अपूर्व राय
दिल्ली देश की राजधनी
ही नहीं देश-दुनिया के उन चुनिन्दा शहरों में भी है जो अनायास ही आपको अपनी ओर
खींचते हैं. दिल्ली के बारे में यूं ही नहीं कहा जाता कि जो भी दिल्ली आया यहीं का
होकर रह गया.
बचपन से ही मुझे
दिल्ली की सर्दी का ख़ास तौर से इंतज़ार रहता था. सुबह कमरे से बाहर निकलते ही घने
कोहरे का मिलना, दूर-दूर तक फैली धुंध के बीच सब कुछ खो जाना और कुछ दिखाई न
पड़ना, कोहरे को चीरकर रिक्शे में सवार स्कूल जाते नन्हे-नन्हे बच्चे, पेड़ों की
पत्तियों पर ओस की चमचमाती बूंदें, रंग-बिरंगे शॉल या फिर सजीले कार्डिगन पहने
महिलाएं, और कोट-पैंट पहने, टाई लगाए दफ्तर जाते पुरुष, धीरे- धीरे कोहरे का
छंटना, उजाला होना, सूरज देवता के दर्शन होना और फिर सुनहरी
धूप का पूरे शहर को अपनी आगोश में ले लेना. सर्दी की दोपहर हो या फिर शाम ढल जाए
लोग फिर भी घरों के बाहर दिख जाते थे... कनॉट प्लेस में यूं ही टहलते-घूमते, कॉफी
पीते, बर्गर खाते, दुकानों या फिर एमपोरियम में लगी 'सेल' देखते. सचमुच कितनी मनोहारी थी वो बचपन वाली
दिल्ली की सर्दी!
ऐसा नहीं है कि अब दिल्ली में सर्दी नहीं पड़ती; सर्दी की सुबह आज भी होती है, कोहरा भी पड़ता है और शाम भी ढलती है. लेकिन अब मौसम बदल गया है. आज पड़ने वाला कोहरा वो कोहरा नहीं है जिसका बचपन में इंतज़ार रहता था और जो पूरे शहर को धुंधलका कर जाता था; बाकी चीज़ों की तरह आज का कोहरा भी मिलावटी हो चला है जिसमें धुंध कम और धुएं का ज़हर ज़्यादा है. अब सुबह के वक्त सड़कों पर वो रंगीनी नहीं दिखती, पहनावे बदल गए हैं और ज़रूरतें भी बदलते मौसम के साथ बदल गई हैं. अब दिल्ली की दोपहर हो या फिर शाम ढले कोई बाहर यूं ही नहीं टहलता. अब लोग बाहर तभी जाते हैं या बाहर उतना ही रहते हैं जितना ज़रूरी हो, वरना काम खत्म होते ही घर के अंदर आ जाने की जल्दी. और यही ठीक भी है क्योंकि बाहर की हवा में इतना ज़हर घुल गया है कि कौन उसमें सांस लेना चाहेगा. घरों में अब हवा साफ करने के कृत्रिम यंत्र लग गए हैं. आज घरों में रहना ज़्यादा सुरक्षित है क्योंकि अब अंदर की हवा बाहर की हवा से बेहतर है.
बीमार हो गई है दिल्ली
पिछले एक दशक से
अधिक से दिल्ली की हवा में धुएं की मिलावट घुल रही थी. शुरू में या तो महसूस नहीं
हुआ और अगर हुआ भी तो इसे अनदेखा करते रहे क्योंकि तब किसी को शायद यह ख़्याल भी
नहीं आया होगा कि एक दिन यही धुआं हमारे वायुमंडल में ऐसा छा जाएगा कि हमारा सांस
लेना तक दूभर कर देगा.
आज दिल्ली की
सर्दी बाद में आती है धुएं का ज़हर पहले फैलने लगता है. हवा का प्रदूषण दिल्ली में
रहने वाले हर प्राणी को परेशान कर रहा है चाहे वो हम इंसान हों या फिर वो बेज़ुबान
पशु-पंछी जो दिक्कत में तो हैं पर उसे बयान नहीं कर सकते.
