May 14, 2024

फटाफट चाट

 


स्नैक्स



प्रकृति राय/ PRAKRITI RAI

चाट-पकौड़ी किसे नहीं पसंद, हम सभी बहुत चाव से खाते हैं. हमारे यहां की चाट है ही कुछ ऐसी कि एक बार खाओ तो खुद को रोक नहीं पाओगे.

यूं तो चाट खाने हम लोग अधिकतर बाहर ही जाते हैं. उत्तर भारत के लगभग हर छोटे-बड़े शहर में चाट मिल जाती है. अलग-अलग जगहों पर चाट खाने का मज़ा अलग है क्योंकि हर जगह इसे बनाने का तरीका कुछ-कुछ अलग होता है और स्वाद भी अलग. वैसे हम लोग जिस शहर में रहते हैं वहीं पर चाट खाने के हमारे पसंदीदा प्वाइंट्स बन जाते हैं.

बाहर चाहे जितना भी खा लीजिये तसल्ली घर पर ही होती है जब आप जी भर के चाट खाते हैं, फुर्सत में और घर के आराम के बीच. दिक्कत यही होती है कि चाट बनाने और खाने का कार्यक्रम थोड़ा झंझट भर होता है जिसके लिये तैयारी पहले से करनी पड़ती है. आजकल की व्यस्त ज़िंदगी में कई बार ऐसा होता है कि हम पहले से पूरी प्लानिंग नहीं कर पाते. ऐसे में कई बार मन मारकर रह जाना पड़ता है.    

एक रोज़ मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. घर में खाने-पीने की चर्चा हो रही था और इसी बीच चाट का भी ज़िक्र आया. अब सभी का मन कर गया कि चाट खाई जाए और वो भी घर पर. मेरी रसोई में कोई तैयारी नहीं थी पर बुनियादी सामग्री लगभग सभी थी. ऐसे में मैंने कुछ घंटे का समय मांगा और वादा किया कि आज शाम चाट-पार्टी होगी. वादा तो कर लिया पर वक्त कम था. परिवार के सदस्यों ने भी कोई बड़ी डिमांड नहीं रखी और कहा कि जो कुछ भी हो जाए कर लें जिससे मन की इच्छा पूरी हो जाए.

सामग्री की तैयारी

मेरे पास सफेद मटर थी जिसे मैंने तुरंत भिगो दिया और बाद में उबालने के लिये प्रेशर कुकर पर चढ़ा दिया. फ्रिज में कुछ उबले आलू रखे थे जिसका इस्तेमाल गोल-गप्पों में भरने के लिए किया जा सकता था. गोल-गप्पे बनाने के लिये सूजी का आटा नहीं गूंथा, बल्कि बाज़ार से रेडीमेट वाले इस्तेमाल किये जो मैं अमूमन अपनी रसोई में रखती हूं. सच पूछें तो मुझे बाज़ार से लाकर तलने वाले गोल-गप्पे बहुत रास नहीं आते पर काम चलाने के लिये बुरे भी नहीं होते. यह भी तय हुआ कि बाज़ार से कुछ समोसे आ जाएं तो साथ ही साथ समोसा चाट का भी लुत्फ लिया जा सकेगा. दही घर में था, धनिया-पुदीना और कच्चे आम की खट्टी-मीठी चटनी भी थी. गर्मी के दिनों में यह खट्टी-मीठी चटनी बनाकर फ्रिज रख देती हूं. आज इसका इस्तेमाल चाट में भी हो गया. गोल-गप्पे का पानी बनाने के लिये जलज़ीरा पाउडर का इस्तेमाल किया पर इसमें थोड़ा पुदीना पेस्ट, भुने ज़ीरे का पाउडर और कच्चे आम को भी मिलाया जिससे स्वाद कुछ बेहतर हो जाए. 

शाम ढल गई थी. मैंने तेल कढ़ाई में गर्म करना शुरू कर दिया जिससे गोल-गप्पे तले जा सकें. मैंने ढेर सारे गोल-गप्पे तल लिये. कुछ बच जाएंगे तो बाद में स्नैक्स की तरह खा लिये जाएंगे. आखिर घर में बनाने-खाने का यही तो फायदा है कि अगले दिन भी स्वाद ले सकते हैं. मटर एक अलग बर्तन में निकाल ली गई जिसे हमने उबले आलू के साथ मिक्स करके गोल-गप्पे में भरने के लिये इस्तेमाल किया.

बताती चलूं कि उत्तर प्रदेश में गोल-गप्पे में भरने के लिये उबली सफेद मटर का प्राय: इस्तेमाल होता है. दिल्ली में उबले आलू और उबले काले चने भरे जाते हैं. मैंने चेन्न्ई में भी गोल-गप्पे खाए हैं और वहां भरने के लिए बारीक कटी प्याज़ का इस्तेमाल देखने को मिला.  

दही को फेंटकर थोड़ा ढीला किया गया. चटनी निकाल दी गई. मेरी रसोई में इस बार सोंठ की चटनी नहीं थी और इतना वक्त भी नहीं था कि इसे बनाया जा सके. अगर पहले से प्लानिंग कर लें तो बेहतर होगा आप सोंठ की चटनी बना लें जिससे स्वाद और बढ़ जाएगा. मेरा बेटा बाज़ार से इमली चटनी या सॉस लाकर फ्रिज में रखे रहता है और कभी मठरी वगैरह के साथ खाता है. आज यह बहुत काम आई. एकदम सोंठ की चटनी का स्वाद तो नहीं देती पर बहुत हद तक स्वाद दे जाती है. इन सबके बीच बाज़ार से गरमागरम समोसे भी आ गए. अब क्या, बस खाने का इंतज़ार था. 

इस तरह से आज मेरी रसोई में झटपट चाट का कार्यक्रम बना और अंजाम तक पहुंचाया गया. इसके बाद तो लोगों ने जमकर गोल-गप्पे का स्वाद लिया और कोई नहीं बोला कि आटे के खाने हैं या कि सूजी के. एक सबसे महत्वपूर्ण बात और वो ये कि गोल-गप्पे गिनती करके नहीं खाए-खिलाए गए बल्कि यह कहकर खाए-खिलाए गए कि दो-एक और लो भाई. दुकान में एक-एक गोल-गप्पे की गनिती होती है और कई बार तो झगड़ा भी हो जाता है कि एक कम खिलाया. बाज़ार में रेडीमेड पापड़ी भी मिल जाती है. एक पैकेट वो भी मंगवा ली थी. अब तैयार हो गई थी पापड़ी-चाट.

