November 05, 2010

बदला दौर, बदली दिवाली





अपूर्व राय

एक बार फिर दिवाली आ गई है। घर सज गए हैं और बाज़ारों में रौनक है।

हमारे यहां हर पर्व मेलों से जुड़ा है। बिना मेले के कोई त्यौहार कैसा। फिर अगर ये दशहरा और दिवाली हो तो बात कुछ ख़ास हो जाती है। शहर हो या गांव मेलों की संस्कृति हमारे हर पर्व का अभिन्न हिस्सा है।

दिवाली आते ही घर, बाज़ार और शहर जगमग हो उठते हैं। श्री राम के अयोध्या लोटने पर खुशी का इज़हार करने की ये प्रथा आज तक चली आ रही है।

असल में बाज़ारों में रौनक तो नवरात्र से ही शुरू हो जाती है। जगह- जगह रामलीला का मंचन और मेला- ठेला। सुबह होते ही मन करता है जल्दी से शाम ढले और निकला जाए बाज़ार की रौनक देखने को।

नवरात्र के बाद मेले की रौनक दशहरे पर देखने को मिलती है। सुबह से ही तीर- कमान, तलवार, गदा, गुब्बारे वालों के साथ- साथ खोमचे वाले, खिलौने वाले, जलेबी- समोसा और चाट- पकौड़ी वाले बाजार में आ खड़े होते हैं। जैसे- जैसे दिन चढ़ता है लोगों की आवाजाही भी बढ़ने लगती है। शाम ढलते- ढलते बाज़ार में जो रेलम- पेल होती है उसके क्या कहने। सब बाज़ार आते हैं, क्या छोटे और क्या बड़े। बाज़ार आइये, खाइये- पीजिये, आनंद लीजिये और घर को लौट जाइये।

इसके बाद मेलों की रौनक दिवाली पर दिखती है। दिवाली पर जमकर खरीददारी होती है। पूरे घर की साफ- सफाई होगी, रंगाई- पुताई होगी, परिवार में हर किसी के लिये नए वस्त्र खरीदे जाएंगे और घर- गृहस्थी में एकाध नया सामान भी जुड़ेगा। सिर्फ अपने लिये ही नहीं दिवाली पर मित्रों और रिश्ते- नातों का भी ख़ास ख्याल रखा जाता है।

दिवाली पर आदान- प्रदान का विशेष महत्व है। कहते हैं आदान- प्रदान से प्रेम बढ़ता है। लोगों को खिलाना- पिलाना, भेंट देना वाकई दिल को खुशी देता है, चाहे लेना हो या फिर देना। ऐसे में बाज़ार भला क्यों नहीं सजेंगे। सामानों की बिक्री जो बढ़ जाती है। सब लोग कुछ अपनों के लिये और कुछ गिफ्ट के लिये खरीददारी करने बाज़ारों को निकल पड़ते हैं।

लेकिन अब दौर बदल गया है। आज लोग अपने लिये तो खरीददारी करते हैं, लेकिन लेन- देन के मामलों में सद्भावना खत्म हो चली है। आज कोई उपहार इसलिये नहीं देता क्योंकि वो देना चाहता है। गिफ्ट इसलिये दी जाती है क्योंकि देने वाले इसमें अपना लाभ देखते हैं। जिससे लाभ हुआ है या फिर फिर होगा, उसे ज़रूर गिफ्ट पहुंचाई जाएगी। इतना ही नहीं जैसा काम, वैसी गिफ्ट। स्टेटस सिम्बल बन गया है गिफ्ट का घर आना। आपकी गिफ्ट आपके ओहदे और रुतबे को बयान करती है।

वैसे तो उपहार शब्द में ही प्रेम छुपा है। लेकिन बदले दौर में जब से ये उपहार ‘गिफ्ट’ बने हैं उनमें प्रेम कम, घूस की बू ज़्यादा आती है। चमकीले कागज़ों में लिपटे हुए ये डिब्बे भ्रष्टाचार का प्रतीक नहीं हैं तो फिर क्या हैं। वाह री दिवाली ! कभी श्री राम ने भी नहीं सोचा होगा कि उनके अयोध्या लौटने की खुशी भ्रष्टाचार का पर्याय बन जाएगी।

दिवाली पर जगह- जगह तरह- तरह के दिये, खील- बताशे, नाना प्रकार की शक्ल में चीनी के खिलौने, कंदीलें और लाई के लड्डू आदि का विशेष, महत्व है। इसके साथ-साथ मिठाई तो है ही, उसकी बात क्या करना। बिना मिठाई के दिवाली कैसी !