आज की दिल्ली प्रदूषण
की मारी है और यहां सर्दी की सुबह का एक अलग ही नज़ारा देखने को मिलता है. अब
सवेरा होता है तो आसमान पर धुंध नहीं धुएं की एक चादर दिखती है जो खूबसूरत नीले गगन
और हमारी निगाहों के बीच दीवार बनकर खड़ी हो जाती है. घर के बाहर निकलिये तो आंखों
में जलन होती है, फेफड़े तड़पने लगते हैं और घुटन हर जीव को बेदम कर देती है.
लेकिन काम तो करना ही है इसलिए हर कोई हिम्मत जुटाता है और घरों से निकल पड़ता
है-- बच्चे स्कूल जाते हैं और बड़े अपने काम-धंधे पर. पहले और अब में फर्क यह है
कि आज लगभग हर किसी ने चेहरे पर मास्क पहना हुआ है जो पहले शहर वालों की पोशाक का
हिस्सा कभी नहीं था. शहर का लगभग हर तीसरा शख्स चेहरे पर मास्क लगाए आता-जाता
दिखाई पड़ जाएगा. छोटे-छोटे बच्चे मास्क लगाकर रिक्शा या फिर स्कूल बस में दिखते
हैं और बड़े स्कूटर या बसों में. मास्क के पीछे छिपे चेहरों में शायद इंसान की
अपनी पहचान खो गई है लेकिन यह शहर की पहचान बन गया है.
कहते हैं हमारा
चेहरा हमारे दिल का आइना होता है. दिल में कितना ही दर्द छिपा लो या फिर कितनी ही
खुशी, आपका चेहरा आपके दिल की बात ज़ाहिर कर ही देता है. लेकिन आज दिल्ली वालों के
चेहरे का भाव पढ़ पाना नामुमकिन सा हो चला है क्योंकि अधिकांश के चेहरे मास्क से
ढके हैं. या फिर यूं कहें कि आज ज़्यादातर चेहरे नकाबपोश हैं. राह चलते आपको कोई
मिल गया और वह आपको देखकर मुस्कुराया या फिर उसने मुंह बनाया आपको पता ही नहीं
चला. वाह री, मास्क की महिमा!
कैसे हो गई हवा मिलावटी
आखिर ऐसा क्या हो
गया बीते दस-पंद्रह सालों में कि दिल्ली की हवा इतनी ज़हरीली हो गई. लोग बीमार पड़
रहे हैं, जाने जा रही हैं, और यहां तक कि विदेशों से आने वाले मेहमान पंछियों ने
भी अपना रास्ता बदल लिया. आज शहर में रहने वाला हर एक शख्स परेशान है, थका है और
दूर चला जाना चाहता है. वाकई यकीन नहीं होता एक वो ज़माना था जब लोग दिल्ली आते थे
और यहीं बस जाना चाहते थे, और आज वो दिन आ गया है जब लोग अपने दफ्तरों में तबादले
की अर्ज़ियां डाल रहे हैं कि क्योंकि दिल्ली की आबो-हवा रहने के लिए ख़तरनाक हो गई
है.
दिल्ली की हवा
खराब होने की वजहें बहुतेरी हैं.
पटाखों का
धूम-धड़ाका: याद कीजिये वो दिन जब दिवाली तब तक पूरी नहीं होती थी जब तक
पूरा घर भर जी भरके पटाखे नहीं चला लेता था. तब कौन सोचता था था कि पटाखों का धुंआ
एक दिन इतना प्रदूषण कर देगा कि इन पर रोक ही लगानी पड़ जाएगी.
वाहनों से प्रदूषण: वाहनों से निकलने वाला धुआं भी हवा के ज़हरीले होने की बड़ी
वजह बन गया है. वैसे तो आज देश के हर शहर में कारों और दूसरे वाहनों ने सड़कों पर
ऐसा कब्ज़ा कर रखा हे कि चलना दूभर हो गया है. दिल्ली की हालत तो कुछ ज़्यादा ही
ख़राब है क्योंकि यहां निजी कारों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि सड़क पर इंसान कम,
कारें अधिक दिखती हैं.
