विनय कुमार राय
प्रेमचंद का नाम लेते ही नज़रों के सामने एक ऐसी अजीमुश्शान शख़्स्यित का
नक्शा उभरता है जिसका जन्म बनारस के 'लमही' ग्राम के एक मामूली कायस्थ घराने में
हुआ था. घर की हालत ऐसी न थी कि उसकी तालीम-ओ-तरबियत बेरोक-टोक अंजाम पा सकती,
लेकिन 'नवाब' में तालीम की बेपनाह तड़प थी. पर वह प्यास ही कैसी जो
आसानी से बुझ जाए.
तालीम के इस लम्बे मरहले को वह तय करता कि मुश्किलें एक-एक करके रास्ते की
रुकावट बनने लगीं. परन्तु वह इंसान भी एक अजीब ही हड्डी का था जो इन रुकावटों,
दीवारों से नहीं घबराया. एक-एक करके उसने मुश्किलों पर फतह पायी और तालीम की प्यास
बुझाता रहा. इसके लिए कभी तो उसे अपने गांव से मीलों का सफर पैदल तय करके ट्यूशनों
पर जाना होता तो कभी किसी किताब की दुकान पर इस शर्त पर मेहनत-कशी करनी पड़ती कि
बदले में दुकानदार कुछ किताबें पढ़ने को दे दे. कैसा था वो आदमी? गुरबत में भी यह
ताव नहीं लाया कि मेहनताना पाकर हलवाई की दुकान की ओर रुख करे या कि एक बढ़िया सा
मलमली कुरता जिस्म पर डाल ले. बस एक ही धुन थी-- तालीम, और तालीम, और ज़्यादा
तालीम.
इन्हीं दिनों उसने 'तिलस्म-ए-होश-रुबा' की कई ज़िल्दें पढ़ीं. 'फसाना-ए-आज़ाद' और देवकी नंदन खत्री की 'चंद्रकांता संतति' भी पढ़ी. किस्सों-अफसानों में उसका जी ज़्यादा रमता. शायद कहानियां पढ़कर उसके जी में नई-नई कहानियां उफनतीं. शायद ज़िंदगी के इसी मोड़ पर उसमें किस्सागोई के अंकुर फूट रहे थे. लेकिन अफसाना निगारा के लिए यही तो काफी नहीं कि दूसरे के किस्सों-कहानियों को पढ़ लिया जाए. इसके लिए तो आसपास की दुनिया को भी देखना-सुनना होता है.
इन्हीं दिनों उसने 'तिलस्म-ए-होश-रुबा' की कई ज़िल्दें पढ़ीं. 'फसाना-ए-आज़ाद' और देवकी नंदन खत्री की 'चंद्रकांता संतति' भी पढ़ी. किस्सों-अफसानों में उसका जी ज़्यादा रमता. शायद कहानियां पढ़कर उसके जी में नई-नई कहानियां उफनतीं. शायद ज़िंदगी के इसी मोड़ पर उसमें किस्सागोई के अंकुर फूट रहे थे. लेकिन अफसाना निगारा के लिए यही तो काफी नहीं कि दूसरे के किस्सों-कहानियों को पढ़ लिया जाए. इसके लिए तो आसपास की दुनिया को भी देखना-सुनना होता है.
और प्रेमचंद ने अपने मुल्क को, यहां के रहनेवालों को, यहां की मिट्टी को बेबाक
नज़रों से देखा था. उन्हें यहां के रहनेवालों से बेपनाह मोहब्बत थी क्योंकि वह
उन्हीं में से एक थे और उनके रंगों को गहराई से पहचानते थे. उन्होंने अपने आस-पास
के खेत-खलिहानों, किसान-मज़दूरों, उनके रहन-सहन के तौर-तरीकों को देखा-सुना था.
उनके मिट्टी-छप्पर के घर और उनके चूल्हों में सिकती-पकती साग-रोटी और उनकी
समस्याओं को जाना-पहचाना था. शायद यही वजह थी कि उनकी कलम से यही बातों नुमायां
हुईं. उन्होंने पहली बार आफसाना-निगारों की दुनिया को हकीकत की ज़मीन पर ला खड़ा
किया.
प्रेमचंद के अफसानों, नाविलों में हल जोतने वाले किसान, क्यारियां निराने वाली
औरतें, पुरवट खींचते बैल, खेतों की हरियाली और चौपाल की दुनिया-- सबकी सब ऐसी
उभरती हैं गोया हिन्दोस्तान का कोई फोटो उतार कर रख दिया गया हो. पर यह सब मुमकिन
क्योंकर हुआ? क्योंकि प्रेमचंद ने गांव की ज़मीन से कभी नाता नहीं
तोड़ा.
लमही के जिस घर की बैठक में तख्त-नशीं होकर वह लिखते थे उसकी खिड़कियां तमाम
गांव की ज़िंदगी को उनकी नज़रों के सामने बेपरदा कर देती थीं. उस खिड़की से
कैसे-कैसे तो मंज़र दिखाई देते थे. कभी पास कुएं पर चलते हुए पुरवट के पानी में
किलकारी मारकर नहाते हुए अधनंगे बच्चों का मंज़र, तो दूसरी तरफ ज़रा नज़रें ऊंची
करते ही खेतों में कछाड़ मारकर कुदाल चलाती, क्यारियां निराती औरतों का मंज़र.
