March 22, 2025

कुंभ में नहीं लगी डुबकी तो क्या !

 


प्रयागराज महाकुंभ 2025/ Prayagraj Mahakumbh 2025

अपूर्व राय/ APURVA RAI

महाकुंभ खत्म हो चुका है. जो महामेला 13 जनवरी 2025 को आरंभ हुआ उसका समापन 26 फरवरी को हुआ. अब केवल महास्मृतियां शेष हैं— कुछ खट्टी, कुछ मीठी. यह महाकुंभ था, यानि वह कुंभ जो 144 सालों के बाद पड़ता है. पिछला महाकुंभ मेला साल 1881 में पड़ा था. अब 2025 में जो महासंयोग बना वह 45 दिनों तक चला. हमारी पीढ़ी भाग्यशाली है कि इस महामौके को जाना, सुना, देखा, महसूस किया और इसके साक्षी बने.

इस महाउत्सव का जो महासंचार दिखाई दिया वह अद्भुत था, अविस्मरणीय था. महामेले में लगा महाजमावड़ा तो समाप्त हो चुका है लेकिन एक महाचर्चा अविरल चल रही है. एक-दूसरे से मिलने पर बातों का सिलसिला चाहे किसी भी विषय से शुरू हो पर कुंभ की चर्चा के बिना बातचीत अधूरी सी रहती है. जो गया वो अपना तजुर्बा बतला रहा है, जो नहीं गया वो न पहुंच पाने के कारण गिना रहा है. 

महाकुंभ पर एक महासवाल उठता ही है— कुंभ गए थे? स्नान किया? अब जो लोग स्नान कर आए उनका चेहरा देखिये कैसा खिला-खिला दिखता है. बहुत गर्व से बतलाते हैं हम तो नहा आए, गंगा में डुबकी भी लगा ली. मुझे तो एक साहब ऐसे भी मिले जिन्होंने गंगा में 51 डुबकियां लगाईं. मैं तो हतप्रभ रह गया.  अभी तक सोच रहा हूं बहुत बड़े भक्त थे या फिर घोर पापी! अब ज़रा उनका रुख कीजिये जो नहीं जा पाए या फिर गए नहीं. इनका चेहरा देखिये, थोड़ा फीका दिखता है, उतरा हुआ सा लगता है. कुंभ की बात आते ही सफाई देने लगते हैं क्यों नहीं जा पाए. साफ है जाना तो चाहते थे पर क्या करें कमबख़्त परिस्थिति ही ऐसी बन गई कि मन मसोस कर रह गए. अब न जाने वालों की ही एक तीसरी श्रेणी भी है जिन्होंने जाना ही नहीं चाहा. वजहें कोई भी हो सकती हैं पर न जाने का तर्क इन्हें भी देना ही पड़ता है. 

महाकुंभ के शुभ समय के दौरान और बाद में भी मेरा मुलाकात बहुत से लोगों से हुई. जो लोग स्नान कर आए थे उनके स्वर में एक चहक थी, पूरी यात्रा की लंबी कहानी थी सुनाने को और सबसे बड़ी बात तो यह कि उनके दिल में बहुत बड़ा संतोष भाव झलकता है कि हां भई, हम तो हो आए! यह हो आए का भाव है कि इन लोगों का सर गर्व से ऊंचा हो जाता है. जो नहीं जा पाए, मानों या न मानों, उनके अंदर जलन का भाव तो आ ही जाता है.

कुलकर मिलाकर महाकुंभ के बाद दो गुट बन गए हैं, एक स्नानियों का और दूसरा अस्नानियों का. दोनों के पास अपनी-अपनी बात कहने को बहुत कुछ है. एक को इस बात का गर्व है कि इस महामौके का लाभ उठा लिया और दूसरे का कहना है कि कोई बात नहीं, मौका फिर मिलेगा.  