'लोकल रईसों' ने कार खरीदने को
भी शान की बात बना दिया और घर के हर प्राणी के लिए कार खरीद डाली. तिजोरी में रखे
रुपए खर्च करने को बेताब 'लोकल रईसों' को किसी नई कार के बाज़ार में आते ही उसे घर ज़रूर लाना है
अब चाहे ज़रूरत हो या न हो. और जब कार आएगी तो चलेगी भी क्योंकि कार में पेट्रोल
कितना भरवाया इस पर कोई रोकटोक नहीं है. इन 'लोकल रईसों' ने ऐसी हवा चला दी कि उसका असर आस-पड़ोस और रिश्तेदारों पर
भी पड़ने लगा. उन्हें यह बात अखरने लगी कि भला एक कार से गुज़ारा कैसे हो सकता है.
अब क्या था इन लोगों ने भी कुछ नहीं तो कारें एक से दो कर लीं. आखिर ज़रूरत पैदा
करने में वक्त ही कितना लगता है.
इसके अलावा
ट्रकों, बसों, टेम्पो, ट्रेनों और हवाई जहाज़ों से निकलने वाला धुआं भी हवा में
घुलता रहा और अपना असर दिखाता रहा. नतीजा आज हम सबके सामने है. वायु प्रदूषण इतना
गंभीर हो गया है कि हमारी जान लिये जा रहा है. ज़रीली हवा हर इंसान को परेशान कर
रही ख़ास तौर बच्चों और बूढ़ों को. Global Burden of Diseases 2017 की एक रिपोर्ट कहती है कि हवा में घुले ज़हर के कारण भारत
में हर तीन मिनट में एक बच्चे की मौत होती है. इसी रिपोर्ट के अनुसार वायु प्रदूषण
से होने वाली अलग-अलग बीमारियों के कारण साल 2017 में 1,95,546 बच्चों की मृत्यु
हुई. इसका सीधा मतलब है कि देश में रोज़ाना 535 बच्चों ने जान गंवाई.
सचमुच समाज में
हवा ही ज़हरीली है, मेरे ख़्याल से.
Odd-Even Formula: दिल्ली सरकार ने वाहनों से होने वाले
प्रदूषण को कम करने के लिए सम-विषण फॉर्मूला निकाला जिसके तहत कारों के चलाने पर
कुछ लगाम लगाई गई. बहरहाल यह फॉर्मूला भी कोई विशेष राहत देने में कारगर नहीं हुआ
है क्योंकि ट्रक, टेम्पो, ट्रेन और हवाई जहाज़ तो ईंधन फूंक ही रहे हैं.
कोयला जलाने से
प्रदूषण: एक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि कोयला भी हमारे देश में
ज़बरदस्त प्रदूषण कर रहा है. वैसे तो हमारे यहां खाना बनाने के लिए गली-गली ढाबों
में तंदूर जलते हैं, हर सड़क पर ठेले में कोयला जलाकर भुट्टा, शकरकंद या मूंगफली
बिकती है लेकिन इन सबसे भी ज़्यादा बिजली उत्पादन के लिए कोयला जलाया जाता है. चीन
के बाद भारत ही ऐसा दूसरा देश है जहां बिजली पैदा करने के लिए कोयले की खपत सबसे बड़ी
मात्रा में होती है.
फसल जलाने से
प्रदूषण: वैसे तो पूरे उत्तर भारत में लेकिन विशेष रूप से दिल्ली
में सूखी फसलों के जलाए जाने से फैसने वाले धुएं का दुष्प्रभाव अधिक हुआ है. दिल्ली
से सटे हरियाणा और पंजाब के किसान नवंबर के महीने में खेत साफ करने के लिए धान के
सूखे डंडे जला देते हैं ताकि नई फसल उगाई जा सके. इसके असर से दिल्ली में दिवाली
के बाद आसमान में धुंआ छा जाता है और बिन कोहरे ही ऐसा वातावरण हो जाता है कि कुछ
दिखता नहीं और हवा में कार्बन घुलकर हमारे फेफड़ों को जो कमज़ोर करता है सो तो है
ही.
धान की फसल
(पराली) जलाए जाने की समस्या कई सालों से सुर्खियां बटोर रही है और लोगों को
परेशान कर रही है. लेकिन सरकारें-- चाहे वो पंजाब की हों, हरियाणा की हों, दिल्ली
की हो या फिर केंद्र की-- सबकी सब अभी तक बेबस और असरहीन साबित हुई हैं. यह बात
हलक से नीचे उतर नहीं रही है कि हर सरकार में कृषि मंत्री होता है, कृषि मंत्रालय
होता है, अफसर होते हैं और उसके बाद भी साल के बाद साल बीत जाते हैं पर पराली
जलाने का मसला जस का तस रहता है. इतना ही नहीं, देश में में कितने ही कृषि
विश्वविद्यालय हैं, प्रोफेसर हैं, शोधकर्ता हैं और छात्र हैं लेकिन फिर भी कोई
पराली जलाने को रोकने का विकल्प नहीं दे पाया.
