अपूर्व राय/ APURVA RAI
सर्द मौसम है. भयंकर ठंड पड़ रही है; पूरा शरीर ऐसे कांप रहा है जैसे जेठ की दुपहरी
में गर्म हवा के झोंकों के बीच पेड़ पर लटका हुआ एक पत्ता. दो-दो स्वेटर पहने हुए
हैं पर फिर भी कंपन थम नहीं रहा. बाहर ज़बरदस्त कोहरा है, कई दिन हो गए सूरज के
दर्शन नहीं हुए. दोपहर होते-होते शाम का एहसास होने लगता है और शाम ढलते-ढलते रात
का एहसास. रात तो लंबी होती ही है लेकिन राहत इस बात की है की रजाई का सुखद अहसास
सारे कष्टों को हर लेता है. गजब है जाड़े का मौसम.
लेकिन
अजब हाल है. इधर धूप नहीं निकल रही, कोहरे की घनी चादर छाई हुई है और कुछ सूझ नहीं
रहा है. शरीर गर्म कपड़ों से लदा है मगर फिर भी कांप रहा है और मौसम विभाग कह रहा
है तापमान सामान्य से दो डिग्री अधिक है. मतलब ये कि अभी ठंड कम है. सोच-सोच कर डर
लग रहा है कि तापमान और गिरा तो जाने क्या होगा; जान ही निकल जाएगी.
अभी
कितना कष्ट का अहसास हो रहा है. सच पूछिये तो कितने इंतज़ार के बाद आया है जाड़े
का मौसम. दोपहर में खिड़की के पास बैठा दूर तक फैले कोहरे को देख-देख मेरे मन में
ख़्याल आ रहा था मई-जून के महीने का. सुबह उठते ही तेज़ धूप से मन घबरा उठता था और
सोचते थे कब आएगी सर्दी और हम बिना पसीने के बाहर घूमने जा पाएंगे. सच ही है वक्त
कभी एक सा नहीं रहता और मानव मन कभी संतुष्ट नहीं होता. मई-जून में सर्दी चाहिए थी
और अब दिसंबर-जनवरी में गर्मी. गर्मी थी तो एयरकंडीशनर ढूंढ रहे थे और अब सर्दी
में हीटर. किसी भी सूरत में चैन नहीं है. इंसान की फितरत ही ऐसी है कि जो पास में
है उससे खुश नहीं और जो दूर है उसकी ख्वाहिश में परेशान है.
बहरहाल बड़े इंतज़ार के बाद जब सर्दी आ ही गई है तो उसका लुत्फ तो उठाना ही चाहिए. ऐसा नहीं है कि जाड़े में सिर्फ कष्ट ही कष्ट है, जाड़े के अनेकों लाभ भी हैं और इसका अपना मज़ा भी है. याद आती है ग्रीष्म ऋतु जब पसीने से लतपथ बाज़ार से लौटते हुए सोचते थे कि सर्दी आएगी तो बढ़िया कपड़े पहनकर इसी बाज़ार में दोबारा आएंगे, खूब घूमेंगे, गरम-गरम आलू टिक्की खाएंगे, हॉट कॉफी पियेंगे और शॉपिंग कम, विंडो शॉपिंग अधिक करेंगे. सच मानिये सर्दियों में बाज़ार की रौनक कुछ अलग ही होती है और माहौल खुशनुमा रहता है. कुछ खरीदिये चाहे न खरीदिये मगर बाज़ार का एक चक्कर लगाना, कैफे में कॉफी की चुस्की और खुले पार्क में बैठकर धूप का आनंद लेना एक अलग ही अहसास देता है. अपनी बात कहूं तो मुझे सर्दी की दुपहरी में कनॉट प्लेस जाना सबसे अच्छा लगता है. मूड फ्रेश करने के लिए इससे अच्छी दवा और क्या हो सकती है.