कैसे-कैसे पहुंचे, कैसे-कैसे किया स्नान

बताया गया 144 सालों के पश्चात महाकुंभ का जो शुभ महायोग बना है वह आज के लोगों के लिये उनके जीवन का स्वर्णिम अवसर है. कौन भला इस महाअवसर का लाभ प्राप्त करना नहीं चाहेगा. एक होड़ सी लग गई, चलो प्रयागराज’! जिसने कभी प्रयागराज को नक्शे में भी नहीं देखा था उसे भी अब वहां पहुंचने का ख़्याल जोर मारने लगा, जिसे अभी तक यह भी ज्ञात न था कि त्रिवेणी गंगा-जमुना-सरस्वती का संगम है उसे भी डुबकी लगाने का ख़्याल सताने लगा, जिसे अब तक यह भी नहीं पता था कि यह सिर्फ पौराणिक शहर ही नहीं बल्कि महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, मुंशी प्रेमचंद के पुत्रों— श्रीपत राय और अमृत राय, बच्चन और नेहरू का शहर है उसके अंदर भी वहां पुहंचने की लालसा हिलोरें मारने लगीं, जिसे अभी तक यह भी मालूम न था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय को कभी ऑक्सफोर्ड ऑफ द ईस्ट कहा जाता था उसके अंदर भी कल के इलाहाबाद और आज के प्रयागराज जाने की हसरत जाग उठी, जिसे आज तक यह भी पता न था कि गंगा किनारे लेटे हुए हनुमानजी की मूर्ति है उसके अंदर भी आस्था का भाव जागृत हो गया.

महामेले का महाप्रचार हो चुका था क्योंकि अब सरकार भी जानती है मजमा कैसे लगाया जाता है. महामौका था और इसका महालाभ तो मिलना ही था, किसी को राजनीति का, किसी को अफसरी का, किसी को रसूख का, किसी को व्यापार का, किसी को मौकापरस्ती का, किसी को रिश्तेदारों पर ठसका दिखाने का, तो किसी को, भ्रमण का. बस एक काम ऐसा था जिसे हर किसी ने एकजुट होकर संपूर्ण भक्ति के साथ किया— तस्वीरें खूब खींचीं और खूब दिखलाईं. ज़रूरी भी है, क्योंकि, जब तक जनता-जनार्दन आपको देख न ले, सब लोग आपका किस्सा जान न लें और सोशल मीडिया पर आपकी तस्वीर को लाइक (Like) न कर दें तब तक आपका जाना सफल कैसे होगा?  

सरकार ने भक्तजनों के लिए इंतज़ाम तो ज़रूर किये पर इसका फायदा उठाने से भी नहीं चूकी. आखिर ज़माना ही ऐसा है; एक बार मेला खत्म तो लोगों को भूलने में देर नहीं लगेगी. और तो और, बाद में सिर्फ बुराई ही हाथ लगती है यह बात कौन नहीं जानता. इसी कारण व्यवस्थाओं का भरपूर प्रचार हुआ और मेले के उपरांत भी जतलाने का कोई मौका नहीं चूका गया. सरकार को भविष्य की चिंता भी तो है क्योंकि आने वाले चुनावों में इसका फायदा तो लाभप्रद होगा ही. अगर 66 करोड़ श्रद्धालुओं ने संगम में डुबकी लगाई है तो सरकार इसे गिनाने से पीछे नहीं है. अगर वहां के छोटे-बड़े व्यापारियों ने धन कमाया तो सरकार इसे अपनी उपलब्धि बताने से पीछे नहीं है. आज की सरकार कल्याण भाव से कम, फायदा उठाने के भाव से अधिक चलती है.

