन पर भी भरोसा नहीं होता जो भरोसे के सबसे बड़े पात्र हैं. हिंसा और मारपीट के बीच अविश्वास और नफरत की आग जो फैली है उसे बुझाना हमारी सबसे बड़ी चुनौती है.
होली का पर्व है, ऐसे में काश कोई लगाता रंग प्यार के.

त्योहारों का एक ख़ास नाता व्यंजनों से भी होता है. हर पर्व पर कुछ विशेष प्रकार की खाने- पीने की वस्तुएं बनती हैं. होली आती है तो कौन गुजिया नहीं खाना चाहता. यही वो पर्व है जब तरह- तरह के नमकीन भी बनाए जाते हैं
होली के पर्व पर गुजीया, दही-भल्ले और नमकीन आदि व्यंजन बनाने की परंपरा है.
होली के पर्व पर गुजीया, दही-भल्ले और नमकीन आदि व्यंजन बनाने की परंपरा है.

त्यौहार का मौका हो और खाने- पीने के उम्दा व्यंजन हों तो मन प्रसन्न हो ही जाता है. लेकिन हमारी प्रसन्नता उस वक्त अफसोस में तब्दील हो जाती है जब हमें मिलता है मिलावटी दूध, पनीर, खोया और घी- तेल. जिस तरह हम लोग खाने की चाहत में साल भर पर्व का इंतज़ार करते हैं उसी तरह मिलावटखोर भी त्योहार का इंतज़ार करते हैं ताकि वो अपना सामान बाज़ारों में बेच सकें. सचमुच रुपए की हवस में हम कितना गिर गए हैं.
होली का पर्व है, ऐसे में काश कोई लगाता रंग स्वाद के.

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1) आज बिरज में होली रे रसिया
http://apurvarai.blogspot.in/2016/03/blog-post.html