पड़े
रहिये रजाई में
सर्दी
की सबसे वफादार और सबसे ज़्यादा साथ निभाने वाली वस्तु का नाम है रजाई. छुट्टी
वाले दिन तो रजाई से कौन निकलता है. किसी तरह मुंह-हाथ धोकर आए और फिर रजाई में
घुस गए. वहीं नाश्ता, खाना, पढ़ना-लिखना और फिर मुंडी अंदर करके लुढ़क जाना. जानिये
कि सभी क्रियाएं रजाई के अंदर. कई बार तो रजाई में भी आप पूरा पैर फैलाकर नहीं सो
पाते, बस एक करवट सिकुड़े पड़े रहते हैं और रात बीत जाती हैं. सिकुड़े रहने पर आधी
ही रजाई गर्माहट देती है और बची आधी में गलती से भी पैर चला गया तो ठंड का ऐसा
करेंट लगता है कि बस पूछो नहीं. नींद ही टूट जाती है जो ढेरों कोशिशों के बाद और अपनी
पोजिशन एक बार फिर दुरुस्त करने पर ही वापस आती है. कुछ लोग तो रजाई को ऐसा लपेट
कर सोते हैं कि सिर्फ नाक ही बाहर रहती है और रातभर इतना बजती है कि बगल वाला अपनी
रजाई कान से हटा ही नहीं पाता.
खाने-पीने का मज़ा
सर्दी आई तो जानते हैं सबसे बड़ी बात क्या हुई ? अरे भाई, रोज़-रोज़ लौकी, टिंडा, तरोई और परवल जैसी भयंकर सब्ज़ियां खाने से निजात मिल गई! पूरी गर्मी यही दो-चार सब्ज़ियां घूम-फिरकर थाली में सामने आती थीं. डॉक्टर भी कहने लगा आखिर कितना लौकी, परवल खाओगे. अभी ब्रेक मिल गया है. कुछ समय तक इनके दर्शन नहीं होंगे. बड़ी राहत है भइया! इन दिनों टोमैटो सूप पी रहा हूं, पालक-पनीर खा रहा हूं, गोभी-मटर की तहरी और फिर परांठों का स्वाद तो बस छाया हुआ है. सरसों का साग और मक्की की रोटी तो साल में एक बार ही खाने को मिलती है. बाजरे की रोटी और साग वाली दाल के क्या कहने. भोजन के बाद गुड़ की एक डली जो मुंह में घुली तो मानिये स्वर्ग की प्राप्ति हो गई.
सर्दी में खाने की बात चली तो हरी मटर का ज़िक्र कैसे न हो. रोज़ ठेली में भरकर हरी मटर बेचने आ जाता है और आवाज़ लगाकर दाम बताता है तो कैसे रुक सकते हैं. सर्दी बढ़ती जाती है, मटर के दाम घटते जाते हैं और हमारे कदम आगे-आगे ठेले की तरफ भागते जाते हैं. बस रोकती हैं तो श्रीमती जी. ठेले वाला जानता है मटर साहब की कमज़ोरी है. सुनेंगे दाम कल से आज कम हैं तो खरीदेंगे ही. उस दिन भी ऐसा ही हुआ. मटर की फलियां एकदम हरी दिख रही थीं, लंबी-लंबी और मोटी-मोटी. बोरा भरा हुआ था, दाम घटा हुआ था. यह सब देख मन ललचाया हुआ था. मैंने कहा दे दो भाई चार किलो. लेकिन पत्नी ने ऐतराज़ जताया और कहा दो किलो ही चाहिए. हमने भी अपना ज़ोर चलाया और कहा नहीं, दाम गिरा हुआ है चार किलो ले लो ना, चार पैसै बचेंगे ही. तुरंत ही पलटकर जवाब आया अगर चार किलो आज ही अकेले छील सको तो ज़रूर ले लो. हम तो रिटायर्ड ठहरे और वो अभी कार्यरत हैं. लिहाज़ा उनसे छीलने को नहीं कह सकता था. मगर चार किलो आज ही छीलने की बात से डर गया. ठेलेवाला भी चेहरा देखकर माजरा भांप गया और बोला दो किलो आज लो लो, बाकी दो किलो दो दिन बाद ले लेना, रेट यही लग जाएगा. मेरी जान में जान आई. सभी की जीत हो गई... पत्नी की बात रह गई, मेरा मन रह गया और दुकानदार की बिक्री भी हो गई. सब खुश.