क्या हम कर नहीं
पा रहे हैं या फिर करना ही नहीं चाहते ?
सचमुच सोच ही
ज़हरीली हो चली है, रास्ता निकले भी तो कैसे, मेरे ख़्याल से.
भवन निर्माण से
प्रदूषण: वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण दिल्ली और इससे जुड़े शहरों
जैसे गुरुग्राम, फरीदाबाद, नोएडा और ग्रेटर नोएडा में बड़े पैमाने पर फ्लैटों का
निर्माण कार्य होना है. इन जगहों पर इस कदर भवन बन बन रहे हैं कि हवा में
धूल-मिट्टी, सीमेंट, बालू और ट्रकों से उड़ने वाले काले धुएं के अलावा आपको मिलेगा
ही क्या !
सबसे ताज्जुब की
बात तो यह है कि इतने बड़े पैमाने पर भवनों के निर्माण होने के बावजूद देश के तमाम
लोग सर पर एक छत के लिए परेशान हैं. फिर आखिर ये भवन किसके लिए ? कौन है इनका खरीददार और क्यों बन रहें हैं ये ? कौन बना रहा है और कितने बनवा रहा है-- इसका हिसाब रखता है
कोई ?
बात घूम-फिरकर एक
बार फिर उन 'लोकल रईसों' पर आ टिकटी है
जिनकी तिजोरियां रुपयों से अटी पड़ी हैं. अभी तक रोटी, कपड़ा और मकान इंसान की
ज़रूरत थी लेकिन इन 'लोकल रईसों' की मेहरबानी से मकान अब निवेश की वस्तु बन गया है. बस फिर
क्या है, शहर के अच्छे इलाकों में खरीद डाले घर क्योंकि देर-सबेर रुपया बढ़कर ही
मिलेगा, नहीं तो हर महीने किराया आएगा जो बैंक के ब्याज से कहीं
ज़्यादा होगा. एक नहीं, दो नहीं, कई-कई घर खरीद डाले 'लोकल रईसों' ने, आखिर
बिल्डरों से फ्लैट खरीदने पर रोक ही कहां है.
इतना ही नहीं 'लोकल रईसों' की ख्वाहिशें भी
बढ़ने लगीं. अब इन्होंने दूसरे शहरों में भी मकान या फिर कहें तो प्रॉपर्टी खरीदनी
शुरू कर दी, जैसे छोटे शहरों में फार्म हाउस, पहाड़ों पर गर्मी बिताने के लिए
अपार्टमेंट, धार्मिक शहरों में घर ताकि सुकून से ईश्वर भजन किया जा सके.
मकान अब घर न रहा, वो इन्वेस्टमेंट हो गया है. बिल्डरों ने इस सोच का फायदा
उठाया और दनादन ज़मीने खरीद डाली और शुरू कर दिया टावर निर्माण का काम. जिस बिल्डर
के मकान नहीं बिके उसने आधा-अधूरा काम करके लटका दिया और अब लोग मारे-मारे फिर रहे
हैं. जिस बिल्डर के मकान बिके उसने धड़ाधड़ ज़मीने खरीदीं और बसेरा देने के नाम पर
कॉलोनी की कॉलोनी बसा दी. आखिर आशियाना से अच्छा व्यसाय और क्या हो सकता है. क्या सरकार
ने बिल्डरों के ज़मीन खरीदने की कोई सीमा निर्धारित की है ?
इन सब के बीच किसे
फिक्र है मौसम की, वायुमंडल की, वातावरण की, खुलेपन की, फव्वारों और तालों की, पार्कों
की, हरियाली की, वनों की और साफ हवा की... इन सबसे रुपया थोड़े ही बढ़ता है.