समोसा चाट भी दिलचस्प रही. मैंने तो अलग से मटर की चाट भी खाई. उबली मटर में दही-चटनी मिलाकर बाज़ार के सेंव ऊपर से छिड़क दिये, थोड़ा प्याज़ काटकर लाई थी और उसे भी मिला दिया. अब मुझे मिला एक अनोखा, नया स्वाद; ऐसा स्वाद जो चाट की अच्छी से अच्छी दुकान में भी नहीं मिलेगा. कितनी जल्दी में कितना स्वाद निकल आया था आज मेरी रसोई में, सोचकर अचंभा ही हो रहा था. लोगों ने जी भरके और पेट भरके खाया; चाट की दुकान में इतना खाना हो ही नहीं सकता, यकीन मानिये.

वैसे सच पूछें तो चाट फुर्सत से आनंद लेकर खाने की चीज़ है. चाट का मज़ा तो तभी है कि स्वाद आए, पेट भर जाए पर जी न भरे और जेब पर भी वज़न न पड़े. यह भी सच है कि इन दिनों चाट इतनी महंगी हो गई है कि पूरे परिवार के साथ बाज़ार में खाना मुश्किल लगता है. इतना सब तो सिर्फ घर पर ही हो सकता है. विश्वास नहीं करेंगे खत्म करते-करते करीब दो घंटे बीत गए और वक्त का पता हीं नहीं चला.

हंसते-खाते एक खूबसूरत शाम की तैयारी पूरी हुए आज मेरी रसोई में. एक छुट्टी का बढ़िया इस्तेमाल हुआ और यादगार खाना-खिलाना हुआ.


May 09, 2024

सत्ता में सियार !


व्यंग्य


अपूर्व राय
/  APURVA RAI

कई बार अख़बार में पढ़ा कि फलाना अफसर के घर से करोड़ों रूपए, गहना-जेवर, दूसरे महंगे सामान बरामद हुए. इतना ही नहीं अलग-अलग जगहों पर कई-कई मकान होने का भी पता चला (वैसे ब्लैक मनी से अनेकों मकान खरीदने का चलन सबसे ज़्यादा है). यह भी हम सब पढ़ते रहते हैं कि किसी नेता के पास भी करोड़ों की जायदाद है भले ही कागज़ कुछ और कहते हों. एक दिन एकांत में बैठकर सोच रहा था कि आखिर माजरा क्या है. अंत में एक बात समझ में आई कि सारा खेल सत्ता, यानि, पावर का है. 

कुछ ऐसे भी कहा जा सकता है कि जहां सत्ता हाथ में आई, गड़बड़ हुई. किसी सरकारी दफ्तर में काम पड़ जाए तो अफसर क्या, क्लर्क तक अपनी ताकत जता ही देता है. इसका तजुर्बा हम सभी को है किसी न किसी रूप में. सत्ता यानि पावर अपना रंग दिखाती ही है चाहे वो सरकारी दफ्तर हो या कॉरपोरेट. पावर किसी करेंट से कम नहीं. वो झटका देती है, दिखती है और महसूस भी होती है-- कभी किसी को तंग करके, कभी ऊपर की कमाई से और कभी किसी अपने पर कृपादृष्टि के ज़रिये. (कुछ अपने तो जगजाहिर होते हैं, और कुछ यह दर्जा प्राप्त कर लेते हैं अपनी अजब कला से.) गजब तो तब हो जाता है जब कमाई भी होती है, दूसरे को तंग भी किया जाता है और अपनों पर मेहरबानी की बरसात भी की जाती है. मतलब तीनों काम एक साथ. है न गजब की मल्टीटास्किंग ! (मोदी जी खामखां स्किल इंडिया का नारा देते रहते हैं. ऐसा वंडरफुल स्किल तो अपने यहां पहले से ही मौजूद है.) यह सब करने के बावजूद तुर्रा ये कि हम मेहनती हैं और कल्याण की भावना रखते हैं. मुझे तो कई बार सुनने को मिला, ‘believe me, I am your well-wisher’. पता नहीं कैसे हितैषी थे !

टीम में रखें हीरे 

इन सबसे ऊपर की एक बात और. वह ये कि ऐसी कौम बहुत मेधावी होती है ऐसी ज़रूरी नहीं. उनकी सारी ऊर्जा, दिमाग और काबिलियत बस यह गणित बैठाने में लगती है कि कैसे अपना खुद का फायदा हो जाए और नाम, सम्मान के साथ-साथ यश का सेहरा भी बंध जाए. इस गणित का एक सीक्रेट है— टीम में चंद काबिल लोगों को शामिल कर लो और फिर चांदी ही चांदी. वैसे अब यह सीक्रेट कम और मैनेजमेंट का अभेद फॉर्मूला अधिक माना जाता है. अमूमन हर संस्था में ऐसे चंद लोग मिल ही जाते हैं. बेचारों की किस्मत देखिये... दिन-रात खटते रहते हैं, नया-नया काम करते हैं, नई सोच, नई दिशा दिखाते हैं पर फिर भी कभी यश और धन के पात्र नहीं बन पाते. अपने संस्थान का महत्वपूर्ण हिस्सा ज़रूर रहते हैं पर पूछे तभी जाते हैं जब काम पड़ता है. वरना तो रोज़मर्रा की दिनचर्या है, अपना-अपना काम है. और हां, ये चमचों की श्रेणी में नहीं आते. ये बॉस की मीरा कहीं से नहीं होते, इनका अलग ही क्लास है. 


हम सभी ने अपने-अपने जीवन में ऐसा देखा है और महसूस भी किया है. कभी आप इसके भुक्तभोगी हुए होंगे या फिर आपने रिश्तेदारों, मित्रों, पड़ोसियों से ऐसे तमाम किस्से सुने होंगे. और कुछ नहीं तो आपके बच्चों को ऐसा तजुर्बा ज़रूर हुआ होगा जिसकी चर्चा उन्होंने आपसे की होगी और आपने बच्चों की एडजस्टमेंट और खड़ूंस बॉस की बुराई का ढिंढोरा पूरे जग में पीटा होगा. कुल मिलाकर ये कि हममे से कोई इससे अछूता नहीं. 