बीवी खुश हो गई तो मटर के तमाम व्यंजन भी बनने लगे. नाश्ते में घुघनी और चूड़ा-मटर, खाने में मटर-पनीर और मटर की निमोना. साथ में मिले मटर के परांठे और छुट्टी वाले दिन मटर भरी पूड़ी. और हां, मटर-चावल तो आम बात है, बतलाने की अधिक ज़रूरत नहीं. जब सादा खाना होता है तो मटर का भरता भी बनता है. जब इतना कुछ मिल जाता है और वह भी प्रेम से तो चार किलो मटर छीलने में क्या जाता है. ठीक है न!
जाड़े में खाने के साथ सलाद ज़्यादा ही स्वादिष्ट लगता है. और सलाद का अभिन्न हिस्सा बनती है मूली. बाज़ार से सब्ज़ी आती है तो मूली ज़रूर आती है. मटर की तरह ही मूली के भी कई व्यंजन का स्वाद लिया जाता है. सर्दी आई और मूली के परांठे नहीं खाए तो क्या खाया. हफ्ते में दो बार तो हो ही जाते हैं. कभी-कभी बाज़ार भी जाते हैं परांठे खाने लेकिन मूली के परांठे खाना नहीं भूलते.
सरकारी दफ्तरों में माहौल ठंडा
सरकारी बाबुओं को ठंड कुछ ज़्यादा लगती है. दफ्तर का समय नौ बजे से होता है पर क्या मजाल टाइम से आ जाएं और काम शुरू कर दें. रोज़ कोई बहाना मिल ही जाता है, कभी कोहरा होता है, कभी खुद की और कभी बच्चों की तबीयत बिगड़ जाती है, कभी त्योहार पड़ जाता और कभी फैमिली में शादी-ब्याह. बाबू लोग अगर टाइम पर आ भी गए तो सबसे पहले खाना का डिब्बा बिजली की मशीन में डाला जाता है ताकि चार घंटे बाद लंच पर खाना गर्म मिले. इसके बाद हीटर चलाया जाएगा और हाथ रगड़ कर गर्म किया जाएगा. कहने की ज़रूरत नहीं कि फाइल चलाने के लिए और बिल पास करने के लिए हाथ नहीं मुट्ठी गर्म करने की ज़रूरत होती है. फिर चाहे ठंड कैसी भी हो. मेज़ के ऊपर रखा हीटर हथेली गर्म करता है और मेज़ के नीचे से नगद-नारायण मुट्ठी गर्म करते हैं. सर्दी में गर्मी का खेला. है न कमाल की बात!
दिल्ली में शास्त्री भवन, रेल भवन के आस-पास दोपहर लंच टाइम में कई खाने के ठेले लगते हैं. अभी कुछ कम हो गए हैं पर पहले कई सारे हुआ करते थे. इनमे से एक-दो ठेलों पर सिर्फ मूली मिला करती है. दूसरी जगहें पर भी जहां सरकारी दफ्तर हैं वहां लंच टाइम में बाहर इसी तरह का नज़ारा दिख जाता है. सरकारी दफ्तर इसलिये क्योंकि लंच टाइम के अधिकार का पूरा उपयोग यही लोग करते हैं. लंच टाइम ही क्यों, आधा घंटा पहले से आधा घंटा बाद भी माहौल वही रहता है. सही बात है काम का वज़न कम करने के लिए सरकारी नौकरी और शरीर का वज़न कम करने के लिए मूली. है न गजब जोड़ी!
ज़्यादा
भटकते नहीं हैं क्योंकि मूली बुला रही है. छीलकर साफ करके और बीच से कट लगाकर
उसमें चाट मसाला भरकर और नींबू का रस निचोड़कर जब आपके हाथ में आती है तो वह मूली
नहीं रह जाती, एक
लाजवाब व्यंजन बन जाती है. सुनहरी धूप
हो और खुला मैदान तो मूली के ठेले पर सबसे अधिक भीड़ लग जाती है. लोग दो-दो खा
जाते हैं वहीं खड़े-खड़े. कहते हैं जितना भी गरिष्ठ खाया है वह सब हज़म कर देगी
मूली.