लग गई भीड़ 

महाकुंभ की खुमारी सर चढ़कर बोल रही थी. जिसको जैसे बन पड़ा चल दिया. किसी ने ट्रेन से टिकट कटवाया, किसी ने ट्रैवेल एजेंट से पैकेज लिया और प्रयागराज के साथ काशी और अयोध्या धाम के भी दर्शन किये, कोई अपनी कार से निकल पड़ा और कुछ रईसजादे हवाईजहाज की इतनी महंगी टिकट लेकर पहुंचे कि गंगास्नान से ज़्यादा बखान तो हवाई सफर का करते नहीं थकते. मौका ही ऐसा था कि अगर लाभ नहीं उठाया तो ऐसा महाअवसर बीत जाएगा जिसे दुनिया की कोई भी दौलत दोबारा वापस नहीं ला पाएगी. लम्हे होते ही इतने बेशकीमती हैं कि दुनिया की सारी ताकत और संसार भर की दौलत उन्हें दोबारा हासिल नहीं कर सकती. 

देश के हर कोने में, हर शहर में, हर गली-मोहल्ले में, हर परिवार में और हर व्यक्ति के मन में महाउत्तेजना का महासंचार हो गया. कोई प्रयागराज पहुंच गया, कोई पहुंचने का प्रयास करने लगा, कोई प्रोग्राम बनाने लगा, किसी का प्रोग्राम बन गया और किसी का रह गया और किसी ने प्रोग्राम बनाया ही नहीं. अजब घटना की गजब कहानी लिखी जा रही थी.    

छोटे से शहर में बड़े-बड़े इंतज़ाम किये गए. भीड़ आ गई, भक्तों और श्रद्धालुओं का जमावड़ा लग गया, साधु-संत पहुंच गए, अखाड़े सज गए और तंबू तन गए. स्नान के साथ-साथ भोजन, बिजली, पानी और शौच की संपूर्ण व्यवस्था, कानून बनाए रखने और यातायात संभालने के लिए हर तरह का बंदोबस्त अपनी जगह था. लोग आते गए, भक्तों का तांता निरंतर जारी रहा और धीरे-धीरे नदी किनारे मानव समंदर खड़ा हो गया. हर तरफ अपार भीड़ और शहर में ठसाठस भरे लोग. जिधर देखो उधर नरमुंड ही नरमुंड. ऐसा विशाल जनसागर पिछले कुछ दशकों में शायद ही किसी ने कहीं पर देखा हो. प्रयागराज शहर के लिए भी एक अनूठा अनुभव.

आम आदमी का स्नान और वीआईपी स्नान

महामेला आरंभ हो गया था, शहर सज गया था और आम जनता घुटने भर पानी नाक पकड़ कर डुबकी लगा रही थी. मैं तो साधारण व्यक्ति हूं और हमसरीखे भक्तों के लिए स्नान करने और डुबकी लगाने के लिए दूर-दूर तक किनारे-किनारे व्यवस्था की गई थी. एक तरफ जहां आमजनों ने आस्था की डुबकी लगाई वहीं बड़े-बड़े नेताओं- अभिनेताओं ने वीआईपी स्नान किया. स्नान करने में कितना फर्क हो सकता है ऐसा भी देखा और जाना. सोचकर मन धक्क से रह गया कि मां गंगा के जल में डुबकी भी अलग-अलग? कहां तो आम आदमी घुटने भर पानी में किसी तरह जगह बनाकर डुबकी लगाने की कोशिश कर रहा था और कहां ये बड़े लोग मोटरबोट से बीच नदी में जाकर आराम से स्नान कर रहे थे और पहुंचे हुए साधु-महात्माओं से आशीर्वाद प्राप्त कर रहे थे. मन में यह भी ख़्याल बराबर आता रहा कि क्या संत वाकई में संत हो पाए? संतों की नज़रें भी भेद करना जानती हैं, उन्हें पता है कौन फायदेमंद है और कौन नहीं. ऐसा लगा कि शायद संत- महात्मा निर्लिप्त हो ही नहीं पाए.