मेरा स्वयं का भी तजुर्बा कुछ अलग नहीं है. बहुतों को टॉप पर आते देखा. पहला काम मीटिंग बुलाई और सबकी तारीफ कर दी. अब चंद लोगों को ज़िम्मेदारी की भूमिका क्या दे दी कि आपका
सीना फूल गया. आप महसूस करने लगे कि वाह टॉप बॉस की नज़रों में आप ही आप हैं. अब क्या आपने दिन दूनी- रात चौगुनी मेहनत करनी शुरू कर दी. अच्छे नतीजे मिलने लगे. दोबारा मीटिंग बुलाई गई आपकी भूरी-भूरी प्रशंसा हुई. इस मीटिंग में तीन-चौथाई लोग तो आपसे जल-कुढ़ गए और आपके पक्के दुश्मन बन गए. लेकिन आपको क्या फर्क पड़ता है, आपका स्थान तो बॉस की नज़रों में बहुत ऊंचा है. अब खेल देखिये... अच्छे नतीजों का सेहरा बॉस के सर बंधा पर आपको क्या मिला. तारीफ के दो शब्द
! कुर्सी किसकी बची ? उनकी. तरक्की के लिए सबसे ऊपर नाम किसका गया ? उनका. सुविधाएं किसकी बढ़ीं ? उनकी. अब आप कहां? वहीं, जहां थे. जस के तस. 

हम सबके निजी जीवन में सत्ता का ऐसा खेल किसी के लिये फायदेमंद और किसी की नींद उड़ाने का काम करता है. और सत्ता में बैठा व्यक्ति मेधावी हो न हो, होशियार ज़रूर है. पूरी मलाई उसके पास. किसी ख़ास की बात क्या करें, उदाहरण तो हम सबके पास हैं. कोई नई बात नहीं है... सदियों से चली आ रही है. 

उसने पुकारा और हम चले आए

मुद्दा यह है कि आखिर यह विचार मेरे ख़्याल में आया क्यों

हुआ यूं कि बीते दिनों के एक साहब से अचानक मुलाकात हो गई. अकेले ही मॉल में कुछ खरीददारी करने आए थे. दूर से देख लिया और पुकारा. मेरे संस्कार मुझे इजाज़त नहीं देते कि कोई पुकारे तो अनसुना कर दूं. मैं उनकी तरफ बढ़ गया, हालांकि मुझे ऐसा करना नहीं चाहिये था. एक समय था जब अपनी पावर बनाए रखने के लिए वो कुर्सी से चिपक गए थे. हमसरीखों को नहीं दिखेगा पर कुर्सी और पावर को बचाए रखना आसान नहीं. कौन-कौन से पापड़ नहीं बेलने पड़ते, क्या-क्या वादे नहीं करने पड़ते और कितनी एड़ियां रगड़नी पड़ती हैं. पांव में छाले भी पड़ ही जाते होंगे, पर, शुक्र है वो दिखते नहीं. लोगों ने तो और भी बहुत कुछ बतलाया पर सब सुनी-सुनाई थी इसलिये यहां कुछ नहीं कहूंगा. पर आप सब समझदार हैं. इशारा भर ही काफी है. आखिर कुर्सी का महत्व भी इसीलिये है कि वो आपको पावर देती है. मैं जिन साहब की आवाज़ सुनकर रुका और उनके पास चला गया वो इसका जीवंत उदाहरण थे. 

वो मेरी तारीफ के पुल बांधते नही थकते थे, पर मलाई उन्हें ही मिलती थी. कहीं का दौरा हो तो वो जाएंगे, वीआईपी मीटिंग में वो ही जाएंगे, निर्देश जारी वो करेंगे और हम पालन करेंगे, सबसे ज़्यादा पावर उनके पास होगी, मोटा पैकेट उन्हें ही मिलेगा, गाड़ी-घोड़ा, घर-बार और चाटुकार भी उनके. हम बस छोटी-मोटी रेवड़ी में ही खुश रहे. उम्मीदों की लहरें हमारे अंदर भी जोर मारने लगी थीं. संत नहीं हैं हम, ख्वाहिशें हमारी भी हैं. सोचते थे कि खुद ही हमें भी एक-दो पायदान ऊपर उठा देंगे. आखिर काम की ज़िम्मेदारी तो हमारे ही सर थी न इसलिये रिवार्ड्स का ख़्याल भी आता था. पर कभी कहा नहीं. पता नहीं कौन सी बात थी जो हमें कुछ मांगने और कहने से रोकती थी. अब हुआ उलट. कुछ चाटुकार पोजिशन पा गए और हम काम ही करते रह गए. इस तरह के लोग हम जगह मिल जाएंगे जो दिन-रात काम करेंगे पूरी ज़िम्दारी के साथ, नया-नया आइडिया देंगे, छुट्टी भी कम से कम लेंगे वगैरह, वगैरह. 

पर आज मॉल में मिलना, उनका अकेलापन और मुझसे दिल खोलकर बातें करना एक अलग ही कहानी कह रहा था. एक समय में सत्ता के मद में झूमने वाले शख्स का सारा नशा आज उतर चुका था. पहली बार उनकी बातों में निस्वार्थ भाव देखा और कहीं अफसोस भी महसूस किया. कुछ बातें कही नहीं जातीं और कुछ बातों का ज़िक्र भी नहीं किया जाता. लेकिन न जाने कैसे वो बातें हो भी जाती हैं जो दिलों के अंदर रहती हैं और ज़ुबान तक पहुंच नहीं पातीं.

सत्ता के मद, कुर्सी की अटूट ख्वाहिश, चमचों की चाश्नी भरी दुनिया का अनुभव हम सभी को है. अंग्रेजी में इसे ही कहते हैं first-hand experience. ऐसे ही पावरफुल, खुदगर्ज़, चालाक और जगभलाई के नाम पर खुद की भलाई सोचने वाली कौम की ही तुलना सियार से की गई है. ऐसे सियार जिनके आगे शेर भी हो जाते हैं ढेर. अब कोई इससे अछूता हो तो निराला ही कहलाएगा. एक फिल्मी गाने की पैरोडी एकदम सटीक बैठती है, हम हैं चमचे सत्ता के, हमसे कुछ न बोलिए. जो भी सत्ता में आया हम उसी के हो लिए.. हम उसी के हो लिये.