मूली के साइड इफेक्ट
जब मूली और मटर इस कदर खाया जाएगा तो इसके साइड-इफेक्ट्स भी होंगे ही. बस इशारा समझ लीजिये कि किसका ज़िक्र हो रहा है. बहुत घातक होता है मूली का असर. खाना कितना पचाती है यह तो नहीं कह सकता पर जब खुद पचती है तो आसपास सभी को हिला देती है. हम सभी के पास इसके किस्सों का भंडार है. सुनने-सुनाने का भी गजब मज़ा है क्योकि हंसी फव्वारे भी इसी से फूटते हैं. बात तो यह है कि मूली एक आदमी खाता है और उसके परिणाम पचीसों को बर्दाश्त करने पड़ते हैं. घर हो या बाहर मूली का प्रसाद बड़ा भयंकर होता है. घर में रजाई बहुत कुछ भीतर ही छुपा लेती है पर अगली सुबह जब रजाई उठाई जाती है तो बिस्तर उठाने वाला या वाली ईनाम के हकदार ज़रूर होते हैं. अब समझ में आता है कुछ लोग हर दूसरे-तीसरे रजाई को खुली हवा या फिर धूप में क्यों रखते हैं. इन दिनों डबल बेड की रजाई या कम्बल बहुत प्रचलित है. हर घर में मिल जाएगा. शाम को पूरा परिवार एक ही बड़ेे से कम्बल में घुसकर टीवी सीरीयल देखता है और मूंगफली खाता है. एक बड़ा कम्बल, कई सारे लोग. कल्पना कीजिये कितने बम चलते होंगे और आखिर में जो ओढ़ कर सोता होगा वो कितना बर्दाश्त करता होगा.
कभी आप ट्रेन में हो या फ्लाइट में और कोई मूली खाकर चढ़ जाए तो बस अपनी किस्मत ही मानिये कि सफर बिना किसी कष्ट के कट जाए. लेकिन ऐसा होता नहीं है. दिल्ली से चलने वाली शताब्दी ट्रेन में सफर करने वाले कई लोग तरह-तरह के किस्से बयान करते हैं ख़ासकर सर्दी के दिनों में. बहुत से यात्री शताब्दी के कोच को गैस चैंबर तक कह डालते रहैं.
एक बार एक बड़े से स्टोर में मैं भी कुछ ऐसे ही हादसे का शिकार बना. पता नहीं कौन था और कितने मूली के परांठे खाए थे, पर साइड इफेक्ट किसी एटम बम से कम न था. देखते-देखते लोगों के रूमाल जेब से निकल कर नाक पर चिपक गए. कोई इधर जा रहा है, तो कोई उधर. जिनके पास किस्मत से पर्फ्यूम की शीशी पर्स में थी उन्होंने तो झट से रूमाल पर छिड़क लिया और बेहतर ऑक्सीजन ले ली. बाकी सब पर तो तरस आ रहा था. मैं तो बेचारे कैशियर को देख रहा था जो कितने कष्ट से अपना काम कर रहा था क्योंकि उसकी मजबूरी थी कि अपनी सीट छोड़ नहीं सकता था.