अन्य कारण: प्रदूषण के कुछ दूसरे कारण भी हैं लेकिन वो सुर्खियां कम
ही बटोर पाते हैं. इन कारणों का कम से कम ज़िक्र करना तो ज़रूरी हो
जाता है. तेज़ी से घटते वन या फिर पेड़ों का बड़े पैमाने पर काटा जाना एक विकट
समस्या बन गई है. हर जगह पेड़ लगाने की बात की जाती है, सरकार पैसे भी देती है
लेकिन सब कुछ बेअसर. लोग पेड़ लगाने की बात करते हैं और एक पौधा लगाकर चार-पांच
लोग उसे घेरकर फोटो खिंचवाने से नहीं चूकते. इसके बाद कोई फोटो नहीं खींचता कि
पौधा कितना बड़ा हुआ, फल-फूल दे रहा है या नहीं, छायादार है या नहीं.
हमारे यहां शहरों
में और गांवों में भी तमाम ऐसी ज़मीन खाली पड़ी है जिसका कोई उपयोग नहीं होता.
नतीजा ये कि ऊपरी मिट्टी सख्त हो जाती है और पानी सोखना बंद कर देती है जिसकी वजह
से हवा चलने पर धूल उड़ती है और हवा में घुलने लगती है.
जंगलों में लगी आग
भी प्रदूषण का बड़ा बनती है. वनों में आग से न केवल पेड़ों का नुकसान हो रहा है
बल्कि आग से उठने वाला धुआं पूरे वातावरण को विषैला कर रहा है.
हम सब आज आधुनिक
युग में जी रहे हैं जहां इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का बड़ा महत्व है. उन उपकरणों को
इस्तेमाल करने में आनंद तो बहुत आता है लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि जब ये उपकरण
बेकार हो जाते हैं तो इन्हें नष्ट करने से वातावरण पर कितना बुरा असर पड़ता है. आने वाले समय में इलेक्ट्रॉनिक कचरा भी चिंता का कराण बन
सकता है.
नेता हैं कि मानते नहीं
अब जबकि हवा
ज़हरीली हो गई है, वायु प्रदूषण जानलेवा हो गया है और लोग चिल्ला रहे हैं तो ऐसे
में हमारे नेता और राजनीतिक पार्टियां भला कैसे पीछे रह सकती हैं. तुरंत ही सब के
सब, चाहे वो सत्ता में हैं या नहीं हैं, आपके हमदर्द बनकर आ खड़े होते हैं. आखिर
यही तो वो सुनहरा मौका है अपनी राजनीति चमकाने का. इसके बाद शुरू हो जाता है
आश्वासनों का दौर या फिर छींटाकशी का कभी खत्म न होने वाला सिलसिला.
लोग समस्या लेकर सत्ता
से जुड़े नेताओं से संपर्क साधते हैं और पहुंच जाते हैं मंत्री साहब के दफ्तर. मंत्री
साहब बेहद गंभीरता से बात सुनते हैं, अधिकारियों को निर्देष देते हैं और सांत्वना
देते हुए इस बात का भरोसा दिलाते हैं कि जल्दी ही ठोस कदम उठाए जाएंगे और समस्या
का निदान हो जाएगा. धीरे-धीरे वक्त बीतता जाता है, लोग शिथिल पड़ने लगते हैं लेकिन
न तो समस्या का ठोस निदान निकलता है और न ही वो पूरी तरह समाप्त होती है.
उधर वो नेता जो
सत्ता से जुड़े नहीं हैं लगातार शोरगुल करते रहते हैं और मुद्दा ज़िंदा रखते हैं ताकि
आप यह समझते रहें कि वो आपके प्रति कितने सजग हैं. चलिये साहब, अब तक जो आपकी और
समाज की एक बड़ी समस्या थी वो राजनीति का हिस्सा बन गई... समस्या की आड़ में
छींटाकशी होने लगी, मुद्दा चुनावी हो गया और समस्या का ज़िक्र बड़ी-बड़ी रैलियों
में होने लगा, वोट मांगे जाने लगे, नए-नए रास्ते दिखाए जाने लगे आदि-आदि.
समस्या मूल रूप से
क्या थी, कहां से आरंभ हुई थी और उसको जड़ से कैसे निकाल फेंकना है किसी को इससे
मतलब नहीं.. सच पूछें तो किसी नेता को यह पता भी नहीं. उन्हें तो बस सत्ता के
गलियारे तक पहुंचने का ज़रिया या एक मुद्दा चाहिए.
