अपूर्व राय
विकास कुदरत का नियम है. हर बच्चा शैशवकाल से निकल कर शनै: शनै: बड़ा होता है और विकास की सीढ़ियां चढ़ते हुए जीवन को अपनी तरह से बेहतर बनाने के प्रयास में जुट जाता है. एक पंक्ति में कहा जाए तो यही जीवन का क्रम है.
कुछ ऐसा ही क्रम उस शहर का भी होता है जिसमें हमारा जन्म एक बालक के रूप में होता है, जिस शहर में हम चलना सीखते हैं, खेलते- कूदते हैं, पढ़ते-लिखते हैं और अपने जीवन को एक निश्चित दिशा देते हैं ताकि हम एक कामयाब मनुष्य बन सकें और अपने आसपास के लोगों में यश के भागीदार बन सकें.
मनुष्य और शहर का नाता अधिक समझाने की ज़रूरत नहीं है. जिस तरह एक मानव का विकास होता है ठीक उसी तरह एक शहर का भी विकास होता है. हर शहर अपनी बाल्यावस्था से होते हुए, विकास की सीढ़ियां चढ़ते हुए अपना एक मुकाम बनाता है. वैसे तो हर शहर विकास की दौड़ दौड़ता है पर इनमें से कुछ इस दौड़ में इतना आगे निकल जाते हैं कि पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान बना लेते हैं. कुछ शहर तो इतने भाग्यशाली होते हैं कि उनके देश की पहचान भी उन्हीं से बन जाती है.
मनुष्य के विकास और शहर के विकास में थोड़ा फर्क़ भी होता. जहां मनुष्य का विकास काफी सीमा तक स्वत: होता है, शहर का विकास मानव बुद्धि और मानव शक्ति के बिना असंभव है.
मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में हुआ. पिता की आजीविका उन्हें दिल्ली शहर तो ले ही आई साथ में मुझे भी शैशवकाल से ही इसी शहर में ला पटका. शायद नियति की यही इच्छा थी. मैने कब दिल्ली शहर में होश संभाला और चलना सीखा कह नहीं सकता. इसके बाद तो मैं, और अब मेरा हो चुका दिल्ली शहर, दोनों ही विकास के क्रम में आगे बढ़ने लगे.
धीरे- धीरे मैं तो दिल्ली की भीड़ में कहीं खो गया लेकिन दिल्ली नहीं हारी और विकास को अपना हमसफर चुन जीवनपथ पर बढ़ती रही, बढ़ती रही. दिल्ली भाग्यशाली है कि भारत की सत्ता को अपने हाथ में ले चुके फिरंगी भी इसके विकास की बात निरंतर सोचते रहे. दिल्ली ही वह खुशकिस्मत शहर है जो इतिहास के हर दौर में विकास पथ पर अग्रसर रहा. शुरुआती दिनों से आज तक न जाने कितने लोगों ने दिल्ली पर शासन किया, इसके विकास को अपने कार्यक्षेत्र की एक उपलब्धि समझा और इस पर फक्र किया.
दिल्ली के विकास में भले ही मेरी भूमिका नगण्य हो फिर भी मैं कम किस्मत वाला नहीं हूं क्योंकि मैंने दिल्ली को विकास पथ पर चलते देखा है. यह बात दीगर है कि यह सब यूं ही नहीं आया और बहुत कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना भी पड़ा.
मुझे याद है दिल्ली अपने गोल-चक्करों के लिए जानी जाती थी लेकिन विकास की राह में ये रफू-चक्कर हो गए. दिल्ली जानी जाती थी अपनी चौड़ी और लंबी सड़कों के लिए. ये आज भी हैं पर अब ये सड़कें कम, भूल-भुलैया ज़्यादा हैं. दिल्ली जानी जाती थी अपने शानदार बंगलों के लिए पर अब आधुनिकिकरण का ज़माना है और इनकी जगह गगन-चुंबी इमारतें खड़ी हो गई हैं. कोई ताज्जुब नहीं कि आने वाले समय में दिल्लीवासी सूर्योदय और सूर्यास्त सिर्फ फिल्मों में देखा करेंगे.
दिल्ली जानी जाती थी अपने बाज़ारों के लिए. कनॉट प्लेस लाटसाहबों का बाज़ार कहलाता था पर आधुनिकीकरण के युग में अब अपनी पहचान गंवा बैठा है. कुछ यही हाल यहां के प्रसिद्ध थोक बाज़ारों का भी है. वो मशहूर थे और आज भी हैं, मगर अफसोस, विकास अभी यहां से कोसों दूर है. अपने पिता की उंगली थामकर चांदनी चौक और उसकी गलियों को मैंने जिस हाल में देखा था, लगभग उसी हाल में मेरे बेटे ने मेरी उंगली थाम कर चांदनी चौक को देखा. अगर यही आलम रहा तो कोई ताज्जुब नहीं मेरा बेटा भी अपने पुत्र को ठीक वैसा ही चांदनी चौक दिखाएगा. ऐसा हुआ है यहां का विकास कि पुश्तें बीत गईं पर बदहाली वैसी की वैसी है.