कैसा रंगारंग दृश्य होता होगा जिसे प्रेमचंद की कलम कागज़ पर टांक देती थी,
हमेशा-हमेशा के लिए, ताकि आने वाला हिन्दोस्तान अपनी सही तस्वीर भूल न सके.
पर ऊपर का ख़ाका तो प्रेमचंद का महज़ एकतरफा पहलू पेश करता है. उनमें यह सिफ्त
तो थी ही कि जिस दुनिया में वह रहते थे उसे बेबाकी से कागज़ पर उतार देते थे. उनकी
जादुई ज़ुबान उनके तर्जे-बयानी में चार चांद लगा देती थी. मगर बुनियादी तौर पर वह
एक गंभीर चिन्तनकर्ता भी थे. अंग्रेज़ों की गुलामी उनके कंधों पर भी जूआ बनी हुई
थी, और वह उसे उतार फेंकने के लिए उसी तरह तिलमिला रहे थे जिस तरह मुल्क का
बड़े-से-बड़ा देशभक्त.
गांधी के विचारों से प्रेमचंद अत्यधिक प्रभावित थे और उनकी बातों को अमली जामा
पहनाने में हरचन्द जुटे हुए थे. उन्हें स्वतंत्रता की लड़ाई का एक बांका सिपाही
कहा जा सकता है. उन्होंने अपनी कलम से आज़ादी का वह जेहाद छेड़ रखा था कि पढ़ने
वाला मुल्क पर तन-मन-धन सब कुछ निसार कर देने के लिए बेताब हो उठता.
मगर प्रेमचंद ने यह सब उपदेश आजकल के कौमी नेताओं की तरह दूसरे लोगों के लिए
नहीं दिया. सभी बातें सबसे पहले उन्होंने अपनी ज़िंदगी में उतारीं. सरकारी नौकरी
को ठोकर मारी. सुख-चैन, जान-माल की परवाह किए बिना राष्ट्रीयता की भावना को बुलन्द
से बुलन्दतर रखा-- वरना कौन नहीं आराम की रोटी खाकर सुख की नींद सोना चाहता? उन्हें इस बात का
बिल्कुल एहसास था कि जब तक अंग्रेज़ी हुकूमत खत्म नहीं होती देश की बहबूदो
नामुमकिन है. स्वाधीन भारत में ही शोषित-दलित, पिछड़े लोगों और किसानों की हालत
सुधर सकती है.
कहीं-कहीं अपने नाविलों के पात्रों से उन्होंने ग्रामोत्थान और औद्योगीकरण के
तरीकों पर रोशनी डलवायी है. यही वजह है कि उनको विचारक ही नहीं बल्कि युगदृश्टा
कहने में हिचक नहीं होती.
उनकी पैनी नज़रों से समाज की बुराइयां-कुरीतियां भी नहीं बचीं. विधवाओं की
समस्या, वेश्यावृत्ति, सूदखोरी और इस तरह की अन्य सामाजिक कुरीतियों को उन्होंने
बेनकाब किया और सुधार के उपाय सुझाए. उनके बताए हुए सुधार के उपाय आज भी उसी तरह
सार्थक हैं जिस तरह उनके वक्त थे.
इस बेजोड़ और बुलन्द शख्सियत को उसकी जश्ने-शताब्ती पर हज़ार-हज़ार खिराजे
अकीदत (श्रद्धांजलि).
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नोट:
अपने पिता मरहूम
विनय कुमार राय का मुंशी प्रेमचंद पर लिखा एक और लेख मुझे प्राप्त हुआ है. यह लेख
उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित हिंदी दैनिक स्वतंत्र भारत की साप्ताहिक पत्रिका
सुमन के लिये अगस्त 1980 में लिखा था.
यह पत्रिका एक लंबे
अरसे से एक बक्से में बंद थी जिसका मुझे इल्म तक न था. किसी दूसरे काम से एक दिन
यह संदूक खोला तो अचानक सुमन का यह अंक दिखाई पड़ गया जो काफी जर्जर हालत में था. पन्ने
पलटे तो अपने वालिद का लेख पाया और मैं गदगद हो उठा. इसे पढ़कर मन पसीज जाना तो
लाज़मी था क्योंकि आज मेरे पिता बस में ख्यालों में बसते हैं. बहरहाल, मैंने तय
किया कि इस लेख को मैं अपने ब्लॉग मेरे ख़्याल से में जगह दूंगा ताकि उनके लिखे
अल्फाज़ फिर कभी जर्जर न पड़ें.
आज मुंशी प्रेमचंद की 83वीं पुण्यतिथि पर यह लेख आपके सामने रख रहा हूं.
विनय ने मुंशी
प्रेमचंद पर कुछ अन्य लेख भी कलमसार किये हैं जिनमें जो भी मेरे हाथ लगे मैंने अपने
ब्लॉग के ज़रिये प्रकाशित किये हैं. इसके अलावे उनके लिखे बहतु से लेख न जाने कहां
गुम हो गए हैं जिसका मुझे बेहद अफसोस है. मेरे ब्लॉग में प्रेमचंद पर लिखे विनय के
लेखों का लिंक नीचे दै रहा हूं; पढ़ने के लिए इस लिंक को copy/ paste करें.
1)
जिस गांव ने प्रेमचंद को प्रेरणा दी (29 July, 2019)
https://apurvarai.blogspot.com/2019/07/blog-post.html2)
THE GENIUS OF PREMCHAND (28 July, 2017)
http://apurvaopinion.blogspot.com/2017/07/the-genius-of-premchand.html