एक और आपबीती बतलाता हूं. बात पुरानी ज़रूर है लेकिन कभी भूलती नहीं. नई-नई नौकरी शुरू की थी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की एक न्यूज़ एजेंसी में था. काम करने के घंटे अधिक होते थे जिसकी वजह से अक्सर देर शाम ही घर वापस लौटना हो पाता था. ऑफिस गोल मार्केट में था. घर के लिए बस पकड़ने कनॉट प्लेस आना होता था जहां से उन दिनों नोएडा के लिए चार्रटर्ड बस चलती थी. बात सर्दी के दिनों की है. बस में बैठा और कुछ देर बात ऊंघने लगा. रोज़ की बात थी क्योंकि दिन भर के काम के बाद बहुत थक जाता था. बस खचाखच भरी थी. खिड़कियां बंद और दरवाज़ा भी बंद. एकदम सीलबंद थी बस. इतने में लगा ऑक्सीजन का रंग बदलने लगा है. बदलता रंग दिख तो नहीं सकता था, बस महसूस किया जा सकता था. धीरे-धीरे रंग गाढ़ा होता गया और सांस लेना दूभर होने लगा. इधर मेरी नींद भंग हुई और उधर बाकी पैसेंजर्स की तड़पन बढ़ी. एक साहब ने तो खिड़की खोल दी. अब मिली तड़पन की डबल डोज़. अंदर की ऑक्सीजन दूषित और बाहर से आने वाली बर्फ सी ठंडी. दोनों ही बर्दाश्त की सीमाओं से परे. नाक ढकें या मुंह कुछ समझ नहीं आ रहा था. एक अन्य साहब ने ऊंची आवाज़ में बड़ा विनम्र निवेदन किया कि जिस किसी ने भी मूली का सेवन किया है कृपया स्वयम् ही उतर जाएं और बाकी के पचास-साठ मुसाफिरों को ठीक-ठाक पहुंचने में सहयोग करें. उन्होंने यहां तक कह दिया कि उन साहब का पूरा किराया वापस कर दिया जाएगा. अगले ही स्टॉप पर चंद लोग उतरे और गनीमत मानिये कि उसके बाद दोबारा खिड़की खोलने की नौबत नहीं आई. साफ हो गया कि उनमें से किसी ने मूली का भरपूर सेवन किया था. किराया किसी ने वापस मांगा नहीं लिहाज़ा पता भी नहीं चल सका किसने भरपेट मूली खाई थी. बचा सफर ठीक से कट गया लेकिन नींद फिर पूरे रास्ते नहीं आई. दो दशक से ज़्यादा बीत गए हैं पर पर इस घटना को भूल नहीं पाता हूं हालांकि अब इस तरह कि चार्टर्ड बसें चलना अब बंद हो गई हैं.
रोज़-रोज़ नहीं नहानाअभी
सर्दी पूरे शबाब पर है. कम होने के आसार कम ही लग रहे हैं. कहते हैं 14 जनवरी को
मकर संक्रांति के बाद जब सूर्य उत्तरायन होता है तो ठंड कम होने लगती है. पिछले
कुछ सालों से ऐसा अनुभव तो नहीं किया पर फिर भी सबकी बातों का सम्मान करते हैं और
मन में सोच लेते हैं ठंड कम हो रही है.
टाइम पास का पूरा इंतज़ाम
सर्दी आई नहीं कि चाय की डिमांड रॉकेट
की तरह बढ़ जाती है. हर घंटे-दो घंटे पर थोड़ी चाय. और जब हाथ में चाय का प्याला आ
जाए तो कोई न कोई चर्चा छिड़ ही जाती है. फायदा यह होता है कि कुछ बातें बहुत
विस्तार से डिसकस हो जाती हैं और सोल्यूशन भी निकल आता है. अनजान जगह पर अनजान
लोगों के बीच चाय रिश्ता जोड़ने का काम करती है. कभी-कभार कुछ अच्छे रिश्ते भी इसी
बहाने बन जाते हैं. ठंडे मौसम में गर्म चाय का कमाल!
सर्दी का मौसम है. शॉल से ढके आप रजाई
में दुबके पड़े हैं. सामने टीवी पर फिल्म चल रही है. और इतने में एक पैकेट आता है
मूंगफली का. वाह साहब, क्या कहने. फिल्म का मज़ा दूना हो गया. सिनेमा हॉल में जो
आनंद पॉप कॉर्न नहीं दे पाता उससे कहीं ज़्यादा आनंद मूंगफली दे जाती है. छीलते
जाइये, खाते जाइये और मसालेदार नमक या फिर हरी मिर्च की चटनी का साथ मिल जाए तो
सोने पे सुहागा.
कुल मिलाकर कहिये तो सर्दी का पूरा
आनंद लिया जा रहा है. कष्ट तो ज़रूर है पर सुख प्राप्ति के तरीके अनेक हैं. मेरे
ख़्याल से!