आम लोगों का वोट पाकर चंद लोग वीआईपी का दर्जा पा गए. महाकुंभ ने दिखला दिया वीआईपी होना क्या होता है. कहां साधारण लोग धक्का-मुक्की में खुदको संभाल रहे थे, वहीं शोर मचाते साइरन उनकी मौजूदगी की खबर भी पहुंचा रहे थे. सच में हम जैसे लोग तो आते हैं और चले जाते हैं पर आगमन और प्रस्थान तो बड़े लोगों का ही होता है. महाकुंभ में भी ऐसा हुआ और खूब हुआ. डुबकी लगाने में फर्क दिखा और बाबाओं का आशीर्वाद सबके लिये नहीं होता ऐसा भी दिखा.

जब अपार भीड़ एकत्रित हो गई और गंगा तट तक पहुचना असंभव सा हो चला तो शुरू हुआ जुगाड़, जिसके लिए हमें ख्याति भी प्राप्त है. बहुत आदर्श झाड़ने वालों ने भी इस विधा का भरपूर इस्तेमाल किया. किसी ने मित्र खोजे, किसी ने रिश्तेदार, तो किसी ने अफसरों की सिफारिश ढूंढ निकाली. जिन लोगों से सालों संपर्क नहीं किया था उनको ढ़ूंढने की प्रक्रिया चल पड़ी, जिनसे मिलने कभी प्रयागराज जाने का सोचा भी न था उनकी चौखट पर थैला लटकाए पहुंच गए. बहुत से सरकारी अफसरों ने अपना रुतबा दिखला दिया तो कुछ रईसों ने हैसियत दिखला दी और महंगे से महंगा इंतज़ाम किया. पुण्य की तलाश में आदर्श किसी कुएं में डूब गया था. बड़ी-बड़ी बातें न जाने कहां हवा हो गईं. अब सवाल एक डुबकी लगाकर पुण्य कमाने का था फिर चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े. कोई रुपया खर्च कर रहा था तो कोई रुपया कमा रहा था. सब मौके की बात है. मौका बड़े मौके से आता है और छूटना नहीं चाहिए. 



मनुष्य की बातें और विचार हीं उसके व्यक्तित्व का दर्पण भी होते हैं. महाकुंभ में ऐसी ही प्रजाति के लोगों से परिचय प्राप्त करने का महान अवसर भी मिला.

गजब का दृश्य था! किसी को रेलवे प्लेटफॉर्म पर बैठने तक की जगह नहीं मिली, किसी को शहर में मीलों पैदल चलना पड़ा, किसी को भंडारे का खाना लेने के लिए लंबी लाइन में खड़े होना पड़ा, किसी ने मोबाइल फोन चार्ज करवाने के लिए भी रुपए दिये तो कोई सवारी के अभाव में सब्ज़ी के ठेले पर बैठकर आगे बढ़ा और उसके लिए भी मनचाही कीमत चुकाई तो कुछ ऐसे भी थे जिन्हें सुविधाओं की सौगात मिली. जिस मनुष्य को सब कुछ आसानी से उपलब्ध हो जाता है वही धर्म और आदर्श की बात भी अधिक करता है. यही वो लोग भी हैं जो पाप धोने और पुण्य कमाने का हर संभव मौका भी ढूंढते हैं और उसके लिये किसी भी शॉर्टकट से हिचकिचाते नहीं.

दूसरी तरफ कुछ हम सरीखे साधारण लोगों की जमात है जो न तो स्वार्थी है, न किसी को बेवजह सलाम करती है, न किसी की सिफारिश लेती है, न किसी पद का लाभ और न ही किसी मौके का अनायास फायदा. मानिये या नहीं मानिये, ऐसे ही लोगों ने महाकुंभ न जाने का साहसिक फैसला भी लिया.