सत्ता के कई सियार हमने अपने इर्द-गिर्द देखे हैं. कुछ ऐसे भी हैं जिनको देखा तो नहीं पर नज़दीक से महसूस किया. और कुछ ऐसे भी हैं जिनके बारे में अखबारों में पढ़ा, टीवी पर न्यूज़ में देखा और ट्रेन के सफर में लोगों को चर्चा करते हुए भी सुना.

आपके शहर में भी हैं और देश में भी

बात उन बड़े-बड़े अफसरों की जिनकी एक अलग दुनिया है. ये वो लोग हैं जो हमारे-आपके बारे में ही सोचते हैं, काम करते हैं और बेहतरी के नए-नए तरीके ढूंढते रहते हैं. बड़ी ज़िम्ममेदारी होती है इनके कंधों पर. और इन ज़िम्दारियों को निभाने के लिए खूब पावर भी मिलती है. खर्चे के लिए बजट भी मिलता है. कष्ट तो तब होता है जब जनता को समझने वाले जनता के बीच ही नहीं दिखते. थोड़ा भी अच्छा किया कि तारीफ के पुल बांध देते हैं लोग... वाह ज़िले को चमका दिया. वैसे चमकाने वाले कम ही सुनाई पड़ते हैं. 

यह अफसरी पाना आसान नहीं. बहुत मेहनत, लगन, निष्ठा और प्रतिभा के साथ-साथ किस्मत का भी साथ चाहिये. पढ़ाई के दिनों में पावर पोजिशन हासिल करने की चाहत में चुटिया बांधकर टेस्ट निकालते हैं. अब एक बार अफसर बन गए सो बन गए. जब तैयारी चल रही थी तब समाज-सेवा और देश के लिए कुछ कर दिखाने का भाव हिलोरें मार रहा था. सेलेक्शन होने के बाद सब फुर्र ! अब रुतबा है, पोजिशन है, सत्ता यानि पावर है और सुख-सुविधा है. पैसा भी है पर इसकी बात करना ठीक नहीं. कहीं पर आपको साहब कहा जाता है, कहीं हुज़ूर तो कहीं मालिक. कुर्सी मिली तो सत्ता भी हाथ आ गई और जी हुज़ूरी करने वालों का भी तांतां लग गया. सबकी बात करना उचित नहीं होगा पर कुछ अफसरों ने पूरी जमात को ही बदनाम करके रख दिया. नेताओं के साथ सांठ-गांठ, पावर का फायदा, रुपयों की हेराफेरी, सुविधाओं का भरपूर लाभ और न जाने क्या-क्या, कैसे-कैसे. जब ख़बर सुर्खियों में छपी तो पता चला कि हमारे ही शहर का कल्याण करने वाले जी भरके अपना ही कल्याण कर रहे थे. बहुतों के बारे में पढ़ा होगा अख़बारों में. यही हैं सत्ता के सियार और अजब है सत्ता की दुनिया. कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है कैसे इतना बदल गई इनकी सोच? क्यों भुला दिया तैयारी के दिनों के वसूलों को? और सबसे बड़ी बात कि कितना कमाना चाहते थे? अगर तिजोरी ही भरनी थी और अपनों को ही फायदा करवाना थो तो फिर यही रास्ता क्यो चुना? कुछ और भी तो सोच सकते थे


शहर के अफसरों से छुट्टी मिले तो आपका राज्य और राष्ट्र चलाने वालों की तरफ भी देख लीजिये. ये लोग नेता कहलाते हैं और टॉप पोजिशन, टॉपमोस्ट पावर पर ही यकीन रखते हैं. इससे नीचे कुछ मंज़ूर नहीं. सबसे ऊंची कुर्सी, सबसे ताकतवर पोजिशन, वीआईपी स्टेटस और जलवा इनकी पहचान है. जब सड़क पर चलते हैं तो इनकी गाड़ी की रफ्तार आपको इनका परिचय दे देगी, किसी समारोह में पहुंचे तो इनकी तारीफ के पुल बांध दिये जाएंगे, कोई जाने या न जाने पर चरण स्पर्श सब करते दिखेंगे, इनकी सीट जनता की सीट से अलग होगी, खाना जनता के खाने से अलग होगा. यही हैं सत्ता के सियार. पोजिशन बनाने के लिए साम-धाम-दंड-भेद कुछ भी अपना सकते हैं. जनता के सबसे बड़े शुभचिंतक, पर असलियत में अपनी चिंता सबसे ज़्यादा. 

बहुतों का जीवन ही इसी में बीत गया. उनकी ज़िंदगी नेतागिरी में बीती सो बीती बच्चों को भी सी दुनिया का रास्ता दिखा दिया. शायद सफलता के दूसरे रास्ते कठिन थे और कड़ी मेहनत और प्रतिभा मांगते थे. बेचारे लाडले कहां से करते ये सब. इन्होंने तो सत्ता का लुत्फ बिना सत्ता प्राप्त किये उठाया है.

सत्ता और सफलता का शॉर्टकट आपसे बेहतर कौन जानता है. गोटी बैठाना भी आपसे बेहतर कोई नहीं जानता. तो फिर क्या है, सत्ता का दामन थामे रहो, फायदा पहले दिन से मिलेगा और एक दिन कुर्सी भी मिल जाएगी. एक बार कुर्सी मिलने भर की देर है, ऐसा चिपकेंगे कि उतारे नहीं उतरेंगे. कुर्सी पर बैठे नहीं कि बन गए Yes Minister. पावर का असली मज़ा तो यही वर्ग उठाता है. क्या अफसर, क्या कोई दूसरा. सारी दुनिया आपके पीछे. भले ही कुर्सी कुछ वर्षों के लिए मिलती है पर आनंद जीवन भर का दे जाती है. मिनिस्टर के जलवे क्या कहने. कोई रोकटोक नहीं. कहते हैं न ‘Power corrupts and absolute power corrupts absolutely’. कितना सटीक बैठता है सत्ता के इन सियारों पर.

पोल तो तब खुलती है जब कोई फंस जाता है और मामला उछल जाता है. अखबार में सुर्खियां आपकी मेहनत की कहानी बयान करती हैं तो पता चलता है आप कितने यशस्वी थे. कितने ही पावरफुल मिनिस्टर आए और गए. कभी कोई जनता के बीच नहीं दिखा, न सत्ता के रहते और न सत्ता छिनने के बाद. आप किसी ऐसे मेहनती मिनिस्टर को जानते हों जिसका निवास आपके आस-पड़ोस में हो ता ज़रूर बतलाइयेगा. धन्य जाएंगे हम. आपको कभी कुछ ऐसा याद पड़ता है कि आप किसी रेस्टोरेंट में खाना खाने गए हों और कोई मिनिस्टर सामने वाली टेबल पर बैठा हो ? या फिर कभी मोहल्ले की टेयरी शॉप पर कोई विधायक तैला लेकर दूध लेने आया हो ?