वायु प्रदूषण का
मुद्दा भी हमारी राजनीति के दलदल में बुरी तरह फंस चुका है, कौन और कब इसे बाहर
निकालेगा कह पाना मुश्किल है. नेताओं को अच्छी तरह मालूम है थोड़ी देर का मामला
है, कुछ समय बीतेगा और सब कुछ अपने आप ही सुधर जाएगा... कुदरत का कहर है कुदरत ही
ठीक कर देगी. और लोगों का क्या है... कुछ दिनों में या तो भूल जाएंगे या थक के सो
जाएंगे. भाषण और भरोसा देने के लिए नेता कुर्सी पकड़कर बैठे ही हैं.
सचमुच ज़हरीली हो
चली है राजनीति, मेरे ख़याल से.
करें तो क्या करें
वायु प्रदूषण की
समस्या वाकई विकराल है और इस वक्त ज़रूरत है ऐसे उपाय करने की जिससे समाज के लोग
स्वस्थ रह सकें और साफ हवा में जी सकें. इसके लिए जहां एक तरफ सरकार को कुछ कठोर
कदम उठाने होंगे वहीं लोगों को खुद भी अपना सहयोग देना होगा, जीने और सोचने के
तौर-तरीकों को बदलना होगा.
सरकार जो एक काम
सख्ती के साथ करना होगा वो है 'लोकल रईसों' के पर लगाम कसना. जब चाहा, जितना चाहा, जहां चाहा मकान
खरीद लिया, कार खरीद ली और जितना चाहा पेट्रोल भरवाकर गाड़ी सड़कों पर दौड़ाते रहे,
धुंआ उड़ाते रहे... ऐसा अब नहीं चलेगा. सरकार को इस प्रवृत्ति पर रोक लगानी ही होगी.
उधर लोगों को भी अपनी
सोच बदलनी होगी और बेशुमार रुपया कमाने की हवस, तिजोरी भरने और दिखावे की ज़िंदगी से
दूर जाना होगा. सोचना होगा कि उनकी तिजोरी में भले ही बेशुमार रुपया है पर उसे
समझदारी से खर्च करें, कल्याणकारी कार्यों में खर्च करें, लोगों की भलाई के लिए खर्च
करें, किसानों पर खर्च करें, बच्चों की शिक्षा पर खर्च करें.
रुपया कमाने और
रकम दोगुनी करने की हवस अब पूरे समाज के लिए जानलेवा साबित हो रही है. अगर हम अब
नहीं बदले तो फिर शायद कुदरत बदलने का मौका नहीं देगी.
काश कि एक बार फिर
से दिल्ली की सर्दी में वैसा ही कोहरा पड़ता जैसा मेरे बचपन में पड़ता था. काश कि
एक बार हम बेनकाब होकर खुली हवा में बेफिक्र सांस ले पाते, बेफिक्र बाज़ारों में
घूम पाते, बेफिक्र हो कॉफी की चुस्की लेते या फिर पार्क में बैठकर दोपहर की धूप का
आनंद लेते, थोड़ा अलसाते, थोड़ा ऊंघते, मूंगफली चबाते या फिर बेफिक्र हो गप्प
लगाते. काश कि मेरा अतीत एक बार फिर से लौट आता !
मेरे ख्याल से !
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NOTE
Also read my other pieces:
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https://apurvaopinion.blogspot.com/2020/02/becoming-kejriwal.html
2) अब दिल्ली महानगरपाविका चुनाव (2017)
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3) Monsoon and Delhi Roads (2017)
https://apurvaopinion.blogspot.com/2017/07/monsoon-and-delhi-roads.html
4) Delhi Fights Pollution: Odds Come
Again (2016)
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5) Delhi Pollution: Fighting Odds to
make Things Even (2016)
https://apurvaopinion.blogspot.com/2016/01/delhi-pollution-fighting-odds-to-make.html
6) Delhi Pollution- Check 'Green
Agenda' of Builders (2015)
https://apurvaopinion.blogspot.com/2015/07/delhi-pollution-time-to-check-green.html
7) Delhi Pollution: Mindless Driving
Major Concern (2015)
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8) मैं और मेरी दिल्ली (2011)
http://apurvarai.blogspot.com/2011/11/blog-post.html