मैं भी नहीं गया

मैं उस जमात में खड़ा हूं जो महाकुंभ में नहीं गए. जाने का प्रोग्राम भी नहीं बनाया. मेरी गिनती अस्नानी पुकारे जाने वाले लोगों की श्रेणी में होने लगी है. कुछ लोग मज़ाक भी करते हैं, अरे भाई, डुबकी लगा आते तो पाप धुल जाते. न जाने क्यों मैं अडिग रहा. अब रही पाप धोने की बात, तो पाप किये ही कहां हैं! सच कहूं तो मैं खुद को पाप और पुण्य के जंजाल से ही मुक्त मानता हूं. मैंने कभी किसी का नुकसान नहीं किया, कभी धोखाधड़ी नहीं की, कभी अनाचार नहीं किया और कभी किसी के साथ अन्याय भी नहीं किया. मेरे जीवन में सिफारिश का कोई स्थान नहीं है, मैंने मेहनत और परिश्रम से अपना जीवन चलाया और परिवार की परवरिश की है और पुत्र, पति और पिता होने की ज़िम्मेदारी भरसक निभाई है. ऐसे में पाप और पुण्य की चिंता क्यों करना.

मेरा तो जन्म ही इलाहाबाद में हुआ और मैंने प्रयागराज को भी खूब देखा है. यह बात दीगर है कि मेरा लालन-पालन शिक्षा-दीक्षा, नौकरी-चाकरी और विवाह इत्यादि सब दिल्ली और इसके इर्द-गिर्द हुआ. बहुत सारी स्मृतिया हैं दिल्ली से जुड़ी हुई जिन्हें फिर कभी किसी और मौके पर ज़रूर लिखूंगा.  मन में दिल्ली के प्रति स्नेह है तो प्रयागराज के प्रति कोमलता का भाव भी है. मेरे पिता बनारस से थे और मां गंगा के भक्त. मैंने अनेकों बार पिता को गंगा में इस पार से उस पार तैरते हुए देखा है, उनके साथ नौकायन किया है और डुबकी भी लगाई है. मैंने संगम में स्नान भी किया है, और गंगा किनारे विश्राम करते परमवीर हनुमान के दर्शन भी किये हैं. मैंने बनारस की कचौड़ी और जलेबी का स्वाद लिया है और इलाहाबादी समोसे आज भी मेरे प्रिय हैं. भले ही दिल्ली मेरा शहर है लेकिन चाहे प्रयागराज हो या फिर बनारस, मन में दोनों के लिए आदर का भाव है. मुझे गंगा में स्नान करने के लिए किसी मौके का इंतज़ार नहीं है. महाकुंभ का भी नहीं. 


नहीं गया तो क्या हुआ. मैंने मां गंगा का स्मरण किया, मन में गंगा का प्रवाह हुआ, मेरे विचारों में शुद्धता का संचार हुआ और मैंने कहा जब मन चंगा तो कटौती में गंगा. मैंने खुद को समझाया कि घर में रहकर भी तन और मन को शुद्ध रखा जा सकता है. यही मकसद है संगम में स्नान का भी. मेरे ह्रदय में  वेदना है, संवेदना है, मन में सच्चाई है, दिल में ईमान है, मस्तिष्क में धर्म और न्याय है, मोह-माया के जंजाल से परे हूं, मेहनत और परिश्रम पर टिकी जीवन की आधारशिला है तो फिर महाकुंभ में महास्नान न करने का मलाल कैसा. पाप कभी किया नहीं, पवित्रता रक्त में है. ऐसे में प्रयागराज न जाकर भीड़ का हिस्सा नहीं बने तो कुछ गलत तो नहीं किया!

एक मित्र ने बहुत खूब कहा. अगर मन का भाव साफ नहीं तो तीर्थ का भी कोई लाभ नहीं. गंगा-स्नान से सिर्फ शरीर धुलेगा, मन और मंशा का क्या? लगने लगा मैं अस्नानी ज़रूर हूं पर फिर भी किसी से कम पवित्र नहीं हूं. मेरे ख़्याल से.