इनकी तो छोड़िये इनके सुपुत्रों के कारनामों के किस्से भी कम नहीं हैं. आप भी दो-चार जरूर जानते होंगे. नहीं जानते होंगे तो ऐसे सुपुत्रों के बारे में चर्चा ज़रूर सुनी होगी या फिर कहीं पढ़ा होगा. मतलब ये कि बाप के पास सत्ता और मद में पुत्र. देखिये सत्ता का कमाल, महसूस कीजिये सत्ता के सियारों का जलवा !


काम करने वाले जीतें हैं शान से

मेरे ख़्याल में बार-बार यही आता है कि भला आप और हम सत्ता के पागलपन का रस चखने से कैसे चूक गए. मेहनत करने में हमने कौन सी कमी की. काम ऐसा करते रहे कि इन सियारों को हम पर फक्र रहता था. आखिर कौन सी बात थी कि हम और आप सत्ता के पास होकर भी मलाई खाने से रह गए. कोई कमी थी क्या? शायद थी. हम काम जानते थे, यशस्वी थे, एक स्तंभ की तरह डटे थे, योग्यता थी जिसका फायदा उठाना उसूलों में शुमार नहीं था, शेर की तरह 56 इंच का सीना लिए फिरते थे, निडर थे, मन में ख्वाहिशें ज़रूर थीं पर लोभ नहीं था, अपने आसपास लोग पसंद थे पर चाटुकार नहीं.

मशहूर साहित्यकार हरिशंकर पारसाई का कहना गलत नहीं है कि सियारों की बारात में शेर ढोल बजाते हैं”.

मैंने शेरों की जमात में खड़ा रहना पसंद किया. जीवन में ख़्वाहिशें ज़रूर पालीं पर सियार कभी नहीं बनना चाहा. पारसाई जी ने जो कुछ  कहा वो यथार्थ है, सच्चाई है. पर यह भी सच्चाई है कि मुझ जैसे शेर न हों तो सियारों की बारात भी नहीं सजेगी.

मैंने और मुझसरीखे ढेरों लोगों ने शेर की ज़िंदगी बिताई है. सियार कोई था तो वो कोई और था. दोनों में दोस्ती नहीं हो सकती. यही वजह है सियार अपनी जगह हैं जो मुंह चुराए घूमते हैं, कोई नया काम मिलते ही बगलें झांकने लगते हैं और तलाशने लगते हैं ऐसे लोग जो उनका मान बनाए रखें. उधर शेर सीना ठोंक कर घूमते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है उनकी जगह कोई नहीं ले सकता. मैं शेर था इसीलिए मॉल में पुराने सियार के पुकारने पर मिलने चला गया. मैं जानता था उसे मेरी ज़रूरत आज भी है, मुझे उसकी नहीं. मुझे पहचानना उसकी मजबूरी थी, उसे मैं पहचानूं यह ज़रूरी नहीं. मेरे ख़्याल से !

सुनिये एक खूबसूरत और ज़बरदस्त नग़मा हिंदी फिल्म इज़्ज़्त’ (1968) से:






January 11, 2024

गजब की है सर्दी !

 


अपूर्व राय/ APURVA RAI

सर्द मौसम है. भयंकर ठंड पड़ रही है; पूरा शरीर ऐसे कांप रहा है जैसे जेठ की दुपहरी में गर्म हवा के झोंकों के बीच पेड़ पर लटका हुआ एक पत्ता. दो-दो स्वेटर पहने हुए हैं पर फिर भी कंपन थम नहीं रहा. बाहर ज़बरदस्त कोहरा है, कई दिन हो गए सूरज के दर्शन नहीं हुए. दोपहर होते-होते शाम का एहसास होने लगता है और शाम ढलते-ढलते रात का एहसास. रात तो लंबी होती ही है लेकिन राहत इस बात की है की रजाई का सुखद अहसास सारे कष्टों को हर लेता है. गजब है जाड़े का मौसम.

लेकिन अजब हाल है. इधर धूप नहीं निकल रही, कोहरे की घनी चादर छाई हुई है और कुछ सूझ नहीं रहा है. शरीर गर्म कपड़ों से लदा है मगर फिर भी कांप रहा है और मौसम विभाग कह रहा है तापमान सामान्य से दो डिग्री अधिक है. मतलब ये कि अभी ठंड कम है. सोच-सोच कर डर लग रहा है कि तापमान और गिरा तो जाने क्या होगा; जान ही निकल जाएगी.

अभी कितना कष्ट का अहसास हो रहा है. सच पूछिये तो कितने इंतज़ार के बाद आया है जाड़े का मौसम. दोपहर में खिड़की के पास बैठा दूर तक फैले कोहरे को देख-देख मेरे मन में ख़्याल आ रहा था मई-जून के महीने का. सुबह उठते ही तेज़ धूप से मन घबरा उठता था और सोचते थे कब आएगी सर्दी और हम बिना पसीने के बाहर घूमने जा पाएंगे. सच ही है वक्त कभी एक सा नहीं रहता और मानव मन कभी संतुष्ट नहीं होता. मई-जून में सर्दी चाहिए थी और अब दिसंबर-जनवरी में गर्मी. गर्मी थी तो एयरकंडीशनर ढूंढ रहे थे और अब सर्दी में हीटर. किसी भी सूरत में चैन नहीं है. इंसान की फितरत ही ऐसी है कि जो पास में है उससे खुश नहीं और जो दूर है उसकी ख्वाहिश में परेशान है.   