लेकिन आज हम भटक गए हैं अपनी परंपराओं से। विज्ञापन के इस युग में, या यूं कहिये कि कलयुग में, बड़ी- बड़ी विदेशी कंपनियों ने हमारी मिठाईयों पर धावा बोल दिया है। आज बाज़ार में विज्ञापन हो रहा है त्यौहार के शुभ मौके पर कुछ मीठा खाने का। मीठा मतलब चॉकलेट। अब भला दिवाली का चॉकलेट से क्या लेना- देना। पप्पू पास हो गया तो चॉकलेट, पप्पू के जन्मदिन पर चॉकलेट, प्यार का इज़हार करना हो तो चॉकलेट, होली आई तो चॉकलेट, दिवाली पर चॉकलेट, ईद पर भी चॉकलेट और क्रिसमस पर तो चॉकलेट ही चॉकलेट। मतलब ये कि मौका कोई भी हो मीठे के नाम पर चॉकलेट खा लीजिये और आनंद लीजिये।

भला ये विदेशी कंपनियां क्या जाने कि हमारी संस्कृति में हर पर्व पर अलग- अलग मिठाइयां होती हैं– चाहे होली हो, दिवाली हो या फिर ईद। हर पर्व अपनी ख़ास मिठाइयों के लिये जाना जाता है, लेकिन दिवाली और श्री राम के प्रति आस्था का इतना बाज़ारीकरण हो जाएगा यह देखकर स्वयं भगवान को भी ताज्जुब ही होता होगा। श्री राम हमारी आस्था के प्रतीक हैं। हमारी आस्था का इतना बड़ा बाज़ारीकरण दिवाली पर ही देखने को मिलता है। हे राम !

लीजिये, खाने- पीने की बात चली तो मेला पीछे ही छूट गया। चलिये मेले में वापस चलते हैं। लेकिन ये क्या, मेले पर भी बाज़ारीकरण का साया ! तरह-तरह के मिट्टी के खिलौने– तोता- मैना, कबूतर, खरगोश, गुड्डा- गुड़िया, सिपाही और न जाने कितने ही छोटे- बड़े खिलौने पारंपरिक मेलों की शोभा बनते हैं। इसके अलावा मिट्टी के दिये, लक्ष्मी- गणेश, भिन्न- भिन्न डिज़ाइन के मंदिर आदि तो हर किसी को चाहिये।

लेकिन बदले दौर में ऐसा कुछ नहीं है। अब दिवाली का मेला सड़क किनारे नहीं लगता। बहुत प्लानिंग से इसका आयोजन किया जाता है। प्रवेश के लिये टिकट लगता है और प्रवेश के बाद उन सभी चीज़ों की प्रदर्शनी लगती है जिनका दिवाली की परंपराओं से दूर- दूर तक कोई नाता नहीं। न ही खील- बताशे हैं, खिलौने हैं भी तो अलग ही तरह के और बहुत महंगे और लक्ष्मी- गणेश, मंदिर तो एक भी दुकान पर नहीं मिलते। वाह रे दिवाली मेला, सोचता हूं अगर श्री राम भी इन मेलों में एक बार घूम जाते तो क्या इनमें दोबारा आना पसंद करते।

सचमुच दिवाली बदल गई है। अब ये त्यौहार कम है, बाज़ारीकरण और कमाई का ज़रिया अधिक। साल भर में एक बार आने वाले इस त्यौहार को हर कोई भुना लेना चाहता है— कंपनियां ढेरों विज्ञापन और डिस्काउंट के ज़रिये सारा माल इसी समय बेच लेना चाहती हैं। अख़बार के पन्नों में ख़बर कम और विज्ञापन ज़्यादा मिलेंगे। लोग भी पीछे नहीं हैं। साल भर की बचत इसी समय खर्च करते हैं और कंपनियों के ‘ऑफर’ का फायदा उठाते हैं। दिवाली का मतलब तो अब घर की खरीददारी से कम, फायदे- नुकसान से ज़्यादा है।

समय तेज़ी से बदल रहा है। बदलाव अच्छा लगता है लेकिन अफसोस तब होता है जब परंपराओं को मनाने में परंपराओं की ही कुर्बानी दे दी जाती है। लेकिन ये कलयुग है भगवान। जय श्री राम, शुभ दीपावली !
**************************


NOTE

Copy/ Paste following link to read my another related Blog in English:

'FEVERISH ABOUT MELA'

http://apurvaopinion.blogspot.com/2018/10/visiting-mela-in-ramlila.html