दिल्ली के इन बाज़ारों में, यहां की गलियों में व्यापार तो करोड़ों का होता है पर इनकी बेहतरी के लिए क्या हुआ है यह तो सरकारी अमला ही जानता होगा. बहरहाल सच तो यह है कि इन इलाकों में आधुनिकीकीरण या विकास दिखाई तो ज़रा भी नहीं देता, फाइलों और नेताओं के भाषणों में इनका ज़िक्र अलबत्ता हुआ होगा.
खेलकूद में भी दिल्ली कभी पीछे नहीं रही. यह गौरव की बात है कि दिल्ली में एक नहीं कई-कई स्टेडियम बने हैं जहां अनेकों अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतियोगिताएं और खेल आयोजन हुए हैं. सन 1982 के एशियाड खेल और अक्टूबर 2010 में संपन्न हुए कॉमनवेल्थ गेम्स किसे याद नहीं. दिल्ली के विकास का बहुत बड़ा श्रेय इन खेल आयोजनों को जाता है. यह बात दीगर है कि इन खेलों के आयोजक भी कम खिलाड़ी नहीं थे. इन्होंने दिल्ली का श्रृंगार और विकास कम, अपना और अपनों का भरपूर विकास ज़रूर किया.
पहले की दिल्ली की तुलना में आज की दिल्ली बहुत दूर आ गई है. आज यहां बड़ी-बड़ी इमारते हैं, बड़े- बड़े फ्लाईओवर हैं, बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल हैं, चौड़ी-चौड़ी सड़कें हैं, सड़क के नीचे और सड़क के ऊपर दौड़ने वाली मेट्रो ट्रेन है, ढेर सारी कारें हैं, ढेर सारे दफ्तर, छोटे-बड़े उद्योग हैं और सबको लुभाने वाली चमक-दमक भी है. पहले यह सब कुछ इतने बड़े पैमाने पर न था. एक चीज़ और जो पहले इतने बड़े पैमाने पर नहीं थी वह है अपराध. दिल्ली आगे ज़रूर बढ़ी लेकिन इसके साथ ही आधुनिक होते इस शहर में अपराध भी बढ़े. रंजिश, ईर्ष्या, संवेदनहीनता, छीना-झपटी, छुरेबाजी, चोरी-डकैती, वृद्धों का अपमान, औरतों के साथ छेड़छाड़, बलात्कार, बच्चों की असुरक्षा, तुनकमिजाज़ी, गुस्सा, बेसब्री, बेईमानी, झूठ-फरेब और न जाने क्या-क्या बढ़ा है दिल्ली में. आधुनिकीकरण की दौड़ में इंसानियत, प्रेम और सह्रदयता जैसी छोटी-छोटी बातें न जानें कहां छूट गई हैं.
मेरी दिल्ली विकास पथ पर है. इसके साथ-साथ मेरा भी विकास हुआ है और मैंने नए ज़माने की बहुत सी आधुनिक सुविधाओं के साथ जीना सीखा है. कभी- कभी मुझे गर्व होता है कि जिस शहर में मेरा तीन-चौथाई जीवन गुज़रा है वह दुनिया के किसी दूसरे बड़े शहर से कम नहीं. पर फिर भी अफसोस होता है कि इतना विकास और आधुनिकीकरण दिल्ली को वह मुकाम नहीं दिला पाया है जो न्यूयॉर्क ने अमेरिका को दिलाया, जो लंदन ने इंग्लैंड को दिलाया, जो टोक्यो ने जापान को दिलाया, जो शांघाई ने चीन को दिलाया, जो हांगकांग ने थाईलैंड को दिलाया, जो दुबई ने यूएई को दिलाया.
ऐसे में बहुत दुख और कोफ्त होता है. गुस्सा अपने नेताओं और सरकारी बाबुओं पर आता है जो बड़े- बड़े ओहदे पाने के लिए बड़ी- बड़ी बातें करते हैं, बड़े- बड़े वादे करते हैं, ढेर सारी उपलब्धियां गिनाते हैं, कभी न पूरी होने वाली योजनाएं बनाते हैं और मासूम जनता को हसीन सपने दिखाते हैं. सही मायनों में दिल्ली के अपराधी यही लोग हैं, नहीं तो आज सचमुच मेरी दिल्ली मेरी शान होती.
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NOTE
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6) Delhi Pollution: Fighting Odds to
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7) Delhi Pollution- Check 'Green
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