बहरहाल बड़े इंतज़ार के बाद जब सर्दी आ ही गई है तो उसका लुत्फ तो उठाना ही चाहिए. ऐसा नहीं है कि जाड़े में सिर्फ कष्ट ही कष्ट है, जाड़े के अनेकों लाभ भी हैं और इसका अपना मज़ा भी है. याद आती है ग्रीष्म ऋतु जब पसीने से लतपथ बाज़ार से लौटते हुए सोचते थे कि सर्दी आएगी तो बढ़िया कपड़े पहनकर इसी बाज़ार में दोबारा आएंगे, खूब घूमेंगे, गरम-गरम आलू टिक्की खाएंगे, हॉट कॉफी पियेंगे और शॉपिंग कम, विंडो शॉपिंग अधिक करेंगे. सच मानिये सर्दियों में बाज़ार की रौनक कुछ अलग ही होती है और माहौल खुशनुमा रहता है. कुछ खरीदिये चाहे न खरीदिये मगर बाज़ार का एक चक्कर लगाना, कैफे में कॉफी की चुस्की और खुले पार्क में बैठकर धूप का आनंद लेना एक अलग ही अहसास देता है. अपनी बात कहूं तो मुझे सर्दी की दुपहरी में कनॉट प्लेस जाना सबसे अच्छा लगता है. मूड फ्रेश करने के लिए इससे अच्छी दवा और क्या हो सकती है. 

पड़े रहिये रजाई में

सर्दी की सबसे वफादार और सबसे ज़्यादा साथ निभाने वाली वस्तु का नाम है रजाई. छुट्टी वाले दिन तो रजाई से कौन निकलता है. किसी तरह मुंह-हाथ धोकर आए और फिर रजाई में घुस गए. वहीं नाश्ता, खाना, पढ़ना-लिखना और फिर मुंडी अंदर करके लुढ़क जाना. जानिये कि सभी क्रियाएं रजाई के अंदर. कई बार तो रजाई में भी आप पूरा पैर फैलाकर नहीं सो पाते, बस एक करवट सिकुड़े पड़े रहते हैं और रात बीत जाती हैं. सिकुड़े रहने पर आधी ही रजाई गर्माहट देती है और बची आधी में गलती से भी पैर चला गया तो ठंड का ऐसा करेंट लगता है कि बस पूछो नहीं. नींद ही टूट जाती है जो ढेरों कोशिशों के बाद और अपनी पोजिशन एक बार फिर दुरुस्त करने पर ही वापस आती है. कुछ लोग तो रजाई को ऐसा लपेट कर सोते हैं कि सिर्फ नाक ही बाहर रहती है और रातभर इतना बजती है कि बगल वाला अपनी रजाई कान से हटा ही नहीं पाता.   

खाने-पीने का मज़ा

सर्दी आई तो जानते हैं सबसे बड़ी बात क्या हुई ? अरे भाई, रोज़-रोज़ लौकी, टिंडा, तरोई और परवल जैसी भयंकर सब्ज़ियां खाने से निजात मिल गई! पूरी गर्मी यही दो-चार सब्ज़ियां घूम-फिरकर थाली में सामने आती थीं. डॉक्टर भी कहने लगा आखिर कितना लौकी, परवल खाओगे. अभी ब्रेक मिल गया है. कुछ समय तक इनके दर्शन नहीं होंगे. बड़ी राहत है भइया! इन दिनों टोमैटो सूप पी रहा हूं, पालक-पनीर खा रहा हूं, गोभी-मटर की तहरी और फिर परांठों का स्वाद तो बस छाया हुआ है. सरसों का साग और मक्की की रोटी तो साल में एक बार ही खाने को मिलती है. बाजरे की रोटी और साग वाली दाल के क्या कहने. भोजन के बाद गुड़ की एक डली जो मुंह में घुली तो मानिये स्वर्ग की प्राप्ति हो गई.

 

सर्दी में खाने की बात चली तो हरी मटर का ज़िक्र कैसे न हो. रोज़ ठेली में भरकर हरी मटर बेचने आ जाता है और आवाज़ लगाकर दाम बताता है तो कैसे रुक सकते हैं. सर्दी बढ़ती जाती है, मटर के दाम घटते जाते हैं और हमारे कदम आगे-आगे ठेले की तरफ भागते जाते हैं. बस रोकती हैं तो श्रीमती जी. ठेले वाला जानता है मटर साहब की कमज़ोरी है. सुनेंगे दाम कल से आज कम हैं तो खरीदेंगे ही. उस दिन भी ऐसा ही हुआ. मटर की फलियां एकदम हरी दिख रही थीं, लंबी-लंबी और मोटी-मोटी. बोरा भरा हुआ था, दाम घटा हुआ था. यह सब देख मन ललचाया हुआ था. मैंने कहा दे दो भाई चार किलो. लेकिन पत्नी ने ऐतराज़ जताया और कहा दो किलो ही चाहिए. हमने भी अपना ज़ोर चलाया और कहा नहीं, दाम गिरा हुआ है चार किलो ले लो ना, चार पैसै बचेंगे ही. तुरंत ही पलटकर जवाब आया अगर चार किलो आज ही अकेले छील सको तो ज़रूर ले लो. हम तो रिटायर्ड ठहरे और वो अभी कार्यरत हैं. लिहाज़ा उनसे छीलने को नहीं कह सकता था. मगर चार किलो आज ही छीलने की बात से डर गया. ठेलेवाला भी चेहरा देखकर माजरा भांप गया और बोला दो किलो आज लो लो, बाकी दो किलो दो दिन बाद ले लेना, रेट यही लग जाएगा. मेरी जान में जान आई. सभी की जीत हो गई... पत्नी की बात रह गई, मेरा मन रह गया और दुकानदार की बिक्री भी हो गई. सब खुश.

बीवी खुश हो गई तो मटर के तमाम व्यंजन भी बनने लगे. नाश्ते में घुघनी और चूड़ा-मटर, खाने में मटर-पनीर और मटर की निमोना. साथ में मिले मटर के परांठे और छुट्टी वाले दिन मटर भरी पूड़ी. और हां, मटर-चावल तो आम बात है, बतलाने की अधिक ज़रूरत नहीं. जब सादा खाना होता है तो मटर का भरता भी बनता है. जब इतना कुछ मिल जाता है और वह भी प्रेम से तो चार किलो मटर छीलने में क्या जाता है. ठीक है न!

जाड़े में खाने के साथ सलाद ज़्यादा ही स्वादिष्ट लगता है. और सलाद का अभिन्न हिस्सा बनती है मूली. बाज़ार से सब्ज़ी आती है तो मूली ज़रूर आती है. मटर की तरह ही मूली के भी कई व्यंजन का स्वाद लिया जाता है. सर्दी आई और मूली के परांठे नहीं खाए तो क्या खाया. हफ्ते में दो बार तो हो ही जाते हैं. कभी-कभी बाज़ार भी जाते हैं परांठे खाने लेकिन मूली के परांठे खाना नहीं भूलते.

