विनय कुमार राय
हिंदी साहित्य के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का निधन अक्टूबर 1936 में हुआ था. पिता की मृत्यु के तुरंत बाद ही उनके ज्येष्ठ पुत्र श्रीपत राय ने विरासत में मिली लेखन सामग्री,
सरस्वती प्रेस और मासिक पत्रिका 'हंस' का कार्यभार न सिर्फ संभाला बल्कि उसे आसमान की ऊंचाइयों तक उठाया.
पिता के असमय स्वर्गवास के वक्त श्रीपत अपनी पढ़ाई तक पूरी नहीं कर सके थे और इलाहाबद विश्वविद्यालय में स्नातक (बी.ए.) के छात्र थे. एक नवयुवक के लिए यह किसी चुनौती से कम न था बल्कि एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी भी थी और वो इसमें अव्वल नंबरों से उत्तीर्ण हुए.
पिता से विरासत में मिली पत्रिका 'हंस'
का संपादन कोई आसान काम नहीं था लेकिन श्रीपत ने इसे निभाने में जिस प्रतिभा और निष्ठा का परिचय दिया वो इस को साबित करती है कि साहित्य उनकी रगों में बसता था. उन्होंने पिता की परिपाटी को आगे तो बढ़ाया ही बल्कि नई प्रतिभाओं को प्रेरित करने और उन्हें सुअवसर देने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी भी निभाई. हिंदी साहित्य के चंद जाने-माने नाम मसलन मुक्तिबोध, सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय' किसी न किसी किसी प्रकार से 'हंस' से जुड़ गए और श्रीपत के साहित्यिक सफर का हिस्सा बने.
कुछ वर्षों पश्चात 'हंस'
बंद हो गया. अब श्रीपत ने एक नई मासिक पत्रिका आरंभ की जिसका नाम था 'कहानी'. इस पत्रिका के संपादन का जिम्मा उन्होंने खुद अपने पास रखा. 'कहानी' में साहित्य की बेहतरीन और ऊंची श्रेणी की लघु कथाएं प्रकाशित हुईं. इस पत्रिका का संपादकीय श्रीपत खुद 'कहानी की बात' शीर्षक से लिखते थे. उनके संपादकीय न सिर्फ दिलचस्प और पठनीय होते थे बल्कि आलोचना की दुनिया में मील के पत्थर के समान थे. 'कहानी की बात' से उन्होंने साबित कर दिया कि भाषा और साहित्य दोनों पर उनकी कितनी ज़बरदस्त पकड़ थी.
सालों-साल प्रकाशित करने के बाद एक समय आ गया जब 'कहानी' का सफर समाप्त करना पड़ा. बाद में सरस्वती प्रेस ने श्रीपत जी के संपादकीय का संकलन 'कहानी की बात' नाम से उनके जीवनकाल में ही प्रकाशित किया.
'कहानी'
पत्रिका का प्रकाशन करते हुए भी श्रीपत ने उभरते हुए नव-साहित्यकारों की अनदेखी नहीं की. 'कहानी' में उस समय की कई उभरती प्रतिभाओं को मौका मिला जिन्होंने बाद में साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना विशेष स्थान बनाया. 'कहानी' के ज़रिये जो लोग साहित्य संसार में आगे आए उनमें कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, शानी आदि प्रमुख हैं. सचमुच, श्रीपत के अंदर उभरती प्रतिभाओं की सही पहचान करने की विलक्षण प्रतिभा थी. उन्होंने प्रतिभाओं को सराहा, प्रोत्साहित किया और लेखन का एक बेहतरीन मंच दिया. श्रीपत के इसी जज़्बे को सलाम.
बहुत से लोग शायद यह नहीं जानते कि श्रीपत साहित्यकार होने के साथ-साथ एक बेहतरीन पेंटर भी थे. ताज्जुब करने वाली सबसे बड़ी बात तो यह है कि उन्होंने पेंटिग की कोई औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं की और स्वयं की प्रेरणा और जिज्ञासा ही उन्हें इस विधा में आगे ले गई. उन्होंने मॉडर्न आर्ट में रुचि दिखाई और एक महत्वपूर्ण मुकाम हासिल किया.
उन्होंने जिस शिद्दत और खूबसूरती से पेंटिंग की उसमें उन्हें असाधारण सफलती हासिल हुई. श्रीपत की पेंटिग्स तत्कालीन विश्वस्तरीय पेंटरों जैसे राम कुमार और एम एफ हुसैन के साथ प्रदर्शित हुई. इसके अलावा 1963 में जापान में आयोजित 7th Tokyo Biennale में भी उनकी पेंटिंग्स का प्रदर्शन हुआ. लेकिन कुछ वर्षों बाद उन्होंने पेंटिंग करना बंद कर दिया. शायद यही वजह है कि मशहूर कला समीक्षक रिचर्ड बार्थोलोमियू ने उन्हें 'भूले-बिसरे पेंटरों' की श्रेणी में रखा.
श्रीपत राय को हिंदी साहित्य, पत्रकारिता, आलोचना और कला के लिए ही नहीं बल्कि एक बेहतरीन व्यक्तित्व के धनी इंसान के तौर पर भी जाना जाता है. वैसे तो वो शर्मीले स्वभाव के व्यक्ति थे और ज़्यादा कहीं आना-जाना या मिलना-जुलना पसंद नहीं करते थे. तमाम लोग उनका इंटरव्यू लेने घर जाते थे पर अधिकांश को निराशा ही हाथ लगती थी.
श्रीपत राय को हिंदी साहित्य, पत्रकारिता, आलोचना और कला के लिए ही नहीं बल्कि एक बेहतरीन व्यक्तित्व के धनी इंसान के तौर पर भी जाना जाता है. वैसे तो वो शर्मीले स्वभाव के व्यक्ति थे और ज़्यादा कहीं आना-जाना या मिलना-जुलना पसंद नहीं करते थे. तमाम लोग उनका इंटरव्यू लेने घर जाते थे पर अधिकांश को निराशा ही हाथ लगती थी.
एकाकी जीवन को पसंद करने वाले श्रीपत राय उर्दू और बांग्ला भाषा के अच्छे जानकार थे और बखूबी बोलते भी थे. संगीत के प्रति उनकी गहरी रुचि थी और रबीन्द्र संगीत उनको बहुत प्रिय था.
असाधारण व्यक्तित्व और प्रतिभा के धनी श्रीपत राय का निधन जुलाई 1994 को उनके इलाहाबाद स्थित निवास में हुआ.
उनकों मेरा नमन.
पता: D-21, Sector-12
NOIDA- 201301
(हिंदी अनुवाद: अपूर्व राय)
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