सरकारी दफ्तरों में माहौल ठंडा

सरकारी बाबुओं को ठंड कुछ ज़्यादा लगती है. दफ्तर का समय नौ बजे से होता है पर क्या मजाल टाइम से आ जाएं और काम शुरू कर दें. रोज़ कोई बहाना मिल ही जाता है, कभी कोहरा होता है, कभी खुद की और कभी बच्चों की तबीयत बिगड़ जाती है, कभी त्योहार पड़ जाता और कभी फैमिली में शादी-ब्याह. बाबू लोग अगर टाइम पर आ भी गए तो सबसे पहले खाना का डिब्बा बिजली की मशीन में डाला जाता है ताकि चार घंटे बाद लंच पर खाना गर्म मिले. इसके बाद हीटर चलाया जाएगा और हाथ रगड़ कर गर्म किया जाएगा. कहने की ज़रूरत नहीं कि फाइल चलाने के लिए और बिल पास करने के लिए हाथ नहीं मुट्ठी गर्म करने की ज़रूरत होती है. फिर चाहे ठंड कैसी भी हो. मेज़ के ऊपर रखा हीटर हथेली गर्म करता है और मेज़ के नीचे से नगद-नारायण मुट्ठी गर्म करते हैं. सर्दी में गर्मी का खेला. है न कमाल की बात!












दिल्ली में शास्त्री भवन, रेल भवन के आस-पास दोपहर लंच टाइम में कई खाने के ठेले लगते हैं. अभी कुछ कम हो गए हैं पर पहले कई सारे हुआ करते थे. इनमे से एक-दो ठेलों पर सिर्फ मूली मिला करती है. दूसरी जगहें पर भी जहां सरकारी दफ्तर हैं वहां लंच टाइम में बाहर इसी तरह का नज़ारा दिख जाता है. सरकारी दफ्तर इसलिये क्योंकि लंच टाइम के अधिकार का पूरा उपयोग यही लोग करते हैं. लंच टाइम ही क्यों, आधा घंटा पहले से आधा घंटा बाद भी माहौल वही रहता है. सही बात है काम का वज़न कम करने के लिए सरकारी नौकरी और शरीर का वज़न कम करने के लिए मूली. है न गजब जोड़ी!

ज़्यादा भटकते नहीं हैं क्योंकि मूली बुला रही है. छीलकर साफ करके और बीच से कट लगाकर उसमें चाट मसाला भरकर और नींबू का रस निचोड़कर जब आपके हाथ में आती है तो वह मूली नहीं रह जाती, एक लाजवाब व्यंजन बन जाती है. सुनहरी धूप हो और खुला मैदान तो मूली के ठेले पर सबसे अधिक भीड़ लग जाती है. लोग दो-दो खा जाते हैं वहीं खड़े-खड़े. कहते हैं जितना भी गरिष्ठ खाया है वह सब हज़म कर देगी मूली.

मूली के साइड इफेक्ट

जब मूली और मटर इस कदर खाया जाएगा तो इसके साइड-इफेक्ट्स भी होंगे ही. बस इशारा समझ लीजिये कि किसका ज़िक्र हो रहा है. बहुत घातक होता है मूली का असर. खाना कितना पचाती है यह तो नहीं कह सकता पर जब खुद पचती है तो आसपास सभी को हिला देती है. हम सभी के पास इसके किस्सों का भंडार है. सुनने-सुनाने का भी गजब मज़ा है क्योकि हंसी फव्वारे भी इसी से फूटते हैं. बात तो यह है कि मूली एक आदमी खाता है और उसके परिणाम पचीसों को बर्दाश्त करने पड़ते हैं. घर हो या बाहर मूली का प्रसाद बड़ा भयंकर होता है. घर में रजाई बहुत कुछ भीतर ही छुपा लेती है पर अगली सुबह जब रजाई उठाई जाती है तो बिस्तर उठाने वाला या वाली ईनाम के हकदार ज़रूर होते हैं. अब समझ में आता है कुछ लोग हर दूसरे-तीसरे रजाई को खुली हवा या फिर धूप में क्यों रखते हैं. इन दिनों डबल बेड की रजाई या कम्बल बहुत प्रचलित है. हर घर में मिल जाएगा. शाम को पूरा परिवार एक ही बड़ेे से कम्बल में घुसकर टीवी सीरीयल देखता है और मूंगफली खाता है. एक बड़ा कम्बल, कई सारे लोग. कल्पना कीजिये कितने बम चलते होंगे और आखिर में जो ओढ़ कर सोता होगा वो कितना बर्दाश्त करता होगा.

कभी आप ट्रेन में हो या फ्लाइट में और कोई मूली खाकर चढ़ जाए तो बस अपनी किस्मत ही मानिये कि सफर बिना किसी कष्ट के कट जाए. लेकिन ऐसा होता नहीं है. दिल्ली से चलने वाली शताब्दी ट्रेन में सफर करने वाले कई लोग तरह-तरह के किस्से बयान करते हैं ख़ासकर सर्दी के दिनों में. बहुत से यात्री शताब्दी के कोच को गैस चैंबर तक कह डालते रहैं.

एक बार एक बड़े से स्टोर में मैं भी कुछ ऐसे ही हादसे का शिकार बना. पता नहीं कौन था और कितने मूली के परांठे खाए थे, पर साइड इफेक्ट किसी एटम बम से कम न था. देखते-देखते लोगों के रूमाल जेब से निकल कर नाक पर चिपक गए. कोई इधर जा रहा है, तो कोई उधर. जिनके पास किस्मत से पर्फ्यूम की शीशी पर्स में थी उन्होंने तो झट से रूमाल पर छिड़क लिया और बेहतर ऑक्सीजन ले ली. बाकी सब पर तो तरस आ रहा था. मैं तो बेचारे कैशियर को देख रहा था जो कितने कष्ट से अपना काम कर रहा था क्योंकि उसकी मजबूरी थी कि अपनी सीट छोड़ नहीं सकता था. 

एक और आपबीती बतलाता हूं. बात पुरानी ज़रूर है लेकिन कभी भूलती नहीं. नई-नई नौकरी शुरू की थी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की एक न्यूज़ एजेंसी में था. काम करने के घंटे अधिक होते थे जिसकी वजह से अक्सर देर शाम ही घर वापस लौटना हो पाता था. ऑफिस गोल मार्केट में था. घर के लिए बस पकड़ने कनॉट प्लेस आना होता था जहां से उन दिनों नोएडा के लिए चार्रटर्ड बस चलती थी. बात सर्दी के दिनों की है. बस में बैठा और कुछ देर बात ऊंघने लगा. रोज़ की बात थी क्योंकि दिन भर के काम के बाद बहुत थक जाता था. बस खचाखच भरी थी. खिड़कियां बंद और दरवाज़ा भी बंद. एकदम सीलबंद थी बस. इतने में लगा ऑक्सीजन का रंग बदलने लगा है. बदलता रंग दिख तो नहीं सकता था, बस महसूस किया जा सकता था. धीरे-धीरे रंग गाढ़ा होता गया और सांस लेना दूभर होने लगा. इधर मेरी नींद भंग हुई और उधर बाकी पैसेंजर्स की तड़पन बढ़ी. एक साहब ने तो खिड़की खोल दी. अब मिली तड़पन की डबल डोज़. अंदर की ऑक्सीजन दूषित और बाहर से आने वाली बर्फ सी ठंडी. दोनों ही बर्दाश्त की सीमाओं से परे. नाक ढकें या मुंह कुछ समझ नहीं आ रहा था. एक अन्य  साहब ने ऊंची आवाज़ में बड़ा विनम्र निवेदन किया कि जिस किसी ने भी मूली का सेवन किया है कृपया स्वयम् ही उतर जाएं और बाकी के पचास-साठ मुसाफिरों को ठीक-ठाक पहुंचने में सहयोग करें. उन्होंने यहां तक कह दिया कि उन साहब का पूरा किराया वापस कर दिया जाएगा. अगले ही स्टॉप पर चंद लोग उतरे और गनीमत मानिये कि उसके बाद दोबारा खिड़की खोलने की नौबत नहीं आई. साफ हो गया कि उनमें से किसी ने मूली का भरपूर सेवन किया था. किराया किसी ने वापस मांगा नहीं लिहाज़ा पता भी नहीं चल सका किसने भरपेट मूली खाई थी. बचा सफर ठीक से कट गया लेकिन नींद फिर पूरे रास्ते नहीं आई. दो दशक से ज़्यादा बीत गए हैं पर पर इस घटना को भूल नहीं पाता हूं हालांकि अब इस तरह कि चार्टर्ड बसें चलना अब बंद हो गई हैं.  

रोज़-रोज़ नहीं नहाना
गर्मी में जहां एक दिन में दो बार नहाते थे अब दो दिन में भी एक बार नहा लें तो बड़ी बात. जाड़े में बदरी हो जाए और कोहरा घना हो तो बाथरूम का रास्ता कौन देखता है. शीत ऋतु ही कमात्र ऋतु है जो इस बात का ज्ञान देती है कि रोज़ नहाना कितना निरर्थक होता है. पूरी गर्मी दिन में दो-दो बार नहाकर कौन सा कीर्तिमान बना लिया. और सर्दी में बिन नहाए कौन सा गुनाह कर दिया. सब मन की बात है, आपकी सोच है और आपका ही अहसास है. कुछ लोग जो सर्दी में रोज़ नहाते हैं वो इसको कहीं न कहीं, किसी न किसी तरीके से जतला ज़रूर देते हैं. लर्दी में रोज़ नहाने वाले घर से ऐसे तैयार होकर निकलते हैं कि आप समझ जाएं कि वो नहाकर आए हैं. कुछ ऐसे प्राणी भी हैं जो इस बात का दंभ भरते हैं कि वो कुड़कुड़ाते जाड़े में भी ठंडे पानी से ही नहाते हैं. गजब का तर्क होता है भई इनका. कहते हैं के ठंडे पानी से नहाने के बाद ठंड का अहसास नहीं होता, बस पहली बौछार ही थोड़ी तकलीफ देती है. साहब हम तो न ही पहली बौछार में जाने की हिम्मत करते हैं और न ही पानी गर्म करने का कष्ट करते हैं. मुंह-हाथ धो लिया, क्रीम पाउडर रगड़ लिया, पर्फ्यूम छिड़क लिया और गर्म साफ कपड़े पहनकर निकल पड़ते हैं कुछ बहादुरों से निपटने के लिए. सब कुछ अंदर की बात है. मन प्रसन्न रहना चाहिए और हमारा मन तो बिना नहाए ज़्यादा प्रसन्न रहता है. बस फिर ठीक है हम किससे कम हुए.

अभी सर्दी पूरे शबाब पर है. कम होने के आसार कम ही लग रहे हैं. कहते हैं 14 जनवरी को मकर संक्रांति के बाद जब सूर्य उत्तरायन होता है तो ठंड कम होने लगती है. पिछले कुछ सालों से ऐसा अनुभव तो नहीं किया पर फिर भी सबकी बातों का सम्मान करते हैं और मन में सोच लेते हैं ठंड कम हो रही है.

टाइम पास का पूरा इंतज़ाम

सर्दी आई नहीं कि चाय की डिमांड रॉकेट की तरह बढ़ जाती है. हर घंटे-दो घंटे पर थोड़ी चाय. और जब हाथ में चाय का प्याला आ जाए तो कोई न कोई चर्चा छिड़ ही जाती है. फायदा यह होता है कि कुछ बातें बहुत विस्तार से डिसकस हो जाती हैं और सोल्यूशन भी निकल आता है. अनजान जगह पर अनजान लोगों के बीच चाय रिश्ता जोड़ने का काम करती है. कभी-कभार कुछ अच्छे रिश्ते भी इसी बहाने बन जाते हैं. ठंडे मौसम में गर्म चाय का कमाल!

सर्दी का मौसम है. शॉल से ढके आप रजाई में दुबके पड़े हैं. सामने टीवी पर फिल्म चल रही है. और इतने में एक पैकेट आता है मूंगफली का. वाह साहब, क्या कहने. फिल्म का मज़ा दूना हो गया. सिनेमा हॉल में जो आनंद पॉप कॉर्न नहीं दे पाता उससे कहीं ज़्यादा आनंद मूंगफली दे जाती है. छीलते जाइये, खाते जाइये और मसालेदार नमक या फिर हरी मिर्च की चटनी का साथ मिल जाए तो सोने पे सुहागा.

कुल मिलाकर कहिये तो सर्दी का पूरा आनंद लिया जा रहा है. कष्ट तो ज़रूर है पर सुख प्राप्ति के तरीके अनेक हैं. मेरे ख़्याल से!